देश का हर आदमी जिस सिस्टम में जी रहा है, वहां का एक मूलमंत्र है..यह सब चलता है।.. उस हालत में नियम-कायदों को ताक पर रख दिया जाता है। जिसे मौका मिलता है वह नियमों को तोडऩा अपना अधिकार मानता है - कहीं कम कहीं ज्यादा। जब यह अधिकार बिकने लगे तो नतीजा वही, जो आज देखने को मिल रहा है। ऐसा लगता है कि सरकार से लेकर पत्रकारिता तक सब कुछ बिकाऊ है।
कर्नाटक के मुद्दे पर भी कांग्रेस कुछ तर्क दे रही है। उन तमाम संदेहों की जांच होनी चाहिए पर येदियुरप्पा को थैली शाहों तथा पेड न्यूज का शिकार भी नहीं बनने दिया जाना चाहिए।
आज का भारत अफ्रीका के किसी ऐसे नवजात और भ्रष्ट समाज का दर्शन कराता है जहां किसी भी क्षेत्र में ईमानदारी बची ही न हो। हाल ही के कुछ ताजा उदाहरण देखें- साठ से सत्तर हजार करोड़ रुपये के घोटाले का दायरा रखने वाला कॉमनवेल्थ गेम्स घोटाला, जिसमें प्रधानमंत्री कार्यालय के अधिकारियों से लेकर दिल्ली सरकार तक पर शक की सुई घूम रही है। 2 जी स्पैक्ट्रम घोटाला सी.ए.जी की रपट के अनुसार एक लाख इकहत्तर हजार करोड़ रुपये के दायरे में हैं। मुम्बई के आदर्श हाउसिंग सोसायटी घोटाले ने तो कारगिल शहीदों की स्मृति तक को अपमानित कर दिया। इन सबकी जांच के लिए जब समूचा विपक्ष संयुक्त संसदीय समिति द्वारा जांच बिठाने की मांग करता है तो सरकार वहां से ध्यान हटाने की कोशिश करती है। वास्तव में किसी भी प्रकार की मांग को लेकर संसद की कार्यवाही बाधित करना संसदीय परंपरा और संसदीय कामकाज के दायित्व का उल्लंघन है लेकिन जब देश राजनेताओं पर भयंकर अविश्वास के अभूतपूर्व दौर से गुजर रहा हो तो जांच की उचित प्रक्रिया को लागू करने के लिए सरकार पर दबाव डालने का और कोई तरीका भी शेष नहीं रहता।
सरकारी पक्ष तो भ्रष्टाचार के मामले पर विपक्षी नेताओं को बोलने तक का समय नहीं देता। वित्त मंत्री श्री प्रणव मुखर्जी ने संसदीय लेखा समिति द्वारा जांच कराए जाने का प्रस्ताव रखा लेकिन विपक्ष ने इसे इसलिए स्वीकार नहीं किया क्योंकि इस समिति का अधिकार क्षेत्र और दायरा बहुत सीमित है।
हम अपने लोकतंत्र की शान में गौरव- गान करते हैं जो उचित ही है। लेकिन यह कैसा लोकतंत्र है जो एक ओर तो 9 से 10 प्रतिशत विकास दर की ऊंचाई छूता है और दूसरी ओर 40 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा से नीचे 20 रुपये प्रतिदिन से कम पर गुजारा करते हैं। एक ओर चुनाव सुधारों तथा राजनीतिक शुचिता पर सेमिनार होते हैं वहीं दूसरी ओर जनता का धन लूटकर स्विस बैंकों में सत्तर लाख करोड़ काला धन जमा करने वाले भारतीय नेता और उद्योगपति होते हैं। जो संसद उन लोगों को संरक्षण देने वालों को बचाए, जो देश की मिट्टी के साथ विश्वासघात करते हुए संविधान और जनता का मजाक उड़ाते हैं वह संसद निरर्थक और नाकामयाब ही कही जाएगी।
इन सारी स्थितियों के प्रति देश का रिएक्शन अब वैसा नहीं रहा, जैसा पहले हुआ करता था। कहना होगा कि वक्त के साथ हम मेच्योर हो गए हैं और अब घपले-घोटाले हमें उतना परेशान नहीं करते, जितना एक दशक पहले किया करते थे। यह मेच्योरिटी, यह उदासी बहुत कुछ कहती है। एक तो यह कि कोई भी सोसायटी एक-सी कहानी से एक दिन ऊब जाती है। दूसरा यह कि नए उभरते शहरी मिडल क्लास को सियासी ड्रामों में अब उतनी दिलचस्पी नहीं रही। वह अपने करियर, इनवेस्टमेंट और एंटरटेनमेंट की बदहवासी में खोया हुआ है। तीसरा यह कि करप्शन अब बड़ी बात इसलिए नहीं रही कि हम इसे लाइफस्टाइल के तौर पर मंजूर कर चुके हैं।
आप कहेंगे, इसमें नया क्या है? ये बातें अरसे से कही जा रही हैं। इनमें नया है मंजूरी का वह लेवल, जो पहले कभी नहीं था। आज की फिल्में आप देखते होंगे। इनमें चरित्र कोई मुद्दा है ही नहीं, जबकि अभी हाल तक कॉमिडी में भी चोर को सुधरना पड़ता था, बेईमान सही रास्ते पर आ जाते थे और गलत तरीके से मिली दौलत क्लाइमेक्स में खुद-ब-खुद छिन जाया करती थी। करप्शन को किसी सोसायटी में इस तरह की मंजूरी मिल जाती है, तो क्या होता है? और भी ज्यादा करप्शन, बेहिसाब करप्शन, जिसे रोकना मुमकिन नहीं रहता।
Tuesday, November 30, 2010
इस देश में सब चलता है
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अरुंधति, काश आपने इतिहास पढ़ा होता!
अरुंधति या बुकर अवार्ड अलंकृत अरुंधति राय। मैडम फरमाती हैं कि कश्मीर कभी भारत का हिस्सा रहा ही नहीं। आज हमें आपकी एक बात बहुत खटक रही है। आज हमारे देश में आपकी मौजूदगी और हमारे देश की नारी होने के कारण हमारा सिर शर्म से झुक रहा है। क्या बुकर पुरस्कार से सम्मानित होने के बाद आपका कद हमारे भारत देश से भी ऊंचा हो गया? आप इतनी बड़ी हो गयीं कि हमारे देश के बारे में कुछ भी बोल सकती हैं?
सच तो यह है कि आप हमारे देश के किसी भी भाग पर अंगुली नहीं उठा सकतीं। इस बात की हम आपको इजाजत नहीं देंगे। जो भारत हमारे हृदय में बसता है, उसके बारे में आपको एक शब्द बोलने की इजाजत नहीं देंगे। कश्मीर के बारे में बोलने से पहले आपने काश! इतिहास पढ़ लिया होता। आपको तो भारतीय इतिहास की इतनी भी जानकारी नहीं है जितनी हाई स्कूल में पढऩे वाले इतिहास के छात्र को होती है।
कश्मीर के पहले प्रामाणिक इतिहासकार कल्हण ने.. राजतरंगिणी.. में लिखा है कि कश्मीर के ज्ञात इतिहास में गोनन्दा -1 पहला राजा था। वह मगध के राजा जरासन्ध का भाई था। गोनन्दा-1 को कृष्ण ने हराया था। युद्ध में गोनन्दा-1 और उसका बेटा दामोदर मारे गए थे। लेकिन कृष्ण ने कश्मीर को दामोदर की पत्नी यशोवती को सौंप दिया। इसके बाद परीक्षित का बेटा, जनमेजय का छोटा भाई और अर्जुन का प्रपौत्र हरनदेव, दामोदर के बेटे गोनंदा-2 को पराजित कर कश्मीर का राजा बना। इसके बाद कश्मीर के राजाओं के रूप में जालुष्क, हालुष्क और कनिष्क का जिक्र आता है। यह मौर्य काल था और अवधि थी 323 से 185 ई. पू. और इनका साम्राज्य कश्मीर ही नहीं अफगानिस्तान और ईरान तक था और यहां तक फैला हुआ था भारत। अरुंधति जी ने इतिहास पढ़ा होता तो उन्हें मालूम होता कि यहां, जी हां इसी कश्मीर में ईसा पूर्व 320 में कनिष्क ने गौतम बुद्ध की तीसरी सभा का आयोजन किया था। उसके बाद गुप्त काल (ई.320 से ई.550), हर्षवर्द्धन - काल (ई.600 से ई.647) फिर आया..राजपूत काल.., पूरा भारत ..यूरोप.. की तरह छोटे- छोटे राज्यों में बदल गया। तब ई. 650 से लेकर ई. 1526 तक भारत राजपूत राजाओं के राज में एक..कल्चरल देश.. था। यही वह समय था, जब भारत कमजोर पड़ गया था। इसकी ताकत छितरा गयी थी। बस विदेशियों को मौका मिल गया। इसके बावजूद मोहम्मद बिन कासिम की सबसे बड़ी शिकस्त ई. 715 में राजपूत राजा बप्पा रावल के हाथों हुई थी। पृथ्वीराज चौहान ने मोहम्मद गोरी को छोड़ दिया था। मोहम्मद गोरी को बुलाने वाला राजा जयचंद भारतीय ही था। एक जयचंद ने भारत को गुलाम करवा दिया था। अब तो हर गली में..जयचंद.. घूमते हैं। मुगलकाल में कश्मीर भारत का हिस्सा था। ब्रिटिश काल में तो था ही कश्मीर भारत का हिस्सा। समझ नहीं आ रहा कि लोग कौन सा इतिहास पढ़ रहे हैं?
