संसदीय प्रणाली में भी तानाशाही
हमारे देश में लोक का शासन स्थापित करने के लिए लोकतंत्रीय निर्वाचन की व्यवस्था हुई। लेकिन उद्देश्य सफल नहीं हो सका, क्योंकि कालांतर में जाकर यह बड़े आराम से तानाशाही में बदल जाती है। हमारे देश की सबसे बड़ी कमी है कि हमने ब्रिटिश पद्धति से लोकतंत्र की नकल की । असल में हमारे पूर्वज जिन्होंने ऐसा किया वह अंग्रेजी पढ़े लिखे थे और समाज को समझने में उनसे भूल हो गई। हमारा समाज संस्कृति उन्मुख है और भीतर ही भीतर जातियों उप जातियों में विभाजित है। यह जातियां - उपजातियां उदग्र वत अपने अपने स्तर पर संगठित हैं । जबकि ब्रिटिश समाज जातिविहीन और शिक्षा उन्मुख है।
यही कारण है कि हमारा प्रधानमंत्री बहुमत होने पर वह सब कर सकता है जो एक जर्मन सम्राट या अमरीकी राष्ट्रपति नहीं कर सकता है। बहुमत होने पर हमारा प्रधानमंत्री कानून बदल सकता है , टैक्स लगा सकता है, टैक्स हटा सकता है और राज्यों को निर्देश दे सकता है। ब्रिटिश शासन व्यवस्था और भारतीय लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में एक बुनियादी फर्क यह भी है कि उसका प्रमुख रानी है जो आजीवन रहती है जबकि भारतीय शासन व्यवस्था का प्रमुख राष्ट्रपति होता है जिसका कार्यकाल नियत होता है और वह राज्य और केंद्र के निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा चुना जाता है । इसका अर्थ है कि वह निर्वाचित प्रतिनिधियों की दया पर आता है।
हमारे देश में यह बताया जाता है अमरीकी राष्ट्रपति खुद मुख्तार होता है और तानाशाह जैसा होता है । क्योंकि, राष्ट्रपति बदलने पर पूरी की पूरी अफसरशाही बदल जाती है। जबकि भारत में अफसरशाही का एक सुनिश्चित कार्यकाल है। भारत में कुछ ऐसा लगता है कि संसद सर्वोच्च है और प्रधानमंत्री तक को संसद के लिए जवाबदेह होना पड़ता है । जबकि अमरीका में प्रधानमंत्री को ऐसा नहीं करना होता है।
लेकिन ,अगर इसकी जरा सी समीक्षा करें तो पता लगेगा इसमें दोष क्या है? अमरीका में राष्ट्रपति अपने देश के किसी भी नागरिक को अपने मंत्रिमंडल में शामिल कर सकता है और क्योंकि वह संसद का सदस्य नहीं है इसलिए उसके चयन को लेकर राष्ट्रपति पर बंदिशें नहीं हैं। राष्ट्रपति जिनका चयन करता है वह अपने विषय के विशेषज्ञ और प्रतिष्ठित व्यक्ति होते हैं। अमरीकी राष्ट्रपति अपने हर कदम के लिए सांसद से मंजूरी लेता है। हर खर्च के लिए उसे संसद से मंजूरी देनी पड़ती है। वह युद्ध का आदेश तो दे सकता है लेकिन युद्ध में जो खर्च होगा उसकी मंजूरी संसद को देनी होती है। किसी भी तरह से राष्ट्रपति संसद के लिए जवाबदेह है और वह तानाशाह नहीं बन सकता। दूसरी खूबी यह है कि किसी भी बिल को कानून बनने के लिए 60% सदस्यों की सहमति जरूरी है इसलिए पक्ष और विपक्ष दोनों को इस मामले में सहयोग करना होता है।
जबकि भारत में जिस दल को बहुमत मिलता है उसका नेता प्रधानमंत्री बनता है। यदि कोई बिल पास नहीं होता है और संसद में गिर जाता है तो सरकार को त्यागपत्र देना होता है। इससे बचने के लिए सत्तारूढ़ दल व्हिप जारी करता है। ऐसी स्थिति में सत्तारूढ़ दल के हर सदस्य को अपना मत विधेयक के पक्ष में देना ही होता है । दूसरी तरफ विपक्ष का बहुमत नहीं होता इसलिए वह न बिल को रुकवा सकता है और ना उसमें संशोधन कर सकता है। बस केवल शोर मचा सकता है ।यही नहीं विपक्षी सदस्य द्वारा प्रस्तुत विधेयक निजी विधेयक होता है । आश्चर्यजनक है कि हमारे देश में 1970 के बाद एक भी निजी विधेयक पारित नहीं हुआ । इसका स्पष्ट अर्थ है कानून संसद नहीं सरकार बनाती है। प्रधानमंत्री अगर शक्तिशाली होता है तो वह संसद को कुछ नहीं समझता। इंदिरा गांधी और नरेंद्र मोदी ऐसे ही प्रधानमंत्री हैं। इंदिरा जी ने इमरजेंसी लगा दी और सब देखते रह गए। वही हाल नरेंद्र मोदी ने नोटबंदी और जीएसटी लाकर किया। ऐसे बड़े फैसलों में संसद की कोई भूमिका नहीं थी। नोटबंदी में सारा देश लाइन में खड़ा देखा गया और कई लोग उसे मारे भी गए लेकिन प्रधानमंत्री से कोई जवाब नहीं मांगा जा सकता। क्योंकि उनकी जवाबदेही नहीं थी । वे दावा करते रहे कि काला धन खत्म हो गया। लेकिन, 2017 की रिपोर्ट के अनुसार स्विस बैंकों में जमा भारतीयों के धन में 50% की वृद्धि हो गई।
संसद में या संसदीय प्रणाली में प्रधानमंत्री एक सम्राट की तरह होता है। उसका एक छत्र राज्य चलता है और यह लोकतंत्रीय शासन प्रणाली में तानाशाही है । यही कारण है कि देश में इन दिनों राष्ट्रपति शासन प्रणाली या मिश्रित शासन प्रणाली चर्चा चल रही है।
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