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Tuesday, July 10, 2018

सामाजिक  आंदोलन सामाजिक बदलाव में विफल क्यों

सामाजिक  आंदोलन सामाजिक बदलाव में विफल क्यों

मिशेल फूको ने कहा है कि,
"जहां वहाँ शक्ति है, वहाँ है प्रतिरोध।" - 
प्रतिरोध आंदोलन हाशिए पर रहने वालों और वंचित समुदायों के पक्ष  में सामाजिक परिवर्तन  की वकालत करने के  उपकरण  हैं। यह वास्तव में समाजिक पारस्परिकता  के लिए आवश्यक है।  लेकिन, आज के बाजार उन्मुख समाज में   प्रतिरोध के तत्व या तो कमजोर हो गए हैं या आहिस्ता - आहिस्ता  मर रहे हैं। हाल ही में, यहां यानि अपने देश में कई सामाजिक आंदोलन हुए पर उनका फल क्या मिला? उनका असर   निरंतर कमजोर होता हुआ मिट जाने के कगार पर है। सामाजिक आंदोलनों। यहीं नहीं अब, प्रतिरोध आंदोलन पूरी दुनिया में नाकाम होते दिखाई पड़ रहे हैं। वे अपनी ताकत खो रहे हैं  और उनके परिवर्तनकारी प्रभाव या तो दिखते नहीं या अपनी शक्ति खो चुके हैं।    प्रख्यात मानव विज्ञानी जेम्स स्कॉट के अनुसार  सामाजिक आंदोलनों की शक्ति  कम हो गई है और अब यह रोजाना के प्रतिरोध के रूप में बदल गयी है।  कभी कभी यह सिविल सोसाइटी की  के रूप में या  अल्पकालिक प्रतिरोध के रूप में दिखती है। 
   समकालीन  प्रतिरोध आंदोलन  खुद को परिवर्तनकारी आंदोलनों के रूप में  बनाए रखने विफल हो जाते हैं या सत्ता अथवा अन्य प्रमुख बलों के साथ समायोजित हो जाते हैं या उनमें विलीन हो जाते हैं। हालांकि आरम्भ में वे उन्हीं के विरुद्ध शुरू हुए थे। 
कांशी राम का बहुजन आंदोलन धीरे धीरे  एक राजनीतिक पार्टी के रूप में तब्दील हो गया।  यह सच हो सकता है कि दलित, आदिवासी, श्रम और अन्य आंदोलनों में दक्षिण एशियाई समाज  दुनिया भर में सबसे जागरूक है। पर इसके  साथ समस्या है कि इनमें से कई प्रतिरोध आंदोलन कुछ समय के बाद उन्हीं मूल्यों का अनुकरण करने लग जाते हैं  जिनके खिलाफ वे लड़ रहे थे। उनके  स्वर   धीरे-धीरे प्रमुख वर्ग की हां में हां मिलाने लगते हैं।  हममें से बहुतों  देखा होगा कि नेता और उनके समर्थक  समूह अंततः अपनी राजनीतिक संस्कृति और व्यवहार में   मुख्य धारा दलों और नेताओं का अनुकरण करने लगते हैं। मुम्बई या कोलकाता में  अधिकांश श्रमिक आंदोलन बेकार साबित हुए।  उनकी यूनियन के नेताओं ने अपनाया बाबुओं या  प्रबंधन "व्यवहार" को अपना लिया। प्रबंधन।  कुछ आदिवासी नेता धीरे-धीरे ऊपर चले गये और तब मुख्य धारा के राजनीतिक दलों में समाहित हो गए और अपनी क्षमता तथा  संस्कृति का अंतर नहीं कायम रख सके। इनमें से अधिकांश प्रतिरोध आंदोलन के लिए एक वैकल्पिक राजनीतिक संस्कृति और भाषा और  पहचान, अधिकार और मूल्यों के लिए दावा  करने लगे।लेकिन धीरे धीरे वे मुख्य धारा की राजनीति  के प्रभाव के तहत आ जाते हैं और  अंत में उसे स्वीकार करने लग जाते हैं ।  जब कांशी राम ने उत्तर प्रदेश में बहुजन आंदोलन शुरू किया था तो वह  यह था एक एक वैकल्पिक राजनीतिक संस्कृति के तौर पर उभरा। लेकिन धीरे धीरे व्यवहार में  प्रमुख राजनीतिक पार्टियों के रूप में बदल गया। अवसरवाद, भ्रष्टाचार और स्वार्थ  उन नेताओं के जीवन में प्रवेश कर गया  उस मिशन की रीढ़ की हड्डी थे। शुरुआत में, यह   एक आंदोलन और एक मिशन  के रूप में शुरू हुआ लेकिन यह धीरे-धीरे राजनीतिक पार्टी में तब्दील हो गया। आम आदमी पार्टी (आप) भी  एक बड़े पैमाने पर आंदोलन के रूप में प्रख्यात सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे के नेतृत्व में  उभरा लेकिन बाद में  नीचे दबे समकालीन राजनीतिक संस्कृति के रूप में ढल गया। अधिकांश आंदोलनों में एक वैकल्पिक भाषा के साथ संवाद आरम्भ हुआ और आगे चल सब   मुख्य धारा भाषा बोलने लगे। 
    अतीत में कुछ प्रतिरोध आंदोलनों में  नेतृत्व करने वाले राजनीतिक दलों और नेता स्वतंत्र राजनीति विकसित करने में विफल रहे हैं।   दलित आंदोलन के मामले में कांशी राम चमचा युग के रूप में निदान किया।  अपनी प्रसिद्ध पुस्तक  "चमचा युग" में  टिप्पणी की है कि ज्यादातर दलित नेता भारत में किसी भी वैकल्पिक दलित राजनीति के नाम पर बड़ी राजनीतिक दलों के चमचे के रूप में काम किया। उन्होंने यह विश्लेषण   अम्बेडकर की रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया (आरपीआई) परिप्रेक्ष्य में किया।  एक और संकट दिखा कि विभिन्न प्रतिरोध आंदोलनों समर्थक समूहों    के साथ मध्यम वर्ग के विकास के साथ  बीच उनके जमीनी स्तर पर कार्यकर्ताओं और श्रमिकों में उपभोक्तावादी संस्कृति भी बढ़ रही है। हालांकि,  प्रतिरोध आंदोलन की प्रगतिशील भूमिकाओं में विभिन्न क्रांतियों का मध्यम वर्ग  पर सकारात्मक प्रभाव पड़ा है। लेकिन यह उदय नए मध्यम वर्ग का है। लेकिन झुकाव इन आंदोलनों  में समझौता, वार्ता, समायोजन की ओर  है ।  उपभोक्तावाद का लोभ धीरे से खिसक कर हमारे लचीलेपन और  प्रतिरोध को कमजोर कर रहा है। मार्क्स, लेनिन और अम्बेडकर ने  कई जगह मध्य वर्ग के जीवन में विलासिता और  आत्मकेन्द्रीयता की आलोचना की है। फिर भी, राज्य के सहयोग से बाज़ारवाद विकसित हो रहा है। सत्ता किसी भी आंदोलन को ज्यादा समय तक चलने नहीं देती। वह इसे नियंत्रित और कुंद करने की हर तकनीक का उपयोग करती है।  प्रख्यात इतिहासकार एरिक होब्सबवन ने कहा है कि  "पूंजीवाद सवाल है जवाब नहीं है"। हमने बाज़ारवाद के शिकंजे में फंस कर जवाब की तलाश  बंद कर दी है। जरूरी है इस तलाश को शुरू करने की।

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