जहां तक धर्म का सवाल है, कश्मीर में शैव मत (1800-1020 ई.पू); वैष्णव मत (1020-250 ई.पू); बौद्ध मत- (250 ई.पू-550 ई.); हिन्दू मत (550 ई -1330 ई); इस्लाम 1330 ई.से अब तक) कायम रहा है या कायम है। अरुंधति जी, आपके इतना मुखर होने पर हम यह पूछते हैं कि क्या आपके पास कश्मीर का कोई स्थायी समाधान है? अगर है तो सरकार के समक्ष कोई योजना बनाकर रखिए लेकिन वह भारत हित में होनी चाहिए, हमारे दुश्मनों के हित में नहीं। असलियत यह भी है कि हर भारतीय कश्मीर समस्या का समाधान चाहता है लेकिन आज तक किसी ने भी आप जैसा कदम नहीं उठाया। अरुंधति जी, आप ऐसे लोगों के लिए धिक्कार कहतीं, तो हमारे समझ में बहुत कुछ आता लेकिन आपने उल्टी गंगा बहाने की कोशिश की है। धिक्कार है आप पर...।
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नीतीश : पैरों में..रेड कार्पेट.. और सिर पर कांटों का ताज
बिहार विधानसभा के चुनाव परिणाम इससे ज्यादा चामत्कारिक नहीं हो सकते थे। अगर होते तो पूरी तरह से अविश्वसनीय हो जाते। जिस तरह का अकल्पनीय बहुमत जद (यू)-भाजपा गठबंधन को वहां प्राप्त हुआ है वह यह बताने के लिए पर्याप्त है कि राजनीति के फैसले अब जनता के बीच से होने वाले हैं। नीतीश के कदमों तले लाल गलीचे बिछ गये हैं।
बिहार ने राजनीति के विकेंद्रीकरण के लिए ऐसी भय और आतंकमुक्त जमीन तैयार कर दी है जो आने वाले वर्षों में अन्य राज्यों और नयी दिल्ली में भी सत्ता के समीकरणों और स्थापित मान्यताओं को बदल कर रख देगी। बिहार के चुनाव परिणाम केवल सड़कों, समाज कल्याण की सरकारी योजनाओं या ग्यारह प्रतिशत की विकास दर के नाम ही नहीं लिखे जा सकते। परिणामों का श्रेय तो वास्तव में जातिवाद के षड्यंत्र से प्रदेश को मुक्ति दिलाने की उस कोशिश को दिया जाना चाहिए जिसकी शुरुआत लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में नीतीश और सुशील मोदी ने वर्ष 1974 में कंधे से कंधा मिलाकर बिहार आंदोलन के जरिए की थी और जो पिछले पांच वर्षों से परवान चढ़ती रही है।
लालू प्रसाद यादव को जोरदार मात मिली है। हालांकि जानकार इस बात पर बंटे हुए हैं कि लालू को सियासत से आउट माना जाए या नहीं? लेकिन लालू जैसी शख्सियत में भारतीय राजनीति की दिलचस्पी अभी बनी रहेगी। लालू के तिलस्म का गारंटी पीरियड अभी खत्म नहीं हुआ है। इस बिसात में घोड़े या हाथी के तौर पर न सही, एक प्यादे के तौर पर वह कुछ बड़ी चालें तो चल ही सकते हैं। भारतीय सियासत, राजकाज, डेमोक्रेसी या सोसायटी में दिलचस्पी रखने वाले किसी भी शख्स के लिए लालू को नजरंदाज करना मुश्किल रहा है।
सोचिए, जेपी के जलजले से एक युवा छात्र नेता उभरता है और अपने गंवई अंदाज से जनता का दिल जीत लेता है। वह सोशल जस्टिस का सबसे दमदार मोहरा बनता है और उसे सियासत के कारगर नुस्खे में बदलता हुआ देश के एक बड़े सूबे की सत्ता को उलट-पलट देता है। वह..राजा.. बन जाता है। उसकी इच्छा..प्रजा.. की इच्छा बन जाती है। वह पिछड़े और अल्पसंख्यकों का एक शानदार गठजोड़ तैयार करता है और सामंत वर्ग को ठिकाने लगाता हुआ एक नया सामंत खड़ा करता है। क्लास और कास्ट के इंडियन फॉमूलों के जरिए डेमोक्रेटिक पॉपुलैरिटी का नया मॉडल रचा जाता है और अचानक वह एक नेशनल हीरो के तौर पर पहचाना जाने लगता है।
बहुत कम लीडर होंगे, जो दो वक्त की दो धाराओं में बराबर तैर सकते हों। लिहाजा लालू से नीतीश की ओर सियासत का सफर होना था और हुआ। यह हुआ भी अपने वक्त पर ही, क्योंकि देश के एक सबसे पिछड़े राज्य में तरक्की की तड़प देर से ही पैदा होनी थी। बाजार को भी उसकी जरूरत सबसे बाद में पडऩी थी।
इस हिसाब से हम देखें तो यह कहानी लालू की नहीं है, नीतीश की भी नहीं है। इस कहानी का नायक बिहार है, अपनी किस्मत की तलाश में निकली भारत के बड़े राज्य की पिछड़ी आबादी, जिसने अपनी वक्ती जरूरत के हिसाब से अपने शासक चुने- पहले लालू और फिर नीतीश।
इसलिये नीतीश की वास्तविक चुनौतियां अब शुरू होंगी। बिहार में शिक्षा के स्तर में सुधार आया है, लेकिन नौकरियों की अब भी किल्लत है। सुरक्षा व्यवस्था सशक्त हुई है, लेकिन निवेशकों ने अभी राज्य में रुचि लेना शुरू नहीं किया। अपराधों पर नियंत्रण हुआ है, लेकिन भ्रष्टाचार में इजाफा भी हुआ है। सड़कें बनी हैं, लेकिन बिजली संकट अब भी मुंह बाये खड़ा है। बिहार की बहुसंख्य आबादी को अब भी गरीबी से बाहर निकलने का रास्ता नहीं सूझ रहा। पंजाब दिल्ली, गुजरात और यहां तक कि खाड़ी के देशों में श्रमिकों का पलायन जारी है। स्वयं नीतीश की छवि चाहे जितनी ही..लार्जर देन लाइफ.. क्यों न हो गयी हो, लेकिन उनकी पार्टी जनता दल (यू) उतनी ताकतवर नहीं हुई है। इसके चलते नीतीश कुमार को अपनी नीतियां लागू करने के लिए नौकरशाहों की कोर टीम पर निर्भर होना पड़ेगा। नीतीश का राज जरूर है, लेकिन पाटलिपुत्र का ताज कांटोंभरा है।
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Friday, November 26, 2010
भुखमरी दस्तक दे रही है
क्या बंगाल-दुर्भिक्ष अमर्त्य सेन जैसे अर्थशास्त्रियों की अध्ययन स्थापनाओं का पैमाना? भले रबी की बंपर फसल (विशेषकर गेहूं) की संभावनाओं के बीच यह विषयांतर लगे, लेकिन दहशतनाक सच्चाई यही है कि अगर हम अब भी न चेते तो हमारे यहां ही नहीं दुनिया के हर हिस्से में बंगाल जैसे दुर्भिक्षों की वापसी हो सकती है जिसमें लाखों ने भूख से तड़प-तड़प कर दम तोड़ा था।
जी हां! भले ही जेनेटिक मोडीफाइड बीजों (फसलों) की बदौलत हम इस भुलावे में रहने की कोशिश करें कि दुनिया की खाद्यान्न समस्याओं का हल हमारे हाथ में है, लेकिन हकीकत यह है कि पिछले कुछ सालों से दुनिया के सभी कोनों में खाद्यान्न की समस्या गहरा रही है और चिह्न ऐसे हैं, जो इस समस्या के भयावह होने की तरफ इशारा कर रहे हैं। भुखमरी चुपके से दुनिया की दहलीज पर आ धमकी है और अब दस्तक दे रही है।
42 साल पहले 1968 में अमरीकी वैज्ञानिक डॉ विलियम गॉड ने उत्पादन में सुधार करके दुनिया को..ग्रीन रिवोल्युशन.. जैसी सौगात भेंट की थी। लेकिन हरित क्रांति के फायदों में वशीभूत दुनिया को एक बार भी यह ख्याल नहीं आया कि प्रकृति से कोई छेड़छाड़ सिर्फ हमारे फायदे के लिए ही नहीं हो सकती। कहने का मतलब यह नहीं सोचा गया कि ..ग्रीन रिवोल्युशन.. की चाहत खेती का इकोलॉजी सिस्टम भी बिगाड़ सकती है। वही हुआ पैदावार बढ़ाने के तात्कालिक फायदों को ध्यान में रखते हुए मिट्टी का अधिकाधिक दोहन करने वाली फसलों की बाढ़ आ गयी और इसे..'सघन कृषि.. का नाम दिया गया। कुछ यूं जाहिर किया गया जैसे ज्यादा उत्पादन हासिल करने के लिए बहुत सूझबूझ और परिश्रम का सहारा लिया जा रहा है जबकि हकीकत यह थी कि..सघन कृषि.. के नाम पर दुनिया धरती की उर्वरता का अंधाधुंध दोहन कर रही थी। लगातार की गयी सघन खेती और कीटनाशी, फफूंदनाशी व खरपतवारनाशी दवाओं के हस्तक्षेप से जमीन की उर्वरता क्षरित होने लगी और मिट्टी क्षारीय व लवणीय होने लगी। पिछले चार दशकों में जब दुनिया इस खुशफहमी में जी रही थी कि हरित क्रांति की बदौलत अन्न समस्या का अंत हो गया। मिट्टी में बढ़ती लवणीयता और क्षारीयता के कारण खेती योग्य भूमि के क्षेत्रफल में कमी आने लगी। सिर्फ हिन्दुस्तान में ही नहीं पूरी दुनिया में यह भयावह समस्या देखने को मिली है।
अकेले पिछले 5 सालों में ही पूरी दुनिया में खेती के रकबे में 8 प्रतिशत की कमी आयी है। धूलभरी आंधियां बढ़ रही हैं, जिसमें एक ओर जहां रेगिस्तान का विस्तार हो रहा है वहीं दूसरी तरफ नदियों में भारी पैमाने पर प्रदूषण बढ़ रहा है। हाल के कुछ दशकों में धरती के औसत तापमान में 2 प्रतिशत तक की वृद्धि हुई है। इससे फसलों का चक्र तो बुरी तरह से गड़बड़ाया ही है, गेहूं और चावल की उत्पादकता में भी 8 से 10 प्रतिशत तक की कमी आयी है। जिस कारण खेती जहां एक ओर घाटे का सौदा बनी है, वहीं दूसरी ओर गांवों से शहरों की तरफ पलायन में बेहद तेजी आयी है। विशेषज्ञों का मानना है कि अगर अब भी नहीं चेते तो हरित क्रांति के गढ़ अगले एक-डेढ़ दशक में रेगिस्तान में तबदील हो जायेंगे। गौरतलब है कि जलस्तर को पुनर्जीवित करना सबसे मुश्किल और लगभग असंभव काम होता है।
इस जलवायु परिवर्तन के चलते भारत सहित दुनिया के तमाम देशों में खाद्यान्न का संकट साफ-साफ नजर आने लगा है। वर्ष 2008 और 09 में चीनी के उत्पादन में 4.7 से 5.8 प्रतिशत तक की कमी आयी है दूसरी तरफ मांग और आपूर्ति का फासला भयानक रूप से बढ़ा है। हालांकि 2009-10 की रबी फसल के कारण फिलहाल हमारे गेहूं के बफर स्टॉक में कमी नहीं आयेगी, लेकिन दुनिया के संदर्भ में देखें तो खाद्यान्न का बफर स्टॉक खतरे में पड़ते जा रहे हैं।
भारत में खाद्यान्न के दामों में 20 से 38 प्रतिशत तक की स्थायी वृद्धि हो चुकी है जिस कारण 18 से 25 प्रतिशत तक निम्न और मध्य वर्ग के लोगों की क्रयक्षमता पर बेहद नकारात्मक असर पड़ा है। इसके बावजूद बाजार में मांग और आपूर्ति के मामले में 15 से 20 प्रतिशत का फासला बढ़ा है। विशेषकर दालें और खाद्य तेल बाजार में स्थायी रूप से कम पड़ गए लगते हैं।
