हरिराम पाण्डेय
पिछले हफ्ते लंदन के अखबार टाइम्स में प्रकाशित एक रपट के अनुसार प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने पाकिस्तान के सेना प्रमुख जनरल कियानी से से गुप्त वार्ता की थी और लगभग आठ महीने पहले प्रधानमंत्री ने एक गैर सरकारी दूत की नियुक्ति भी की थी इस काम के लिये। इस खबर को लेकर दोनों देशों में काफी सनसनी फैली थी। हालांकि भारत में सरकारी सूत्रों ने इस खबर को गलत और बेबुनियाद बताया था। किंतु इस खंडन पर बहुत से विश्लेषकों ने यकीन नहीं किया था। किंतु पूरी रपट को यदि ध्यान से पढ़ा जाय तो उसमें कई भ्रांतियां स्पष्टï होती हैं और इन भ्रांतियों के आधार पर दोषसिद्धि मुश्किल है। रपट में कहा गया है कि जनरल परवेज अशफाक कियानी और आई एस आई के महानिदेशक ले. जनरल अहमद शुजा पाशा ने पिछले हफ्ते काबुल का दौरा किया था और अफगान नेताओं से बातें की थीं। ऐसे मौके पर अक्सर अखबार काफी एतराज जाहिर करता है पर इस बार वह चुप था। अखबार ने इसे भारत - पाकिस्तान सुलह की अमरीकी कोशिश का नतीजा बताया है। कियानी और शुजा पाशा का यह काबुल दौरा कोई नयी बात नहीं है। पिछले साल इन लोगों ने कभी द्विपक्षीय वार्ता, कभी त्रिपक्षीय वार्ता , कभी अमरीकी कमांडरों से बातचीत और कभी खुफिया सूचनाओं के आदान- प्रदान के नाम पर कम से कम छ: बार काबुल का दौरा किया था। लेकिन यह दौरा पिछले दौरों से थोड़ा अलग था। इस बार वे दोनों राष्टï्रपति अहमद करजाई द्वारा गठित शांति परिषद की बैठक में भाग लेने गये थे। यह परिषद वार्ता के लिये तालिबानों को सहमत करने के लिये गठित की गयी है। अफगानिस्तान एक स्वतंत्र राष्टï्र है और यदि सरकारी आमंत्रण हो तो पाकिस्तान के नेता और अफसर वहां जिस उद्देश्य के लिये भी हो जाने के लिये आजाद हैं। भारत की आपत्ति का सवाल ही नहीं उठता। टाइम्स का यह कहना बेवजह है अथवा दूर की कौड़ी है। पाकिस्तान में जब भी फौजी हुकूमत रही है भारत ने वहां के फौजी अफसरों से खली अथवा गोपनीय वार्ताओं में कोई हिचक नहीं दिखायी है। भारत सरकार का जनरल जिया उल हक या परवेज मुशर्रफ से बहुत अच्छा सम्पर्क था। इसमें से कई बार सम्पर्क बिचौलियों के माध्यम से हुआ और कई बार सीधे। जनरल जया उल हक और राजीव गांधी में वार्ता के लिये जॉर्डन के युवराज ने मध्यस्थता की है। इस सम्पर्क के बाद ही रॉ के प्रमुख और आई एस आई के प्रमुख में बातचीत हुई थी। यह भी कहा जाता है कि जनरल मुशर्रफ के छोटे भाई ने वाजपेयी- मुशर्रफ वार्ता की राह प्रशस्त की थी। हालांकि भारत की यह नीति रही है कि जब वहां असैनिक सरकार रही है तो भारत ने पाकिस्तानी फौजी जनरलों से वार्ता नहीं की है। किसी भी भारतीय प्रधानमंत्री ने पाकिस्तान में असैनिक सरकार के रहते हुए कभी वहां के जनरलों से खुली या गोपनीय वार्ता नहीं की। हालांकि पाकिस्तान में कभी भी असैनिक सरकार बहुत ज्यादा शक्तिशाली नहीं रही। अब तो हालत और खराब है। अब ऐसी स्थिति में यह किसी ने नहीं बताया कि मनमोहन सिंह इस स्वस्थ नीति को क्यों छोड़ेंगे? हालांकि अमरीका ने यह कोशिश जरूर की है कि वहां के फौजी और खुफिया अफसरों तथा भारत के फौजी तथा खुफिया अफसरों में गोपनीय सम्पर्क हो सके। 26/11 की घटना की जांच के लिये अमरीका ने इस दिशा में प्रयास भी किया था और बहुत संभव है कि उसका वह प्रयास जारी भी हो। इसमें एक लाभ भी है जिसे राजनीतिक लाभ भी कहा जा सकता है कि ऐसे सम्पर्कों से आपसी सद्भाव बढ़ता है। इसलिये कोई हैरत नहीं है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भारत के किसी खुफिया अफसर या फौजी अफसर को इस तरह की वार्ता के लिये मंजूरी दी हो। अगर यह सही भी है तो इसमें गलत क्या है , इसका समर्थन किया जाना चाहिये। टाइम्स अखबार का नजरिया दोषपूर्ण है।
Friday, April 29, 2011
प्रधानमंत्री-कियानी वार्ताÓ का समर्थन होना चाहिये?
