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Tuesday, July 31, 2018

कृषि को नियंत्रण मुक्त किया जाए

कृषि को नियंत्रण मुक्त किया जाए
अभी हाल में सरकार ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में धान, कपास और अन्य खरीफ फसलों के उगाही मूल्य बढ़ाने की घोषणा की। उस प्रेस कॉन्फ्रेंस में गृहमंत्री राजनाथ सिंह भी मौजूद थे और आत्मप्रशंसा के मूड में दिख रहे थे। उन्होंने कहा कि, सरकार ने  किसानों को उनके उत्पादन मूल्य से 50% ज्यादा कीमत देने का अपना वादा पूरा कर दिया। अब क्या सचमुच स्वामीनाथन आयोग की अनुशंसा के मुताबिक मूल्य वृद्धि 50% है या नहीं यह बहस का विषय है। इस बहस को थोड़ी देर के लिए छोड़ दीजिए । यह देखा जाए कि  यह उगाही एक धोखा है या वास्तविकता। विख्यात कृषि अर्थशास्त्री डॉ अशोक गुलाटी के अनुसार " यह घोषणा एक बड़ी मूर्खता है और सरकार को कृषि अर्थव्यवस्था की जानकारी नहीं है। कृषि अर्थव्यवस्था तो छोड़िए मामूली अर्थव्यवस्था की भी जानकारी नहीं है। क्योंकि यह बहुत साधारण बात है कि बाजार की कीमतें मांग और आपूर्ति की जरूरतों के आधार पर तय होती है इसे तुमको उत्पादन मूल्य के आधार पर तय नहीं किया जा सकता।"
  जो खेती करते हैं वह इसका सच जानते हैं। उदाहरण के लिए बादाम ही लें । इसका उगाही मूल्य 4,500 रुपए प्रति क्विंटल है। जबकि यह बाजार में 3500 रुपए प्रति क्विंटल बिक रहा है। कारण बिल्कुल साधारण है कि मूल्य बाजार तय करता है। सरकार ने कपास के मूल्य में 26% की वृद्धि की है और यही मौजूदा कीमत है । अब इसका असर  होगा कि  कपास का निर्यात शून्य हो जाएगा क्योंकि घरेलू मूल्य और निर्यात मूल्य में महज 10% का अंतर है। सिर्फ 26% के कारण हम अंतरराष्ट्रीय बाजार से बाहर हो जाएंगे। इधर कॉटन कारपोरेशन को 70 लाख टन कपास की उगाही करनी होगी वर्ना घरेलू बाजार समाप्त हो जाएगा । अब इस 26% का कपड़ा उद्योग पर क्या असर पड़ेगा यह तो अलग बात है, वैसे खबर है कि कपड़े की कीमत में 10% तत्काल वृद्धि हो जाएगी । बुनियादी तथ्य है कि सरकार जो उगाही करेगी वह कुल उत्पादन का 10 से 15% ही होगा और उसके बाद किसान कपास के ढेर पर चुपचाप बैठा अपनी किस्मत को रोता रहेगा । सरकार के भंडार में वैसे ही 40 लाख टन  दाल और कई लाख टन चावल तथा गेहूं पड़ा हुआ है । इस भंडार का अनाज राशन की दुकानों के माध्यम से  बेचा जाएगा या घाटा बर्दाश्त कर निर्यात कर दिया जाएगा अथवा पड़ा-पड़ा सड़ जाएगा। 2017 में  खाद्यान्न का सब्सिडी बिल 1 लाख 69 हजार करोड़ था और इस साल इसमें और भी ज्यादा वृद्धि होगी।  वैसे व्यवहारिक बुद्धि तो यह बताती है की स्वामीनाथन द्वारा अनुशंसित मूल्य सरकार द्वारा देना संभव नहीं है ,क्योंकि इससे भारी घाटा होगा और इस तरह से जो कीमतें तय होती हैं उनका बाजार से कोई संबंध नहीं है।
     यही हाल गन्ना और दूध को लेकर भी है। गन्ना मिलें और डेयरी उद्योग के पास भारी स्टॉक पड़ा हुआ है जो बिक ही नहीं रहा है और सरकार अनाप-शनाप कीमतें तय करती है। अब इसका नतीजा यह होता है गन्ना किसानों और दूध की आपूर्ति करने वाले किसानों के लिए कीमत तो बढ़ गई लेकिन बाजार का मूल्य नहीं बढ़ा और स्टॉक यूं ही पड़ा रहता है। पाउडर दूध की कीमत बहुत बढ़ गई लेकिन उसका निर्यात  मूल्य तेजी से गिर गया ।अक्टूबर से आशंका है कि इन दोनों वस्तुओं में भारी संकट आएगा।
         वास्तविक समस्या तो यह है कि हम जितना उत्पादन करते हैं उतनी खपत नहीं है। अब अगर बाजार कीमतों को तय करता है तो कीमतें गिर जाएंगी ,किसानों को हानि होगी। अब कम कीमतों के कारण सरकारी गोदाम कृषि उत्पादन से भरे हुए हैं और  सड़ रहे हैं अथवा कम कीमत पर बेचे जा रहा है । यह चक्र हर साल चलता है और गरीब किसान उसी फसल को बढ़ती उम्मीदों के साथ पैदा करता रहता है ,जो कभी पूरी नहीं होती।
   समाधान थोड़ा पीड़ादायक है और उसे लागू करने में थोड़ा समय भी लगेगा । जाहिर है कि अगर किसान उत्पादन की कीमत घटाने के काबिल हो जाए ताकि बाजार का मूल्य लाभदायक हो सके ऐसा तभी हो सकता है जब बेहतर जानकारी और अच्छी टेक्नोलॉजी के जरिए वह सस्ते में अपना उत्पादन बढ़ा सकें। दूसरा कि वह सीधे बाजार में अपना माल बेच सके। सरकार को कृषि पर से अपना नियंत्रण थोड़ा ढीला करना होगा। समय आ गया है कि कृषि उत्पादन को आवश्यक वस्तु अधिनियम के दायरे से मुक्त किया जाए। भारतीय किसान राष्ट्र का पेट भरने की क्षमता रखता है । उसे विदेशी बाजारों में भी सामान बेचने की अनुमति मिलनी चाहिए ताकि वह ज्यादा सक्षम बन सके । कोई कारण नहीं है कि भारतीय किसान चुनौतियों का सामना नहीं कर सकता है ।1991 के बाद से भारतीय उद्योग ने बहुत कुछ कर दिखाया है ,अब किसानों की बारी है उन्हें भी अवसर दिया जाए।
      ऐसा करने से कुछ दिनों तक दिक्कतें आएंगी। हो सकता है कि कृषि कार्य में थोड़ी मुश्किलें आएं और कीमतें भी बढ़े लेकिन यह तो सुधार तथा परिवर्तन की पीड़ा है। शहरी क्षेत्र इस पीड़ा को बर्दाश्त करने को तैयार है। अगर हम नहीं बदलते हैं तो अपने किसान भाइयों के साथ भारी अन्याय करेंगे। परिवर्तन से अलावा कोई विकल्प नहीं है।

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