कुल मिलाकर कहीं हमने अपनी होशियारी से तो कहीं नादानी से इस तरह की स्थितियां पैदा कर ली हैं और करते जा रहे हैं कि भुखमरी की अतीत गाथाएं इतिहास के भूतलों से निकलकर हमारी दहलीज तक आ पहुंची हैं और दरवाजों पर दस्तक दे रही हैं। अगर अब भी हम बहरे बने रहे तो आने वाले सालों में करोड़ों लोग भयावह बीमारियों से नहीं भूख से मर जायेंगे।
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बिहार में नीतीश की आंधी
उड़ गये लालू-गांधी
बिहार विधान सभा चुनाव के नतीजे आ गये और जैसा कि अनुमान था नीतीश कुमार प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में लौट आये और जैसी कि उम्मीद नहीं थी बाकी दल खास कर अपने को बिहार के राजा समझने वाले लालू यादव और कभी के गिनीज बुक अलंकृत रामविलास पासवान बुरी तरह हारे। नीतीश शुक्रवार (२६ नवंबर) को शपथ लेंगे। उन्होंने बिहार के विकास के लिये तीन सूत्री अजेंडा तय किया है, जिस बिहार में नीतीश समर्थक..3 स.. के नाम से पुकारते हैं वे हैं - सड़क, शिक्षा और सुरक्षा। इस बार भी वे इसी के लिये काम करेंगे, ऐसा आश्वासन दिया है।
नीतीश कुमार ने साफ कर दिया कि उन्हें बिहार के लिये काम करने का जनादेश मिला है और वे इसका सम्मान करते हुए केवल बिहार के लिये ही काम करेंगे। इस चुनाव परिणाम से सबसे ज्यादा आघात कांग्रेस को लगा है। सोनिया गांधी और राहुल गांधी के धुआंधार प्रचार के बावजूद कांग्रेस दहाई का आंकड़ा भी नहीं हासिल कर सकी। हालांकि उनके नेता अब खिसियानी बिल्ली की भांति खंभा नोचने की शैली में कह रहे हैं कि वे अपनी पराजय के कारणों का विश्लेषण करेंगे और अगले चुनाव में चुनौती बनकर उभरेंगे।
बिहार विधानसभा चुनाव में इस बार सत्तारूढ़ दलों ने विकास को मुद्दा बनाया, जबकि विपक्षी पार्टियों ने सरकार की कथित नाकामी को जनता के बीच उछालने की कोशिश की। सभी पार्टियों ने पूरी ताकत झोंक दी थी। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और राहुल गांधी प्रचार करते रहे तो भाजपा की ओर से लालकृष्ण आडवाणी के अलावा सुषमा स्वराज, मुरली मनोहर जोशी, अरुण जेटली, उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी जैसे नेता मैदान संभाले रहे। जनता दल (यू) की ओर से मुख्यमंत्री नीतीश कुमार स्वयं प्रचार की कमान संभाले हुए थे और उनका साथ पार्टी अध्यक्ष शरद यादव दे रहे थे। राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव, राबड़ी देवी अपना दावा ठोंक रहे थे तो लोजपा के प्रचार का जिम्मा पार्टी अध्यक्ष राम विलास पासवान ने संभाला हुआ था। हालांकि नीतीश ने भाजपा के विवादास्पद नेताओं (नरेंद्र मोदी और वरुण गांधी) को प्रचार अभियान से दूर रखा था। बिहार के इस चुनाव में सबसे प्रमुख मुद्दा विकास का ही रहा है। हालांकि सभी दलों ने जोड़-तोड़, जुगाड़ और जातिवाद का मंत्र अभी भी नहीं छोड़ा था। इसका कारण उनके विश्वास में कमी ही अधिक है। सभी दल ये अच्छी तरह जानते हैं कि भले ही विकास सबसे जरूरी मुद्दा है लेकिन चुनावी वैतरणी केवल इस एक मुद्दे के सहारे नहीं पार की जा सकती।
जबकि बिहारी मतदाता पहले से कहीं ज्यादा जागरूक हो चुका है। नयी पीढ़ी जो अब इंटरनेट, मोबाइल से वाकिफ हो चुकी है खासकर बिहार के ऐसे लोग जिनके परिवार का कोई सदस्य बाहर निकल कर जीविकोपार्जन कर रहा वह विकास के मसले को ही प्राथमिकता दे रहे हैं। बिहार में इस बार पहले जितना आसान समीकरण नहीं रह गया था इसको सभी दलों को भली-भांति समझ लेना होगा और अपनी वर्षों चली आ रही परंपरागत राजनीति की हठधर्मिता छोड़ कर विकास के मानदंड को अपनाना होगा। यही बिहार के भविष्य के साथ स्वयं उनके अपने भविष्य के लिए भी सही रास्ता है।
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संसद को चलाना सरकार की जिम्मेदारी है
पिछले दिनों संसद में बड़ी तेजी से कामकाज ठप्प होता रहा फिर भी नाम के लिये ही सही कामकाज हुआ, पर मंगलवार (२२ नवंबर) को तो ऐसा लगा कि बैठक शुरू हुई और स्थगित हो गयी। विपक्ष ने संसद को चलने ही नहीं दिया। संसद को चलने देने की प्रणव मुखर्जी के साथ हुई बैठक भी बेकार चली गयी। प्रधानमंत्री ने विपक्ष को मनाने के लिये 2 जी घोटाले की कई स्तरीय जांच का हुक्म दे दिया यहां तक कि लोक लेखा समिति की जांच भी बैठा दी लेकिन विपक्षी दल संयुक्त संसदीय दल से कम में मानने को तैयार नहीं था और उन्होंने सरकार की हर कोशिश पर पानी फेर दिया। विपक्ष की हरकतों से यह साफ जाहिर हो रहा है कि उसे संसद की कार्यवाही को चलने देने या 2 जी घोटाले में जांच से कोई खास मतलब नहीं है बल्कि वह सरकार की फजीहत करके अधिक से अधिक राजनीतिक लाभ लेना चाहता है।
भारत एक ऐसा देश है जो बिना कामकाज के संसद को चलने देने का खर्च नहीं उठा सकता है। इसके लिये कोई एक सांसद दोषी नहीं है। संसद में बवाल करने का लगता है रिवाज चल पड़ा है। एक तरफ कुछ सांसद हैं कि किसी को नहीं बोलने देने पर आमादा हैं और दूसरी तरफ कुछ सदस्य हैं, चाहे वे थोड़े से ही हों , जो बड़ी अच्छी - अच्छी कामकाजी बातें करते हैं। अब अगर दोनों को..क्रिटिकली अनालाइज.. करें तो ऐसा नहीं लगता कि संसद की कार्यवाही फिर से शुरू ना की जा सके बशर्ते दोनों पक्षों के नेता ऐसा चाहें।
इस मामले में एक सुझाव हो सकता है कि दोनों पक्षों के चुनिंदा लोग बैठ कर लोक लेखा समिति और संसदीय जांच समिति की जांच क्षमताओं और निष्कर्षीय उपयोगिता पर बातें कर लें और जो ज्यादा उपयोगी हो उसे जिम्मा सौंप कर काम शुरू करें। कम से कम संसद पर गरीब करदाताओं के होने वाले खर्च का तो उपयोग हो। इसके अलावा इस विषय पर एक दिन दोनों सदनों में पूर्ण बहस हो उससे प्राप्त निष्कर्ष पर कदम आगे बढ़ाया जाय। हालांकि यह ऐसा मसला नहीं है कि आनन-फानन में सुलझ जाये पर संसद को काम करने तो दिया ही जा सकता है। अगर संसद में सरकार को लेकर विपक्ष मुखर है तो यह सरकार की जिम्मेदारी बनती है कि वह कुछ ऐसा वातावरण तैयार करे जिससे कार्यवाही फिर चल सके वरना यह तो इतिहास में दर्ज होती घटना है और इतिहासकार इसे नकारात्मक नजरिये से भी पेश कर सकते हैं तथा लोकतंत्र पर सवाल उठा सकते हैं।
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Tuesday, November 23, 2010
संसद को चलाना सरकार की जिम्मेदारी है
पिछले दिनों संसद में बड़ी तेजी से कामकाज ठप्प होता रहा फिर भी नाम के लिये ही सही कामकाज हुआ, पर मंगलवार को तो ऐसा लगा कि बैठक शुरू हुई और स्थगित हो गयी। विपक्ष ने संसद को चलने ही नहीं दिया। संसद को चलने देने की प्रणव मुखर्जी के साथ हुई बैठक भी बेकार चली गयी। प्रधानमंत्री ने विपक्ष को मनाने के लिये 2 जी घोटाले की कई स्तरीय जांच का हुक्म दे दिया यहां तक कि लोक लेखा समिति की जांच भी बैठा दी। लेकिन विपक्षी दल संयुक्त संसदीय दल से कम में मानने को तैयार नहीं हैं और वे सरकार की हर कोशिश पर पानी फेर दिया। विपक्ष की हरकतों से यह साफ जाहिर हो रहा है कि उसे संसद की कार्यवाही को चलने देने या 2 जी घोटाले में जांच से कोई खास मतलब नहीं हे बल्कि वह सरकार को फजीहत करके अधिक से अधिक राजनीतिक लाभ लेना चाहता है। भारत एक ऐसा देश है जो बिना कामकाज के संसद को चलने देने का खर्च नहीं उठा सकता है। इसके लिये कोई एक सांसद दोषी नहीं है। संसद में बवाल करने का लगता है रिवाज चल पड़ा हे। एक तरफ कुछ सांसद हैं कि किसी को नहीं बोलने देने पर आमादा हैं और दूसरी तरफ कुछ सदस्य हैं, चाहे वे थोड़े से ही हों, जो बड़ी अच्छी - अच्छी कामकाजी बातें करते हैं। अब अगर दोनों को.. क्रिटीकली अनालाइज... करें तो ऐसा नहीं लगता कि संसद की कार्यवाही फिर से शुरू ना की जा सके। बशर्ते दोनों पक्षों के नेता ऐसा चाहें।
इस मामले में एक सुझाव हो सकता है कि दोनों पक्षों के चुनिंदा लोग बैठ कर लोक लेखा समिति ओर संसदीय जांच समिति की जांच क्षमताओं और निष्कर्षीय उपयोगिता पर बातें कर लें और जो ज्यादा उपयोगी हो उसे जिम्मा सौंप कर काम शुरू करें। कम से कम संसद पर गरीब करदाताओं का होने वाले खर्च का तो उपयोग हो। इसके अलावा इस विषय पर एक दिन दोनों सदनों में पूर्ण बहस हो उससे प्राप्त निष्कर्ष पर कदम आगे बढ़ाया जाय। हालांकि यह ऐसा मसला नहीं है कि आनन-फानन में सुलझ जाये पर संसद को काम करने तो दिया ही जा सकता है। अगर संसद में सरकार को लेकर विपक्ष मुखर है तो यह सरकार की जिम्मेदारी बनी है कि वह कुछ ऐसा वातावरण तैयार करे जिससे कार्यवाही फिर चल सके। वरना यह तो इतिहास में दर्ज होती घटना है और इतिहासकार इसे नकारात्मक नजरिये से भी पेश कर सकते हैं तथा लोकतंत्र पर सवाल उठा सकते हैं।
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Monday, November 22, 2010
क्या मनमोहन सिंह दोषियों को दंड दे सकते हैं?
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने शनिवार (बीस नवंबर) को कहा कि घोटालों के दोषियों को बख्शा नहीं जायेगा। लेकिन उन्होंने अभी तक यह नहीं बताया कि किसके खिलाफ कौन सी कार्रवाई की जा रही है?