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कार्रवाई से जरूरी है कार्रवाई होती दिखना
हरिराम पाण्डेय
कहते हैं कि जब परमात्मा ने मनुष्य का दिमाग बनाया तो साथ ही उसे भूलने की ताकत भी दे दी। बहुत ज्यादा याद रखने से इंसान का जीना दूभर हो जाता। लेकिन भारतीयों को, खासकर भारतीय नेताओं को, यह खूबी ऊपर वाले ने दिल खोल कर अता की है। वरना क्या बात थी कि ये लोग हर बार भूल जाते हैं कि भ्रष्टïाचार पकड़ में आयेगा और अगर पकड़ में आया तो सजा भी मिलेगी, लेकिन बचपन से ही हम इस बात को भूलना सीख जाते हैं। अगर ना भूलें तो एक ऐसे देश में- जो भ्रष्टïाचार के मामले में दुनिया के भ्रष्टïतम देशों में 178 स्थान हासिल किये हुए है और जिसके प्रतिद्वंद्वी हैं अल्बानिया, जमैका और लाइबेरिया- जीना और काम करना दूभर हो जायेगा। आम जन को तो यकीन ही नहीं होता कि ताकतवर लोग भ्रष्टïाचार के आरोप में पकड़े जा सकते हैं और जेल भी भेजे जा सकते हैं। कॉमनवेल्थ गेम्स की तैयारी के दौरान विभिन्न कम्पनियों को ज्यादा भुगतान करने के कारण देश के खजाने में भारी क्षति पहुंचाने के आरोप में पकड़े गये सुरेश कलमाडी को जेल भेजा जाना खुशी की बात है , बेशक यह सागर में बूंद की भांति है। कलमाड़ी की गिरफ्तारी में देरी का कारण यह भी हो सकता है कि उसे सबूतों के सारे टुकड़ों को जोडऩे में इतना वक्त लग गया लेकिन इसके अलावा भी एक सत्य है कि सी बी आई ताकतवर लोगों के खिलाफ कदम बढ़ाने में हिचकता है। यह दोष सीबीआई का नहीं है बल्कि यह हमारे सिस्टम में अंतर्निहित दोष है। कुछ लोग तो यह मानते हैं कि खुद कांग्रेस पार्टी ने यह गिरफ्तारी करवायी है क्योंकि वह चाहती थी कि जनता देखे कि कांग्रेस अपने घर की सफाई करने की इच्छुक है। चाहे जो भी दबाव हो या दलील हो लेकिन इससे एक संदेश तो जाता ही है कि सरकार भ्रष्टïाचार बर्दाश्त नहीं करेगी चाहे उससे कोई भी जुड़ा हो। यह संदेश देशवासियों में आशा का सृजन करता है , एक उम्मीद जगाता है। लेकिन इसके साथ ही राजनेताओं और बड़े सियासी दलों को इसका ध्यान रखना होगा कि वे भी बड़ी मछलियों को पकडऩे में मदद देने में कोताही नहीं बरतें। 