मंगलवार को नियंत्रक व महालेखा परीक्षक (सीएजी) की रिपोर्ट संसद के पटल पर सार्वजनिक होने के बाद साफ है कि मामला उससे कहीं ज्यादा गंभीर व चिंताजनक है, जितना समझा जा रहा था। इस घोटाले के कथित नायक पूर्व टेलीकॉम मंत्री ए राजा ने हालांकि अपने पद से इस्तीफा दे दिया है पर इससे जुर्म या सरकार के कर्तव्य की इतिश्री नहीं हो जाती। अभी हाल में प्रधानमंत्री ने कहा कि उन्हें रोज परीक्षा देनी पड़ती हे। प्रधानमंत्री के ये दोनो जुमले परस्पर विरोधी से लगते हैं।
यह सच है कि क्या डॉ सिंह वाकई कड़ी परीक्षा से गुजर रहे हैं ? क्या सर्वोच्च पद पर उनके 6-7 वर्ष इतने पीड़ादायक रहे हैं कि उन्हें लगता है कि एक के बाद एक परीक्षा के दौर से (अपने मन के विरुद्ध) गुजरना पड़ रहा है? यदि ऐसा है तो मसला काफी गंभीर है।
यह सही है कि प्रधानमंत्री का पद कांटों का ताज है। इसे हमेशा पहने रहना पड़ता है, जो कष्टप्रद भी है। देश चलाना यूं भी आसान काम नहीं है। फिर यह गठबंधन सरकार है। इन दिनों एक चर्चा है कि प्रधानमंत्री को हमेशा कांग्रेस और यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी पर लगभग हर निर्णय के लिए निर्भर रहना पड़ता है। राहुल गांधी भी एक बड़े शक्ति केंद्र हैं। लेकिन यह बिल्कुल सही नहीं है।
बात राजा घोटाले में विवादास्पद प्रधानमंत्री कार्यालय से ही शुरू की जाए- प्रधान सचिव टी के नायर की नियुक्ति से लेकर उनके सेवाकाल में बढ़ोतरी पूरी तरह प्रधानमंत्री की इच्छा से हुई और वे प्रधानमंत्री के आंख-कान की तरह सहयोगी हैं। कारपोरेट घरानों के प्रमुखों से लेकर मंत्रियों और विरोधियों से नायर के निरंतर संपर्क और सिफारिशों में 10 जनपथ का कोई हस्तक्षेप नहीं होता। निश्चित रूप से पृथ्वीराज चव्हाण, अहमद पटेल, प्रणव मुखर्जी और ए के एंटनी जैसे नेता अध्यक्ष और प्रधानमंत्री की राय के तार जुड़वाने में समय-समय पर सहयोग करते हैं।
सरकार और संगठन के वरिष्ठ सहयोगी बताते हैं कि ए. राजा को संचार मंत्रालय या एम एस गिल को खेल मंत्रालय देने का अंतिम निर्णय प्रधानमंत्री ने ही किया था।
लेकिन यह मसला ऐसा नहीं है कि इसे तरजीह दी जानी चाहिये। महत्वपूर्ण यह है कि उन्होंने पहली पारी और दूसरी पारी के लगभग दो वर्ष देश की सरकार किस तरह चलाई, इस पर लोगों के क्या मत हैं। यह निश्चित है कि वे देश के इतिहास में सबसे कमजोर, निर्णय लेने में अक्षम और परावलंबी प्रधानमंत्री के रूप में जाने गए हैं। ऐसे में उनकी निजी पीड़ा कभी न कभी बाहर आना स्वाभाविक है। जिस राजा प्रकरण को लेकर डॉ सिंह ने ऐसा अनपेक्षित बयान दे डाला, उससे उन पर हावी दबावों का पता चलता है। उनके कार्यकाल में भ्रष्टाचार असीमित रूप से बढ़ा। वे ईमानदार होकर भी कड़ी कार्रवाई किसी के खिलाफ कभी नहीं कर पाए। इस कारण जनता में रोष तो है पर करुणा का भाव ज्यादा दिखता रहा।
अब तो यह समय ही बतायेगा कि प्रधानमंत्री जी अगला कदम क्या उठायेंगे। यह तो तय है कि वे दोषियों को सजा नहीं दे पायेंगे। अब उनके सामने दूसरा विकल्प है पद से इस्तीफा देकर खुद को दंडित करना अथवा मध्यावधि चुनाव की सिफारिश करना। लेकिन दोनों अभी संभव नहीं दिखते।
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Sunday, November 21, 2010
राहुल के लिये संकेत
2 जी घोटाले ने अति साफ सुथरे छवि वाले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर अकर्मण्यता का लांछन लगा दिया, उसी घोटाले से एक मनोवैज्ञानिक संकेत भी सोनिया गांधी और उनके सलाहकारों के लिये मिलता हे कि वे राहुल गांधी को सत्ता के पद से दूर रखें। गांधी-नेहरू खानदान के वारिसों को सत्ता के पद से दूर रखने का यह संकेत एक बार पहले भी मिला था। बहुतों को याद होगा कि संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन के प्रथम चरण के जमाने में मीडिया में एक खबर आयी थी, जिसमें कहा गया था कि.. राजीव गांधी मौत के बाद गांधी- नेहरू परिवार की बैठक में यह तय किया गया खानदान के वारिसों को सत्ता के पदों से दूर रखा जायेगा। हालांकि वे देश की सेवा जरूर करेंगे।.. प्रधानमंत्री पद के लिये राहुल गांधी अनमयस्कता को देखकर लगता है कि वह खबर गढ़ी हुयी नहीं थी। आज जो कुछ भी हो रहा है वह कोई ऐसी घटना नहीं जो औचक हो गयी हो।
कुछ विश्लेषकों का कहना है यह राहुल गांधी ताजपोशी की पूर्व क्रिया है। लेकिन हालात को बारीकी से परखेंगे तो लगेगा कि ऐसा नहीं होने वाला। यह कोई अचानक, पलक झपकते, छीनो और भागो जैसी कार्रवाई नहीं थी। यह डी एम के का बहुत सावधानी और समझ-बूझ से बिछाया गया जाल था। उसने जिद के साथ टेलीकॉम मंत्रालय इसीलिए लिया था क्योंकि वह जानती थी कि लाइसेंसों के आवंटन में कितनी शानदार रकम छिपी हैं। प्रधानमंत्री मुश्किल में इसलिए हैं क्योंकि डी एम के लगातार पत्र लिखकर उन्हें बताती रही कि वह किस तरह नियम-कायदों को ताक पर रखकर सलाह-मशविरे या उचित प्रक्रिया का पालन किए बगैर कीमतें तय करने जा रही है।
प्रधानमंत्री की सहमति उसे अपने पत्रों की पावती के जरिये मिलती रही। इनमें सबसे महत्वपूर्ण पत्र ए राजा ने नहीं, दयानिधि मारन ने भेजा था, फरवरी 2006 में। मारन ने साफ-साफ लिखा था कि वह चाहते थे कि कीमतें तय करने का काम, यानी खजाने की चाबी, निगरानी के दायरे से बाहर हो। यह सत्ता में रहने की कीमत थी, जो डॉ सिंह और सोनिया गांधी ने चुकाई।
अगर आप इस पूरी कहानी की राजनीतिक पहेली को समझना चाहते हैं तो केवल एक सवाल का जवाब खोजिए।
वह सवाल है : मारन का यह पत्र एक टेलीविजन चैनल को किसने लीक किया? यह पत्र सरकार के भीतर से ही किसी ने लीक किया, जो डॉ सिंह को कमजोर करना चाहता था। क्यों? साफ तौर पर इसलिए कि उसे यकीन है कि कमजोर प्रधानमंत्री ज्यादा हमलों की मार सहने लायक नहीं रह जाएंगे और इसलिए शिखर की कुर्सी जल्दी ही खाली हो सकती है, चूंकि राहुल तैयार नहीं हैं, इसलिए वह अगला प्रधानमंत्री बन सकता है।
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बिहार का चुनाव खत्म और एक कयास
आज बिहार के चुनाव का अंतिम दौर है और अबतक जो मतदान के आंकड़े रहे हैं वे लगभग 50 प्रतिशत थे। आशा है कि आज भी उतना ही होगा। यहां मतदान के आंकड़ों पर बहस नहीं की जा रही है बल्कि मकसद है उसके नतीजों से। भारतीय चुनावों की बेहद प्रतिस्पर्धात्मक दुनिया में लोग जिस.. हवा.. की बुनियाद पर विश्लेषण करते हैं, वह कभी भी अपनी दिशा बदल सकती है। लेकिन तमाम वैधानिक चेतावनियों के बावजूद यहां जोखिम उठाया जा रहा है और एक पूर्वानुमान है कि नीतीश कुमार बिहार में भारी बहुमत के साथ लौट रहे हैं।
जिन्होंने बिहार को हाल में नहीं देखा या बिहारीपन को शिद्दत से महसूस नहीं किया है वे नहीं समझ सकते हैं। बिहार में फिलहाल कोई ..हवा.. या ..मंद बयार.. नहीं बह रही है, वहां तकरीबन एक ..आंधी.. का मंजर है, जो लगता है कि इस राज्य के राजनीतिक समाजशास्त्र को नए सिरे से लिख डालेगा। नीतीश की आंधी ने न केवल लालू, बल्कि राहुल गांधी की कांग्रेस को भी किनारे कर दिया है। अगर पिछले साल उत्तरप्रदेश ने हिंदी पट्टी में कांग्रेस के भाग्योदय का संकेत दिया था तो अब बिहार इसकी पुष्टि कर सकता है कि पैराशूट पॉलिटिक्स की अपनी सीमाएं हैं। राहुल गांधी की मुट्ठी भर रैलियां किसी जमीनी सियासी संगठन की भरपाई नहीं कर सकतीं। नीतीश कुमार ने राजनीति का नया.. एसएसएस.. रचा है : ..सड़क, शिक्षा, सुरक्षा..। जगमगाते हाईवे और पक्की गंवई सड़कें अब बिहार का नया गौरव हैं।
नौवीं क्लास में पढऩे वाली लड़कियों के लिए साइकिलें महिला सशक्तीकरण का प्रतीक बन गयी हैं। लेकिन बीते पांच सालों के नीतीश राज की सबसे बड़ी उपलब्धि है कानून-व्यवस्था। बॉलीवुड बिहार को चोरों और अपहर्ताओं की धरती बताकर उसका मखौल उड़ाता रहा, लेकिन नीतीश ने उसे गलत साबित कर दिया है। राज्य में फैले गिरोहों में से कई धर लिए गये हैं और कई गुमशुदा हैं। अब किसी गैंगस्टर को गिरफ्तार करने से पहले पुलिस अफसरों को मुख्यमंत्री के घर फोन नहीं लगाना पड़ता।
अबसे बारह-तेरह साल पहले जानेमाने लेखक और पत्रकार अरविंद एन दास ने लिखा था, ..बिहार विल राइज फ्राम इट्स ऐशेज.. यानी बिहार अपनी राख में से उठ खड़ा होगा।
एक बिहारी की नजर से उसे पढ़ें तो वो एक भविष्यवाणी नहीं एक प्रार्थना थी। लगभग पिछले एक वर्ष में जिन्हें बिहार जाने का मौका मिला हो वे यकीन के साथ कह सकते हैं बिहार में सब कुछ बदल चुका है और बिहार भी ..शाइनिंग इंडिया.. की चमक से दमक रहा है। परेशानियां अभी भी हैं, लोगों की शिकायतें भी हैं लेकिन कुछ नया भी है। अर्थव्यवस्था तरक्की के संकेत दे रही है। हर दूसरा व्यक्ति कानून व्यवस्था को खरी- खोटी सुनाता हुआ या अपहरण उद्योग की बात करता नहीं दिखायी पड़ रहा है।
दोपहर को स्कूल की छुट्टी के बाद साइकिल पर सवार होकर घर लौटती छात्राएं मानो भविष्य के लिए उम्मीद पैदा कर रही हैं। डॉक्टर मरीजों को देखने घर से बाहर निकल रहे हैं। उन्हें ये डर नहीं है कि निकलते ही कोई उन्हें अगवा न कर ले। किसान खेती में पैसा लगाने से झिझक नहीं रहा है क्योंकि बेहतर सड़क और बेहतर कानून व्यवस्था अच्छे बाजारों तक उसकी पहुंच बढ़ा रही है। कम शब्दों में कहूं तो लगा मानो बिहार में उम्मीद को इजाजत मिलती नजर आ रही है। इस चुनाव में नीतीश कुमार समेत सभी राजनीतिक खिलाडिय़ों के लिए बहुत कुछ दांव पर है। लालू-राबड़ी दंपत्ति का पूरा राजनीतिक भविष्य इस चुनाव से तय हो सकता है।
लेकिन बिहारियों के लिए दांव पर है उम्मीद। उम्मीद कि शायद अब बिहार का राजनीतिक व्याकरण उनकी जात नहीं विकास के मुद्दे तय करेंगे, उम्मीद कि बिहारी होने का मतलब सिर्फ भाड़े का मजदूर बनना नहीं रहेगा, उम्मीद कि भारत ही नहीं दुनिया के किसी कोने में बिहारी कहलाना मान की बात होगी। और नीतीश कुमार का अर्थ है एक उम्मीद, वह उम्मीद जिसकी इजाजत बिहारियों को पिछले पांच वर्षों में मिली है।
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पी एम चुप हैं, पी एम ओ मुखर
सुप्रीम कोर्ट ने प्रधानमंत्री पर टिप्पणी की है वह भी घोटाले से जुड़े ऐसे मामले पर जिस पर देश भर की निगाहें हैं। आजाद भारत के इतिहास में ऐसा शायद ही हुआ है और उससे भी विचित्र है कि प्रधानमंत्री जी चुप हैं। उनकी ओर से ना कोई सफाई दी जा रही है और ना ही कोई बचाव किया जा रहा है।
2जी स्पेक्ट्रम घोटाले को लेकर सुब्रह्मण्यम स्वामी की याचिका पर विचार करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर बिल्कुल सीधी और प्रतिकूल टिप्पणी की है। स्वामी ने सितंबर 2008 में कई मजबूत सबूतों, दलीलों और नजीरों के साथ 2 जी घोटाले को लेकर तत्कालीन दूरसंचार मंत्री ए. राजा के खिलाफ मुकदमा चलाने की इजाजत प्रधानमंत्री से मांगी थी। प्रधानमंत्री कार्यालय से उनके पास जवाब लगभग दो साल बाद अक्टूबर 2010 में आया, जिसमें कहा गया है कि सीबीआई इस मामले की जांच कर रही है, लिहाजा मंत्री पर मुकदमा चलाने की अनुमति मांगना अपरिपक्व (प्रीमैच्योर) है। अदालत ने इस जवाब और इसके आने में हुई देरी, दोनों का ही संज्ञान लेते हुए सरकार को याद दिलाया है कि किसी मंत्री के खिलाफ इजाजत देने या इससे मना करने की अवधि अधिकतम तीन महीना तय की गई है।
करीब डेढ़ दशक पहले हवाला मामले पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने तीन महीने की अवधि इस बात को ध्यान में रखते हुए निर्धारित की थी कि मुकदमे की इजाजत को इससे ज्यादा लटकाना सुशासन की दृष्टि से उचित नहीं होगा। अदालत ने कहा है कि ठोस सबूतों की रोशनी में प्रधानमंत्री तय अवधि में मुकदमा चलाने की इजाजत दे सकते थे, या इन्हें निराधार बताते हुए इजाजत देने से साफ मना कर सकते थे। सत्ता पक्ष को समझना चाहिए कि अभी तक इस मामले को वह जितनी गंभीरता से ले रहा था, देश के जनमानस में उससे कहीं ज्यादा गंभीर शक्ल यह ले चुका है। 2 जी प्रकरण में इतने सारे पेच हैं कि सरकार और प्रधानमंत्री इस पर जितनी खामोशी बरतेंगे, अफवाहों का बवंडर उतना ही तेज होता जाएगा। सवाल यहां प्रधानमंत्री की व्यक्तिगत ईमानदारी या उनकी मंशा पर नहीं है। सरकार चलाने से जुड़ी उनकी राजनीतिक मजबूरियों से भी सभी वाकिफ हैं।
यहां सवाल है कि क्या रिपोर्ट को संसद में रख देने मात्र से सरकार के कर्तव्य की इतिश्री हो जाती है? विपक्ष की संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) की मांग को खारिज करते हुए सरकार कह रही है कि रिपोर्ट सीएजी की अन्य रिपोर्टो की तरह लोकलेखा समिति (पीएसी) के पास जाएगी, जिसमें सभी दलों का प्रतिनिधित्व है। इसका मतलब है कि सरकार इसे एक रूटीन मामला मान रही है जबकि यह रिपोर्ट एक संवैधानिक संस्था के द्वारा स्वतंत्र भारत के एक सबसे बड़े घोटाले का दस्तावेजी खुलासा है। उधर, जेपीसी के माध्यम से जांच की विपक्षी मांग में राजनीति ज्यादा दिखाई देती है, व्यवस्था को भ्रष्टाचार से मुक्त करने की व्यग्रता कम। आखिर बोफोर्स और प्रतिभूति घोटालों में जेपीसी जांच का अनुभव क्या हमारे सामने नहीं है?
अब वक्त आ गया है जब अपनी असंदिग्ध ईमानदारी के लिए प्रतिष्ठित प्रधानमंत्री को निर्णायक कदम उठाना चाहिए और देश को बताना चाहिए कि सरकार नुकसान की भरपाई व दोषियों को कठघरे में खड़ा करने के लिए क्या कर रही है? अन्यथा अभी केवल सर्वोच्च न्यायालय राजा के खिलाफ जांच की अनुमति देने के मामले में उनके कार्यालय की खामोशी पर सवाल उठा रहा है, आने वाले दिनों में सारा देश इतने बड़े घोटाले के दौरान व उसके बाद उनकी निष्क्रियता और चुप्पी पर सवाल उठाएगा।
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कहीं तो लगाम लगे?
देश में बाजारवाद और मुक्त व्यापार के कारण बहुतों के पास ढेर सारा पैसा आ गया है। पैसे के साथ विलास की प्रकृति ने जोर पकड़ लिया है। इसके कारण एक बड़ा वर्ग बड़ी - बड़ी गाडिय़ों का उपयोग करने लगा है। इन गाडिय़ों में ईंधन की खपत बेतहाशा है ओर पर्यावरण को भी ये गाडिय़ां हानि पहुंचाती हैं। यह एक तरह से आपराधिक भोगवाद है। आज बाजारवादी अर्थव्यवस्था अपने तमाम अंतरविरोधों के साथ तेज रफ्तार से बढ़ रही है। पूंजी संचय से निर्देशित बाजार विकास के अपने मानक और नेतृत्व के नए प्रतीक गढ़ रहा है। वैश्वीकरण के इस दौर में हमारे सार्वजनिक जीवन के लोकप्रिय नाम और व्यक्तित्व बाजारी उत्पादों के रूप में अपनी पहचान बना रहे हैं। लेकिन विडम्बना यह है कि इन ब्रांड अम्बेसडरों का आम लोगों की जरूरतों और उनके सामाजिक सरोकारों से दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं है। ब्रांड अम्बेसडर चाहे वे सिलवर स्क्रीन के महानायक हों या खेल के मैदान के हीरो, दिनभर किसी न किसी कंपनी का साबुन, टूथ पेस्ट, शैम्पू, अंतर्वस्त्र, मोबाइल फोन, मोटरसाइकिल, कार, चॉकलेट, बिस्किट, सौंदर्य प्रसाधन सामग्री आदि तरह-तरह की चीजें बेचते हुए दिख जाएंगे। अपने उत्पादों को बाजार में स्थापित करने के लिए समाज के लोकप्रिय और आकर्षक नामों का इस्तेमाल कॉरपोरेट विकास की विवशता है। भोगवाद को बढ़ाने में अपना भरपूर योगदान करने वाले इन ब्रांड एम्बेसडरों के प्रकटीकरण की यह परिघटना हालांकि पूरी तरह अर्थशास्त्रीय है, इसके बावजूद इसका एक पहलू राजनीतिक भी है।
अर्थशास्त्रीय कारणों के अलावा राजनीतिक नेतृत्व की विफलता भी ग्लैमर की दुनिया के इन बड़े नामों के बड़े ब्रांड अम्बेसडर या लोकप्रिय बनने में सहायक होती है। दरअसल हमारी मौजूदा राजनीति ऐसे आदर्श गढऩे में नाकाम रही है जो समाज के नये नायक या महानायक बना सकें। भ्रष्टाचार और घपलों-घोटालों के रंग में रंगी भारतीय राजनीति की इसी नाकामी का फायदा उठाकर निगमीकृत विकास की ताकतें फिल्मों और खेलों के नायकों की लोकप्रियता का दोहन कर रही हैं। भोगवाद कितनी तेज रफ्तार से बढ़ रहा है, इसे सिर्फ एक ही उदाहरण से समझा जा सकता है।
1991 के पहले देश में सालाना डेढ़ लाख मोटर कारें बिकती थीं, जबकि आज उनकी मासिक औसतन बिक्री एक लाख है। 1991 तक देश में फिएट और अम्बेसडर के अलावा सिर्फ मारुति कार बनती थी, जबकि आज दुनिया की लगभग हर बड़ी कंपनी भारत में गाडिय़ां बना रही हैं।
दुनिया के तमाम छोटे-छोटे देशों की जितनी कुल जनसंख्या है उससे कहीं ज्यादा तो हमारे देश में हर वर्ष मोबाइल फोन कनेक्शन बढ़ जाते हैं। इन आंकड़ों के सहारे तो हम कह सकते हैं कि इंडिया..शाइनिंग.. कर रहा है। लेकिन तस्वीर का दूसरा पहलू कुछ और ही कहानी कहता है। योजना आयोग द्वारा गठित सुरेश तेंदुलकर कमेटी ने देश में गरीबी का जो नया अनुमान पेश किया है उसके मुताबिक 37 फीसदी से ज्यादा भारतीय गरीबी की रेखा के नीचे जी रहे हैं। इससे पहले असंगठित क्षेत्र के उद्यमों से संबंधित राष्ट्रीय आयोग इस नतीजे पर पहुंचा था कि 78 फीसदी लोग 20 रुपए या उससे कम में रोजाना गुजारा करते हैं। यह सारी विषमता भोगवाद का ही परिणाम है।
दरअसल हमारे ऋषियों, संतों, भक्त कवियों, दार्शनिकों और यहां तक कि हमारे राष्ट्रीय आंदोलन के गांधी जैसे नायकों ने भी अपनी ऐतिहासिक सीमाओं में कोशिशें कीं कि भारत के लोगों में विवेक और आत्म पहचान पैदा हो। लेकिन ये कोशिशें नहीं फलीं, क्योंकि लोगों की भावनाओं, निष्ठाओं और सामूहिकता का समाज के शासक वर्ग ने अंधविश्वास और भोगवाद के पक्ष में इस्तेमाल किया। उन्हें झुण्ड से ऊपर कभी उठने ही नहीं दिया। देश की जनता आज भी एक भावुक प्रजा है। उसे कोई भी स्वार्थी शासक या बहुराष्ट्रीय कंपनी अपने चमत्कारी आकर्षण के तिलस्म से जकड़ सकती है। यह मानना उचित नहीं होगा कि देश का शासक वर्ग खासतौर से दुष्ट है। वह लगभग उतना ही अच्छा या बुरा है जितने देश के अन्य लोग। उसमें उससे ज्यादा भोग की इच्छा है जितना भोग लोकतांत्रिक रूप से उचित है। यह इच्छा भारत की नौकरशाही को भी भ्रष्ट बनाती है और चुनाव प्रणाली को भी। देश के आम उत्पादन स्तर और शासक वर्ग के भोग स्तर में कोई संतुलन नहीं है। इस असंतुलन के रहते न तो किसी प्रकार की राजनीति सफल हो सकती है और न कोई भी समाज पूर्ण रूप से सुखी हो सकता है।
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Labels: बाजारवाद, मुक्त व्यापार, वैश्वीकरण
अब क्या?