2 जी घोटाले में ए राजा की गिरफ्तारी में चल रही रस्साकशी का उदाहरण सबके सामने है। इस मामले में यह तो स्पष्टï है कि राजा की गिरफ्तारी में देरी में सियासत की भूमिका प्रमुख है। इसी देरी के कारण राजा को पूछताछ के लिये रोका जाना अप्रभावी हो गया। अतएव इस मामले में तेजी से कदम बढ़ाया जाना चाहिये क्योंकि देश को यह जानना जरूरी है कि घोटाले करने वाले नेता और अफसर सचमुच इससे जुड़े हैं या उन्हें फंसाया जा रहा है। दोनों सूरतों में दोषी को पकड़ा जाना जरूरी है। वैसे देरी की अपनी खूबी होती है। समय के साथ लोग अपराध को भूलने लगते हैं। वक्त की दीमक स्थितियों के तीखेपन को चाट जाती है और भ्रष्टïाचार और न्याय जैसे मसलों पर धूल जमने लगती है। नतीजा यह होता है कि अति भ्रष्टï आदमी भी अपनी जमा पूंजी समेट धीरे से गायब हो जाता है। बरसों तक सरकार ने भ्रष्टïाचार पर ध्यान नहीं दिया अब यदि इस पर ध्यान दिया जा रहा है तो जरूरी है कि सारी कार्रवाई पारदर्शी हो ताकि लोगों का सरकार की नीयत पर विश्वास हो सके। क्योंकि कहते हैं न कि कार्रवाई से जरूरी है कार्रवाई होती दिखना।
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बदल गए हैं गांव
हरिराम पाण्डेय
मेरा गांव शहर में रहता है और मेरा शहर ......माफ़ कीजिएगा मेरा नहीं. शहर तो शहर है वो हम सबके दिमाग में रहता है.
गांव अब जीता नहीं. इंतज़ार करता है उनका जो शहर चले गए हैं और साथ ले गए हैं गांव का लड़कपन, उसका बांकपन, उसकी मिट्टी, उसके सपने और उसका दीवानापन.
फागुन में अब गांव में फाग नहीं गाए जाते बल्कि होली वाले दिन लाउडस्पीकर पर शहर के गुड्डू रंगीला और चंदू चमकीला अपनी भौंडी आवाज़ में छींटाकशी वाले गाने गाते हैं.
साथ में होती है मदिरा और पैंट बुश्शर्ट वाले नौजवान जो भांग नहीं बल्कि बोतल से शराब पीते हैं.
बरसात में बूढ़े दालान पर बैठकर अपनी बूढ़ी बीवियों और जवान बहुओं को गरियाते हैं या फिर अपने छोटे छोट पोते पोतियों की नाक से निकलता पोटा पोंछते हुए कहते हैं कि छोटा ही रह.
उन्हें डर है कि पोता भी बड़ा होते ही शहर हो जाएगा.
जवान औरतें अब मेला नहीं जाती हैं बल्कि मोबाइल फोन पर अपने शहर में रह रहे पतियों या किसी और से गप्प लड़ाती हैं.घर से बाहर निकलती हैं और बूढ़ों की भाषा में लेफ्ट राइट करती हैं.
शहर कभी कभी गांव आता है. होली दीवाली में. दो चार दिन रहता है. अपने कोलगेट से मांजे गए दांतों से ईख चबाने की कोशिश में दांत तुड़ाता है और फिर ईख को गरियाते हुए गांव को रौंद कर निकल जाता है.
फिर गांव इंतज़ार करता रहता है कि कब शहर आएगा और भैंस को दाना खिलाएगा. हल या ट्रैक्टर से खेत जोतेगा और बीज बोएगा. कब अपनी भीनी आवाज़ में गीत गाते हुए फसल काटेगा और कब चांदनी रात में कटी फसल पर अपनी बीवी के पसीने में लथपथ होगा.