दूरसंचार मंत्री ए राजा ने 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले पर इस्तीफा दे दिया। इस्तीफे के बाद वे यह बताना चाहते थे कि उन्होंने संसद में शोर मचाने और काम काज रोकने का अवसर विपक्षी दलों के हाथों से छीन लिया। वैसे विपक्ष भी कम नहीं है। भाजपा अड़ी है कि इस्तीफे से काम नहीं चलेगा। कामनवेल्थ गेम्स घोटाला, टेलीकॉम घोटाला और आदर्श सोसायटी के मसलों की जांच के लिये जब तक संयुक्त संसदीय समिति (जे पी सी) का गठन नहीं होगा तब तक वह चैन से नहीं बैठेगी और शांति से संसद को चलने नहीं देगी। हालांकि खुद संसदीय समिति की उपयोगिता पर सवाल उठता आया है। इसमें कोई शक नहीं कि इतने बड़े घोटाले में सिर्फ एक मंत्री के इस्तीफे से बात नहीं बनने वाली। लोगों को पता चलना चाहिए कि किन लोगों की सांठगांठ से बहुमूल्य 2 जी स्पेक्ट्रम को इतना सस्ता बेच दिया गया। इसका फायदा किन लोगों को मिला, और इस सिलसिले में उनसे कुछ रिकवरी की जा सकती है या नहीं।
इन सारे सवालों की पड़ताल के लिए जेपीसी एक कारगर हथियार हो सकती है, लेकिन अभी तत्काल इसको गठित कर दिया जाना इतना जरूरी नहीं है कि इसे मुद्दा बनाकर संसद न चलने दी जाए। लोकसभा में सत्तापक्ष के नेता प्रणव मुखर्जी का यह कहना भी वाजिब है कि बीजेपी नेता मुरली मनोहर जोशी की अध्यक्षता वाली लोक लेखा समिति (पीएसी) इस संबंध में अभी तक ज्ञात सारे तथ्यों की छानबीन कर सकती है।
सरकार 2 जी स्पेक्ट्रम से संबंधित सीएजी की रिपोर्ट को पीएसी के पास भेजेगी और विपक्ष को आर-पार की लड़ाई में जाने से पहले उसकी राय आने का इंतजार करना चाहिए। यह रिपोर्ट अभी सार्वजनिक नहीं हुई है, लिहाजा कोई भी दावे के साथ नहीं कह सकता कि इसमें स्पेक्ट्रम घोटाले से सरकारी खजाने को कुल कितना नुकसान हुआ बताया गया है।
इसके बावजूद कहने वाले इसी रिपोर्ट को आधार बनाकर 1 लाख 76 हजार करोड़ रुपये का घोटाला कर लिए जाने की बात इस तरह कह रहे हैं, जैसे यह कोई प्रामाणिक तथ्य हो। दरअसल, भड़काऊ बयानों और आकाशीय आंकड़ों से सिर्फ कुछ गिने-चुने राजनेताओं की गोटी लाल होती है। आम आदमी के लिए इनका महत्व व्यवस्था के प्रति अविश्वास बढ़ाने के सिवाय और कुछ नहीं होता।
संसद को अगर मामले की जड़ तक पहुंचना है तो उसे सीएजी की रिपोर्ट और सीबीआई की जांच-पड़ताल के अलावा ए. राजा की इस सफाई पर भी गौर करना चाहिए कि उन्होंने स्पेक्ट्रम की बिक्री के दौरान पहले से चली आ रही नीतियों का पालन करने के अलावा और कुछ नहीं किया है।
दाल में कुछ काला है, इसे साबित करने के लिए आकाश-पाताल एक करना जरूरी नहीं है। सस्ते में खरीदा गया स्पेक्ट्रम कुछ कंपनियों ने जिस तरह महंगे दामों पर बेचा, या नीरा राडिया जैसे दलालों की टेपित बातचीत में सौदों के जो ब्यौरे सुनने को मिले, उसके बाद राजा के लिए खुद को पाक-साफ बताने की कोई गुंजाइश नहीं थी।
यह सब प्रमाण है कि भ्रष्टाचार को लेकर हमारी राजनीति किस कदर संवेदनहीन हो चुकी है। मुश्किल से ही कोई पार्टी बची है जिसका इस संवेदनहीनता में साझा न हो। 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले में सीएजी ने सरकारी खजाने को 1.76 लाख करोड़ रुपए के नुकसान का आकलन किया है।
चह्वाण और कलमाडी के बाद हफ्तेभर में यह तीसरा इस्तीफा है। कांग्रेस इन्हें इस तरह प्रस्तुत कर रही है कि ये राजनीति की शुचिता में उसके विश्वास की अभिव्यक्ति हैं। इस आत्मवंचना के बजाय पार्टी और उसके नेतृत्व वाले गठबंधन को देखना चाहिए कि यह नौबत क्यों आ रही है कि भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे उनके नेताओं को एक के बाद एक इस्तीफे देने पड़ रहे हैं।
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Thursday, November 11, 2010
चलो पहला कदम तो उठा
कारण चाहे जो हो सरकार ने भ्रष्टाचार और घोटालों के दो बड़े आरोपियों को बाहर का रास्ता दिखा कर लगता है दांडिक नीति को लागू करने की दिशा में कदम उठाया है। पार्टी ने विवादों में घिरे अपने मुख्यमंत्री अशोक चह्वाण का इस्तीफा दिलवाने के साथ-साथ राष्ट्रमंडल खेलों में भ्रष्टाचार और घटिया निर्माण का पर्याय बन चुके सुरेश कलमाड़ी को भी संसदीय दल के सचिव पद से हटा दिया है। जाहिरा तौर पर आदर्श को-ऑपरेटिव घोटाले में न तो चह्वाण अकेले पापी हैं, न राष्ट्रमंडल खेलों के घोटाले में कलमाड़ी।
उम्मीद करनी चाहिए कि विवादों में आए बाकी नामों के बारे में भी जल्दी फैसला आएगा। अदालती फैसला आने में तो समय लगेगा तथा उसमें कैद और दंड वसूली जैसे कदम भी उठाए जाते हैं, पर राजनीतिक और सार्वजनिक फैसला तो पार्टी और सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोगों के कारण होता है। देश के प्रधानमंत्री बहुत सज्जन व्यक्ति भले हों, पर आज देश में अपने गठजोड़ के कलंकित सदस्यों के प्रति उनकी उदासीनता को उनकी दार्शनिक गहराई का प्रमाण मानकर संतुष्ट होने वाले बहुत लोग नहीं मिलेंगे। हमारी तरक्की की फोर्ब्स सूची से लेकर जिनेवा तक अमीरों की दुनिया में भले ही कितने चर्चे क्यों न हो रहे हों, नेतृत्व में भ्रष्टाचारनिरोध की इच्छा या क्षमता को लेकर आज एक घोर निराशा पूरे देश में व्याप्त है। जनता को लग रहा है कि फिलहाल स्वयं उसके लिए परिस्थिति को खुद बदलने के सब रास्ते बंद हैं। मजबूत विकल्प के अभाव में कांग्रेस को ठुकराकर देश मध्यावधि चुनाव से नई पार्टी को नहीं चुन सकता और कांग्रेस स्पष्टत: मझधार में अपने गठजोड़ के घोड़े बदलने की इच्छुक नहीं दीखती, अश्वमेध तो दूर की बात है।
लोकतांत्रिक राजनीति के दायरे के बाहर हर समय लुआठी लिए अरुंधती राय या गिलानी सरीखे लोगों के घर फूंक विकल्प भी कोई समझदार लोकतंत्र स्वीकार नहीं कर सकता, क्योंकि सारे रास्ते बंद हैं और अगला आम चुनाव अभी दूर है। घूम-फिरकर इस उम्मीद पर भारत की जनता कायम है कि मनमोहन सिंह की सरकार ही कुछ कठोर फैसले लेगी। अशोक चह्वाण और कलमाड़ी को बाहर का रास्ता दिखा कर लगता है सरकार ओर पार्टी ने इस दिशा में कदम उठाया है।
गेम्स घोटाला और आदर्श सोसायटी प्रकरण वर्तमान शासन की दो बड़ी खामियों के प्रतीक हैं। जनता के बीच गेम्स घोटाले की जांच की अविश्सनीयता साबित करती है कि जांच बिठाने वाले नेतृत्व का निजी तौर से ईमानदार होना ही काफी नहीं है। उसे अपने जांच तंत्र में भी पारदर्शी नैतिकता कायम रखने के लिए प्रामाणिक तौर से दृढ़ दिखना होगा। आज लगभग पूरा तंत्र भ्रष्टाचारी नेताओं, बाबुओं तथा ठेकेदारों के गिरोहों के कब्जे में है और भ्रष्टाचार हटाने के लिए कोई भी दूरगामी सुसंगत योजना बनाना और फिर उसे ईमानदारी से लागू करना नामुमकिन हो गया है। दोनों खामियां अलग - थलग भी नहीं हैं।
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ओबामा की यात्रा का कोई लाभ नहीं मिला
अमरीका के राष्ट्रपति बराक ओबामा तीन दिन भारत में रहे और इस दौरान पूरे देश की निगाहें उन पर रहीं और देशवासी उम्मीद करते रहे कि वे पाकिस्तान के बारे में कुछ ऐसा कहेंगे जो भारत को सकारात्मक लगेगा। पर उन्होंने ऐसा कहना तो दूर कुछ ऐसे संकेत भी नहीं दिये। आतंकवाद दोनों का कॉमन मुद्दा था, लेकिन दोनों की स्थितियों में अंतर है। ओबामा जब मुंबई के ताज होटल पहुंचे, तो उन्होंने 26/11 की घटना पर अफसोस जताया, लेकिन पाकिस्तान का नाम लेने से वे साफ बच गये। उन्होंने तालिबान, अल कायदा और अफगानिस्तान-पाकिस्तान सीमाओं पर आतंक के खात्मे पर खास बल दिया, लेकिन भारत में होने वाली सीमापार आतंकी गतिविधियों की चर्चा से बच गये। उनकी असल चिंता अफगानिस्तान-पाकिस्तान सीमा पर चल रही गतिविधियों की है, न कि भारत-पाक सीमा पर चल रही गतिविधियों को लेकर। वह पाकिस्तान को अब भी अपने प्रमुख सहयोगी के रूप में स्वीकार करते हैं। ऐसे में समझ नहीं आता कि आखिर अमरीका, भारत का रणनीतिक साझेदार कैसे हो गया? हालांकि, इस यात्रा का अंत धमाकेदार रहा, क्योंकि ओबामा ने भारतीय सांसदों को संबोधित करते हुए संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता के भारत के दावे का समर्थन किया। बहरहाल, अमरीका पाकिस्तान और चीन को भी साझेदार के रूप में देखता है। वास्तव में, इन दोनों मुल्कों के साथ उसकी सालाना रणनीतिक बैठक होती है, जिसमें से चीन के साथ होने वाली बैठक को काफी बड़ा आयोजन माना जाता है। इसलिए किसी को यह नहीं सोचना चाहिए कि ओबामा ने चीन और पाकिस्तान के खिलाफ जाकर भारत का समर्थन करने का फैसला किया है। बजाय इसके, वह चाहते हैं कि मौजूदा विवादों और तल्खी के पार जाकर सभी चारों देशों के लिए आगे की राह बेहतर बनायी जाय। उनका यह रवैया भारतीयों को रास नहीं आएगा, जो चाहते हैं कि पाकिस्तान को आतंकवादी देश करार दिया जाए।