ऐसा होता नहीं है. शहर अब फ़िल्मी गाने गाता है. ट्रैक्टर चलाने की बजाय ट्रैक्टर के पीछे हेलमेट लगा कर बैठता है. बुलडोज़र और गारा मशीन की आवाज़ों के बीच मशीन हो जाता है. दिन रात ठेकेदार की गालियां सुनता है. शाम को अपनी दिहाड़ी लेकर कमरे पर लौटता है और दो रोटियां सेंककर सो जाता है कल फिर मुंह अंधेरे उठ कर काम के इंतजा़र में.
सब कहते हैं गांव बदल गया है.
हां गांव बिल्कुल बदल गया है. अब गांव भी शहर की तरह भूतिया हो गया है जहां सिर्फ़ औरतें और बूढ़े दिखते हैं. खेत खलिहान सूखे और पानी की किल्लत दिखती है. लोकगीतों की बजाय फ़िल्मी गाने सुनाई पड़ते हैं और लोग कहते हैं अपने काम से काम रखो.
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भीड़ तो है, लेकिन हम तन्हा क्यों हैं?
हरिराम पाण्डेय
80 के दशक में एक गाने ने हजारों के दिल को छूकर वो तार, उन भावनाओं को उकेरा था, जिसे लोग महसूस तो किया करते थे, लेकिन बयान करने के लिए या तो उनके पास शब्द नहीं थे या फिर हिम्मत. इस गाने के साथ हर वो व्यक्ति अपने आपको जोड़कर देखा करता था, जो किसी छोटे शहर से एक बड़े शहर या मेट्रो में अपने आपको खोते हुए देख रहा था.
असहाय, निरीह आखों से अपने अस्तित्व को एक महानगर में लीन होते देखना और कुछ न कर पाने की बेबसी– एक महानगर में व्यवस्था के नाम पर अपनों से कटना और उसे सही ठहराने के लिए खुद को भुलाते रहना. हां, वो एक ऐसा दौर था, जब दुनिया के साथ-साथ भारतीय महानगरों में रहने वाले लोग भी बदल रहे थे. इससे पहले कि बात आगे बढ़ाएं, पहले जरा उस गाने के मुखड़े को पढ़ लीजिए.
‘सीने में जलन, आंखों में तूफ़ान-सा क्यूं है. इस शहर में हर शख़्स परेशान-सा क्यूं है.. दिल है तो धड़कने का बहाना कोई ढूंढे, आईना हमें देख के हैरान-सा क्यूं है. सीने में जलन आंखों में तूफ़ान-सा क्यूं है.’
पिछले 25 सालों में इस गाने की शाश्वतता में कोई बदलाव नहीं आया. हां, जो बदलाव आया है, वो ये कि अब इसके भाव सिर्फ महानगरों तक सीमित नहीं हैं. अब छोटे शहरों में बसने वाले लोग भी इस गाने के मर्म को बखूबी महसूस करने लगे हैं और अपनी जिंदगी को बेरंग होता देखकर शायद ही कुछ कर पाने की स्थिति में हैं.
फौरी तौर पर हम इसे समाज के बदलते चहरे, भारतीय संस्कारों के खत्म होने की मिसाल, परिवारों के टूटने की प्रक्रिया, 'एकला चलो रे' की हमारी चाहत, न्यूक्लियर परिवार का चलन, कंज्यूमर कल्चर का प्रचलन और न जाने क्या-क्या कहकर, कन्नी कटा ले सकते हैं. कुछ लोग, खासकर मनोवैज्ञानिक, इस अकेलेपन के एहसास को या फिर इससे ग्रस्त व्यक्ति को मानसिक रूप से कमजोर भी मान सकते हैं.