ओबामा ने पाकिस्तान में बैठे कुछ तत्वों की आलोचना तो की है, लेकिन वह पाकिस्तान को पूरी अहमियत देते हैं क्योंकि इस्लामी आतंकवाद के खिलाफ अमरीकी जंग में वह अहम सहयोगी देश है। वह इस्लामी आतंक के हर पहलू के खिलाफ खूब बोलते हैं, लेकिन भारत के लिए खतरा बनने वालों की तुलना में उन पर उनका ज्यादा ध्यान रहता है, जिनसे अमरीका को खतरा है। यह सही है कि वह पाकिस्तान और चीन के माथे पर बल डालने वाले कदम के तहत संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सीट का समर्थन कर रहे हैं, लेकिन वह अफगान- तालिबान के साथ समझौता भी कर सकते हैं, जिससे भारत को परेशानी होगी।
इससे यही सबक मिलता है कि भारत और अमरीका साझेदार हैं, दोस्त नहीं। उनके हितों के कुछ तत्व एक-दूसरे से मिलते-जुलते हैं, लेकिन उनके हित पूरी तरह एक नहीं हैं। ओबामा ने खुद संसद में भी इसे स्पष्ट किया। उन्होंने कहा कि ईरान और म्यांमार में लोकतंत्र और नागरिक अधिकारों के दमन के मुद्दे पर भारत काफी नरम रुख दिखाता रहा है। दोनों देशों के बीच मतभेदों का एक नाटकीय उदाहरण साल 2003 में सामने आया था, जब भारतीय संसद ने इराक पर अमरीकी हमले के खिलाफ एक सर्वदलीय प्रस्ताव पारित किया। अमरीका के साथ पाकिस्तान की दोहरी नीति से सभी वाकिफ हैं। पाकिस्तान, भारत के खिलाफ आतंकवाद का इस्तेमाल करता है और अफगानिस्तान में तालिबान को दोबारा मजबूत करना चाहता है। इसके बावजूद अमरीकी हथियारों, सामग्री और सैनिकों के अफगानिस्तान पहुंचने का इकलौता जरिया भी पाकिस्तान मुहैया कराता है, लिहाजा अमरीका के लिए उसका सामरिक महत्व भी है। इसके अलावा वह अब खुद भी इस्लामी आतंकवाद का शिकार बन गया है। हालांकि, इसके बावजूद आतंकवादी समूहों के लिए उसकी ओर से मदद अब भी जारी है।
यही बात भारत की सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता के संदर्भ में कही जा सकती है। उनके मुताबिक, अमरीका चाहता है कि भारत को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य होना चाहिए। जबकि इससे पहले वाशिंगटन में वह कह चुके थे कि संयुक्त राष्ट्र में भारत की स्थायी सदस्यता का मुद्दा पेचीदा है। दरअसल भारत का सुरक्षा परिषद में पहुंचना अकेले अमरीका के ही बस की बात नहीं है। केवल अमरीका के कहने से न तो सुरक्षा परिषद का विस्तार हो पाएगा और न ही भारत को स्थायी सीट प्राप्त हो पाएगी। हां, अलग से कुछ शर्तें ओबामा ने अवश्य ही जोड़ दी हैं, जिन्हें पूरा कर पाना भारत के बस की बात नहीं है। इसके बावजूद यदि भारत ऐसा करता है, तो उसके इन देशों के साथ द्विपक्षीय संबंध बिगड़ जाएंगे। उल्लेखनीय है कि ओबामा ने जो शर्तें जोड़ी हैं, उनमें से एक म्यांमार में मानवाधिकार उल्लंघन से जुड़ी है और दूसरी ईरान से। मतलब यह कि भारत यदि इन शर्तों का पालन नहीं करता, तो अमरीका अपने प्रयासों को विराम दे सकता है। यानी भारत आकर बराक ओबामा ने हमारे हित में कोई बड़ा कदम नहीं उठाया।
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Tuesday, November 9, 2010
क्यों मिर्ची लगी चीन व पाक को
अमरीका के राष्ट्रपति बराक ओबामा के भारत को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता के मुद्दे पर दिए समर्थन पर दुनिया भर में जबर्दस्त कूटनीतिक प्रतिक्रिया है। पाकिस्तान का रुख तो वैसे ही भारत विरोधी है, इस घटना के बाद तो उसने कहा कि इससे समस्याएं कम होने के बजाए और बढ़ेंगी।
चीन के प्रमुख अखबार द चाईना डेली के अनुसार यह पश्चिमी देशों की मजबूरी है कि अपनी खराब आर्थिक स्थिति के चलते भारत और चीन जैसे देशों का साथ लें, जिनकी अर्थ व्यवस्था तेजी से बढ़ रही है। ओबामा का भारत को संयुक्त राष्ट्र के मुद्दे पर समर्थन देना साबित करता है कि भारत अब बड़ी आर्थिक शक्ति बन गया है। लेकिन इससे निश्चित ही चीन और पाकिस्तान में नाराजगी बढ़ेगी।
पाकिस्तान के विदेश मंत्रालय ने बड़ी तीखी प्रतिक्रिया जाहिर करते कहा है कि उम्मीद है कि अमरीका एशिया की क्षेत्रीय राजनीति से प्रभावित होकर कोई निर्णय नहीं लेगा। पाकिस्तान ने कहा कि अमरीका के इस समर्थन के बाद सुरक्षा परिषद के फिर गठित होने की प्रक्रिया में बाधा पैदा होगी। पाकिस्तान के अनुसार अमरीका को नैतिकता के आधार पर निर्णय लेना चाहिए, क्योंकि भारत को स्थायी सदस्यता संयुक्त राष्ट्र के मूल सिद्धांतों के ही खिलाफ है। भारत हमेशा से कश्मीर के मामले में संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों की अनदेखी करता रहा है।
विदेश मंत्रालय का कहना है कि 1948 में संयुक्त राष्ट्र ने एक प्रस्ताव में कहा था कि कश्मीर समस्या का हल, स्थानीय नागरिकों की इच्छा के अनुसार होना चाहिए। लेकिन भारत ने इस पर कभी ध्यान नहीं दिया।
चीन ने तो साफ कह दिया है कि इस अमरीकी प्रस्ताव का परिषद के स्थायी सदस्यों में से कुछ कड़ा विरोध करेंगे। अभी सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्यों में ब्रिटेन, चीन, फ्रांस, रूस और अमरीका शामिल हैं। चीन का मानना है कि यह अमरीका की भारत की बड़ी लेकिन अविकसित अर्थ व्यवस्था में घुसपैठ का प्रयास है, जिससे चीन के विकास को रोका जा सके। पश्चिमी देश अपनी बिगड़ती आर्थिक हालातों को देखते हुए भारत और चीन जैसे देशों पर निर्भर हो रहे हैं। चीन ने बड़ी कटुता से कहा कि भारत का स्थायी सदस्यता के सपने को साकार होने में अभी भी कई साल लगेंगे।
वैसे भी ओबामा ने भारत की स्थायी परिषद के लिए समर्थन तो दिया है लेकिन इसके लिए कोई समय सीमा तय नहीं की है। चीन सहित कुछ दूसरे स्थायी सदस्य भारत की सदस्यता का विरोध करेंगे। भारत ने कई बार संयुक्त राष्ट्र के सिद्धांतों के खिलाफ काम किया है। ओबामा के प्रस्ताव का अमरीका में भी विरोध होने की आशंका है क्योंकि भारत ने संयुक्त राष्ट्र में अमरीका का कई बार कड़ा विरोध किया है।
अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने पहले दो दिनों में यह स्पष्ट कर दिया कि अमरीका क्या चाहता है, पर इस बात पर चुप्पी साधे रहे कि इस शिखर सम्मेलन से भारत को क्या मिलेगा। खासकर पाकिस्तान के मसले पर।
राष्ट्रपति ओबामा ने मुंबई में एक भारतीय छात्रा के सवाल के जवाब में कहा कि भारत को पाकिस्तान का राग अलापना बंद कर देना चाहिए, क्योंकि भारत प्रगति के पथ पर बहुत आगे निकल चुका है। भारत की पीठ थपथपाते हुए उन्होंने यह भी कहा कि अमरीका, भारत और पाकिस्तान की आपसी बातचीत के बीच नहीं आएगा।
भारत के भी कई चिंतक इस बात के हामी हैं कि पाकिस्तान के मसले पर हमें अमरीका से कोई उम्मीद नहीं करनी चाहिए। इस विचारधारा में दम है, पर किसी को यह नहीं भूलना चाहिए कि अमरीका, पाकिस्तान का पालक-पोषक है। पाकिस्तान की सेना को आर्थिक और सैन्य मदद करने वाला वह सबसे बड़ा देश है। इस नाते भारत की यह अपेक्षा गलत नहीं है कि वह पाकिस्तानी सत्ता तंत्र पर अपने प्रभाव का इस्तेमाल करे। इस उम्मीद को यूं सरसरी तरीके से नकारना जायज नहीं। पाकिस्तान को सबक सिखाने में भारत सक्षम है पर किसी बच्चे को सजा देने से पहले उसके अभिभावक को चेतावनी देना कर्तव्य का हिस्सा है।
ये दलील अब पिट चुकी है कि पाकिस्तान स्वयं आतंक से पीडि़त है। पाकिस्तान में होने वाले रोजाना के खून-खराबे उसी की नीतियों का परिणाम हैं और भारत के लिए यह पाकिस्तान का आंतरिक मामला है। भारत को आतंक के निर्यात पर आपत्ति है। सोमवार (८-११-२०१०) को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने राष्ट्रपति ओबामा को यह जता दिया कि पाकिस्तान के साथ भारत मधुर संबंध चाहता है, पर यह तब तक संभव नहीं, जब तक पाकिस्तान आतंक का इस्तेमाल बंद नहीं करता।