लेकिन क्या यही सच है. क्या यही वो वजहें हैं, जिनके चलते नोएडा में दो बहनों ने 6 महीनों से अपने-आपको पूरी दुनिया से काटे रखा था. खाना बंद कर दिया था. कंकाल बनकर मौत का इंतजार कर रही इन दोनों बहनों को टीवी पर देखकर क्या आप वाकई में मानते हैं कि अपनी इस हालत के लिए वे खुद जिम्मेदार हैं. क्या ये दोनों बहनें मानसिक रूप से इतनी कमजोर हो चुकी थीं कि मौत ही इनके लिए एकमात्र रास्ता बचा था. क्या आप मानते हैं कि इंजीनियरिंग और अकाउंटिंग की पढ़ाई कर चुकी दोनों बहनों में जिंदगी जीने का कोई जज्बा बचा ही नहीं था. महज माता-पिता की मृत्यु और भाई से नाता टूट जाने की वजह से इन्होंने अपने-आपको मिटाना बेहतर समझा.
नहीं. ये कतई सच नहीं हो सकता.
कम से कम एक बात तो दावे से कही जा सकती है- अपने-आपको तिल-तिलकर, रोज मरते देखने के लिए जिस हिम्मत की जरूरत होती है, वो किसी मानसिक रूप से कमजोर या विकृत व्यक्ति में नहीं हो सकती. सामान्य जिंदगी जीने की आदी इन दो बहनों में, जीने की चाह पुरजोर रही होगी. इनकी भी तमन्ना होगी कि इनका अपना एक घर हो, पति हो, बच्चे हों, सास-ससुर हों, भरा-पूरा परिवार हो, नौकरी हो, दोस्त हो, रिश्तेदार हों– वो सबकुछ, जो हर कोई अपनी जिंदगी में चाहता है, लेकिन कहीं न कहीं कोई खता रह गई होगी. और फिर शुरू हुआ होगा जिंदगी में खालीपन का वो सिलसिला, जिसमें ये दोनों अपने-आपको इस कदर खोती चली गईं कि इन्होंने अपने-आपको ही मिटाने की ठानी. और यही वो बात है, जिसपर हम सबों को गौर करने की जरूरत है.
हमें ये सोचना चाहिए कि आखिर हमारे आसपास जो लोग हैं, जो हमारे करीबी दोस्त हैं, जो हमारे सखा-संबंधी हैं, वो क्या अपने-आपमें इतना घुलते जा रहे हैं कि उनकी तरफ ध्यान देने के लिए हमारे पास वक्त ही नहीं है. हम सब अपने काम में और अपनी पारिवारिक उलझनों में क्या इतने मसरूफ हैं कि किसी और के लिए वक्त निकालना हमारे लिए एक बहुत बड़ी बात हो गयी है. हम अपने दफ्तरों के तनाव को परिवार पर हावी कर लेते हैं. फिर परिवार के दबाव से खुद को बचाने के लिए बाजार का रास्ता ढूंढ लेते हैं. टीवी चलाकर पूरा परिवार टकटकी लगाए अपनी-अपनी दुनिया में खोया रहता है. अगर उससे फुरसत मिले, तो कंप्यूटर या आईपॉड पर हम लगे रहते हैं. और अगर ये तमाम चीजे नहीं कर रहे होते, तो हम सो रहे होते हैं.
अरे भाई, जब हमारे पास ही अपने-आपसे फुरसत नहीं, तो फिर हम किसी और के लिए कहां वक्त निकाल सकते हैं. हम खुद ही अकेले रहना चाहते है और जब अपने अकेलेपन से उकताहट होती है, तब हम अपने आसपास नजर डालते है. अपने परिवार को, अपने दोस्तों को, अपने रिश्तों को तोड़ने के लिए जितने हम खुद जिम्मेदार हैं, उतने वो लोग नहीं, जो हमारे आसपास हैं.
जरा याद कीजिए, पिछली बार कब हमसे किसी ने अपनी मां, पिता, पत्नी, बेटे या बेटी के साथ बैठकर बेतरती की गप मारी थी. कब हममें से किसी ने ये जानने की कोशिश की थी कि वो बहन, जो अपने घर में अपने पारिवारिक उलझनों के बीच राखी की डोर हमें बांधती है, उसका घर कैसे चल रहा है. वो भाई, जिसकी बीवी काम के सिलसिले में किसी दूसरे शहर कुछ दिनों के लिए गई है, उसके बच्चे कैसे घर पर अपना काम कर रहे हैं. फोन पर ही बेटे की आवाज सुनकर दिनभर खुशी से गाने गुनगुनाने वाली मां से कब हममें से किसी ने ये पूछा कि पैरों के जोड़ का दर्द ज्यादा तो नहीं. हम ये सब नहीं पूछते. हां, हम ये जरूर कहते हैं कि आज के जमाने में परिवार बचा नहीं है.