ओबामा और मनमोहन सिंह इस बात पर सहमत थे कि पाकिस्तान में लोकतंत्र और स्थायित्व दोनों देशों के हित में है, पर इस स्थायित्व की जिम्मेदारी ज्यादा अमरीका की है जिसकी नीतियों से पाकिस्तान का हौसला बढ़ता है।
दरअसल अमरीका अफगानिस्तान में बुरी तरह फंस चुका है और पाकिस्तानी सेना से मदद लेने को मजबूर है। पाकिस्तानी सेना इस स्थिति का दोहन कर रही है। भारत की आपत्ति इस बात पर है कि अमरीकी पैसे और हथियारों का इस्तेमाल भारत के खिलाफ होता है। ओबामा के इस दौरे से दुनिया की दो महाशक्तियों के बीच रिश्ते और गहरे हुए हैं, पर देर सबेर अमरीका को पाकिस्तान के सवाल से जूझना ही पड़ेगा।
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नहीं रहा बादशाहत का डर
आखिर दुनिया के चलाने वाले ताकतवर देशों में से सबसे बड़े महाबली ने माना कि भारत एक महाशक्ति है। यह सबूत है इस बात का कि दुनिया को चलाने वाले क्लब का भारत अब एक नॉर्मल मेंबर है। इतना नॉर्मल कि अमरीकी राष्ट्रपति का दौरा कोई सनसनी पैदा नहीं करता। रिश्तों में से सनसनी का खत्म हो जाना थोड़ा फीका जरूर लगता है, लेकिन नॉर्मल रिश्ते होते ही ऐसे हैं। फिर दुनिया अगर इससे यह मतलब लगाती है कि दोनों देश करीब आकर किसी मोर्चेबंदी में लगे हैं, बिजनेस को अगर लगता है कि भारत पर ज्यादा दांव लगाना चाहिए और आम लोगों को लगता है कि उनमें हेलमेल बढऩा चाहिए, तो यह उनकी मर्जी है।
भारत के लोग सदियों से दुनिया भर में फैलते रहे हैं। लेकिन सरकारी तौर पर दुनिया से जुडऩे की कोशिश भारत ने काफी देर से शुरू की। यहां यह कहने का इरादा है, लेकिन जब मजबूरी में भारत को अपने खिड़की-दरवाजे खोलने पड़े तो एक दूसरी ही दुनिया से उसका मुकाबला हुआ। यह दुनिया हमारे काबू में आने लायक थी।
हमारी सरकारों, सियासतदानों, अर्थशास्त्रियों और विद्वानों को यह पता ही नहीं था कि भारत क्या है और भारतीय क्या कर सकते हैं। वे न सिर्फ गलतफहमियों के अपने बनाए संसार में भटक रहे थे, बल्कि उन्हें भारत की काबिलियत पर भी यकीन नहीं था। वे भारत को एक नाकारा मुल्क समझ रहे थे, जबकि खुद उनका सोच दिवालिया हो चुका था।
यहां यह कहने का इरादा है कि भारत ने दुनिया से जुडऩे की शुरुआत मजे में नहीं की। इसके लिए वह मजबूर हुआ, क्योंकि सरकार का दीवाला निकलने जा रहा था। उस वाकये के 20 साल बाद आज भारत इस हैसियत में आ गया है कि जल्द ही ओबामा जैसे लीडर यहां छुट्टियां बिताने आया करेंगे और इंडिया के पास उनके लिए फुर्सत नहीं होगी। इस दौरान न तो भारत गुलाम बना और न ही इसकी इकॉनमी पर मल्टिनेशनल्स का कब्जा हुआ। ऐसी बड़ी कंपनियों की तादाद उंगलियों में गिनने लायक है, जो विदेशियों के हाथों चली गयीं, लेकिन जिन विदेशी कंपनियों पर भारतीयों ने कब्जा जमाया, उनकी हैसियत ज्यादा ऊंची है। भारतीय कंपनियां दुनिया भर में फैल रही हैं। अमरीका में भारतीय होना गौरव की बात हो गयी है। भारत की ताकत अमरीका को अक्सर चैलेंज करती लगती है और ग्लोबल मीडिया में भारत का नाम बेअदबी से नहीं लिया जाता। भारत के भविष्य को लेकर दुनिया किसी गलतफहमी में रहना नहीं चाहती।
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Monday, November 8, 2010
चांदी के वर्क के नाम पर मिठाइयों में गोमांस और जहर
बाजार में मिठाइयों पर नजर आने वाला चांदी का वर्क आपकी सेहत और आपके बच्चों की दिमागी सेहत के लिए बेहद खतरनाक है। चांदी के वर्क में लिपटी मिठाई कैंसर जैसी बीमारी का घर तो है ही, लोगों की धार्मिक भावनाओं और आस्थाओं के साथ खिलवाड़ भी है।
इंडियन टॉक्सिकोलॉजी रिसर्च सेंटर और यहां पी जी आई के कैंसर विभाग द्वारा जून 2010 में किये गये गहन अध्ययन के मुताबिक कोलकाता के बाजार में ज्यादातर मिठाइयों पर चढ़ाए गए वर्क में लेड (सीसा), क्रोमियम और घटिया किस्म का एल्यूमिनियम पाया गया। सीसा का असर दिमाग पर पड़ता है। इनसे बच्चों की याद्दाश्त कमजोर होती है और उनका आईक्यू लेवल कम हो जाता है। इसी तरह कैडमियम फेफड़ों में कैंसर का कारण होता है।
कैसे बनता है वर्क :
चांदी का वर्क बनाने की प्रक्रिया ऐसी है कि जानकारी के बाद वर्क लगी मिठाइयों का सेवन करने वाला कोई भी व्यक्ति भीतर से हिल जायेगा। चांदी के पतले-पतले टुकड़ों को गायों और बैलों की आंत में लपेट कर एक के ऊपर एक (परत दर परत) रखा जाता है कि एक खोल बन जाए। फिर इस खोल को लकड़ी के हथौड़ों से तब तक पीटा जाता है जब तक चांदी के पतले टुकड़े फैलकर महीन वर्क में न बदल जाएं। गोवंश के पशुओं की आंत की सबसे बड़ी खूबी होती है कि यह काफी मुलायम और मजबूत होती है। जिसकी वजह से जल्दी नहीं फटती है। इसीलिये इसका उपयोग किया जाता है।
वर्क बनाने का औजार
पशु की आंत की पतली - पतली परतों को वर्क बनाने के औजार के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। ये झिल्लियां इतनी मजबूत होती हैं कि कई दफा कूटने के बाद भी फटती नहीं हैं। इन्हीं झिल्लियों के बीच में चांदी का टुकड़ा रखने के बाद कूटकर उसका आकार बढ़ाया जाता है। जानकारों के मुताबिक 10 ग्राम चांदी में 160 वर्क बनाए जाते हैं। गायों और बैलों को कसाई खाने में मारने के बाद खून से लथपथ उनकी आंत को बाहर खींच लिया जाता है। उसे साफ कर उपयोग में लाया जाता है। गाय या बैल की आंत की औसत लम्बाई 540 इंच और उसका व्यास 3 इंच होता है, जिसे काट कर 540 इंच लम्बा और लगभग 9.5 इंच चौड़ा टुकड़ा तैयार किया जाता हे। जिसे टुकड़ों में काट कर 9 इंच लम्बे और 9.5 इंच चौड़े 60 टुकड़े तैयार किये जाते हैं। इसी तरह 171 टुकड़ों की एक डायरी बनती है और उनके बीच 3 इंच चौड़े और 5 इंच लम्बे चांदी के टुकड़े रख कर पीटा जाता है। 171 पन्नों की एक डायरी बनाने के लिये 3 गायों की अंतडिय़ों का उपयोग किया जाता हे। एक डायरी से 48000 हजार वर्क बनते हैं। यानी एक गाय को मार कर उसकी अंतड़ी से 16000 वर्क बनाये जाते हैं। इन अंतडिय़ों को जिस जिल्द के भीतर सिलते हैं, उन्हें गाय या बछड़े के चमड़ों से बनाया जाता है। एक डायरी में औसतन 232 वर्ग इंच चमड़ा लगता है और एक गाय में 2600 वर्ग इंच चमड़ा निकलता है। यानी उससे 10 डायरियों की जिल्दें बन सकती हैं।
पशुओं की खाल और आंत से बनी परतें कोलकाता से मंगवाई जाती हैं और इन्हें चारों ओर से समान आकार में काट कर औजार बनाया जाता है। कुछ रसायनों के घोल में पूरी रात रखने के बाद इन पर चमड़े का कवर चढ़ाया जाता है। यह नोटबुक औजार 4 से 6 हजार रुपए तक में उपलब्ध है। इसे 6 से 8 महीने तक काम में लिया जा सकता है। वर्क को अगर माइक्रोस्कोप से देखा जाय तो उसमें खून और मल दिखायी पड़ सकते हैं।
नगर के कैंसर विशेषज्ञों के अनुसार धातु चाहे किसी भी रूप में हो ज्यादातर कैंसर ही उत्पन्न करते हैं। इससे सबसे ज्यादा नुकसान लीवर, किडनी और गले को होता है। इससे पाचन प्रक्रिया पर प्रतिकूल असर तो पड़ता ही है, नर्वस सिस्टम भी प्रभावित हो सकता है।
एक अनुमान के मुताबिक देश में सालाना लगभग 275 टन चांदी के वर्क की खपत होती है जिसे बनाने के लिये 516,000 गायों और 17200 बछड़ों का वध होता है । इसे बनाने का काम मुख्य रूप से कानपुर, जयपुर, अहमदाबाद, सूरत, इंदौर, रतलाम, पटना, भागलपुर, वाराणसी, गया और मुंबई में होता है।
कानून तो बना ही है :
हालांकि चांदी के इस वर्क को लेकर कानून भी बना हुआ है। फूड रेगुलेटरी अथॉरिटी के मुताबिक चांदी के वर्क में 99.9 फीसदी चांदी होनी चाहिए। संस्था ने ये जानने के लिये रिसर्च किया कि चांदी के वर्क में 99 फीसदी चांदी के साथ 0.1 फीसदी कौन-सी धातु मिलाई जाती है। वैज्ञानिकों ने इसके लिये कुल 178 नमूने लिए। जांच करने पर पता चला कि ज्यादातर नमूनों में चांदी ही नहीं थी। मिठाइयों में इस्तेमाल होने वाले जहरीले वर्क के खुलासे से वैज्ञानिक दंग हैं। ज्यादा से ज्यादा मुनाफे की लालच में जहर बेचा जा रहा है और सरकार आंख मूंदे है।
चांदी के वर्क को बनाने में अगर गाय बैल की आंतों का उपयोग हो रहा है तो यह शाकाहारियों और धार्मिक भावनाओं के लोगों के लिए घोरतम पाप के समान है। खाद्य वस्तुओं पर इसका प्रयोग वर्जित होना चाहिए।
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