अगर नोएडा की दोनों बहनों से उनके भाई ने हर दिन बातें की होतीं, पूछा होता कि तुम ठीक तो हो– कुछ दिनों के लिए बंगलुरु आ जाओ– 6 महीनों में एक बार भी वक्त निकालकर उनसे मिलने नोएडा वो भाई अगर आ पाया होता, तो क्या वो इसी तरह मौत की टकटकी लगाए रहतीं. अगर उन दोनों बहनों की दोस्तों में से किसी ने भी उनसे बातें की होतीं, उनकी मानसिक स्थिति को समझने कि कोशिश की होती, तो क्या इन दोनों ने खाना-पीना, इस तरह छोड़ा होता. अगर आसपास रहने वाले उनके किसी भी संबंधी ने उनकी पीड़ा, उनके दर्द को समझने की कोशिश की होती, तो क्या आज उनमें से एक की जान गई होती. नहीं, शायद ऐसा नहीं होता.
इस हादसे को सिर्फ एक नाम दिया जा सकता है– हम सबों की खुदगर्जी.
एक बार ही सही, इन दोनों बहनों के दिमाग को अगर हम पढ़ने की कोशिश करें, तो क्या कुछ नहीं बीता होगा इन पर. सबसे पहले दुनिया से खुद को काटना. हर तरह के मनोरंजन से खुद को महरूम करना. हर रिश्ते से अपने-आपको अलग करना. अपनी हर चाहत को सिरे से कुचल डालना. ख्वाहिशों का खून करना. तन्हाई की चादर इस कदर ओढ़ना कि उससे पार कुछ न आ पाये. फिर इस सदमे को अपने भीतर एक जख्म की तरह पालना कि माता-पिता की मृत्यु के बाद उनके जीवन में कुछ नहीं बचा. उसके बाद अपने-आपको इतना मजबूत करना कि अब तिल-तिलकर मरना ही उनकी नियति है. भूख से कुलबुलाती आंतों के दर्द को दिमाग की एकजुटता से मिटा देना. कमजोर पड़ती पसलियों और कांपते हाथों की थरथराहट को इरादे की एकाग्रता से नजरअंदाज करना. और फिर कंकाल बनकर अपने बिगड़ते चेहरे पर मौत की झुर्रियों को धीरे-धीरे गहराते देखना. महज लिखना भर मुश्किल है, इन बहनों ने जो झेला होगा, उसे महसूस कर पाना, शायद हममें से किसी के लिए भी नामुमकिन है.
और इस बेतरती जिंदगी और बेवजह मौत के लिए जिम्मेदार हैं हम– हम जो इतने खुदगर्ज हो चुके हैं कि हमारे पास किसी के लिए भी वक्त ही नहीं है.
आज 80 के दशक के उस गाने का मुखड़ा होना चाहिए... ‘सीने में जलन आंखों में तूफ़ान-सा क्यूं है. इस शहर में हर शख़्स इतना खुदगर्ज क्यूं है.’
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Wednesday, April 27, 2011
बंगाल में सियासत से समाज हार चुका है
हरिराम पाण्डेय
गृह मंत्री पी चिदम्बरम ने सोमवार को बंगाल में अपने चुनावी भाषण में बंगाल के कानून और व्यवस्था की स्थिति की जमकर आलोचना की और एक तरह से घोषणा कर दी कि बंगाल वाममोर्चा शासन में बर्बाद हो गया है। हालांकि जो आंकड़े दिये गये हैं वे सामाजिक अपराध वैज्ञानिक गवेषणा की कसौटी पर बिल्कुल सही नहीं उतरते हैं लेकिन अपराध तो बहरहाल अपराध है। उन्होंने सियासी झगड़ों और उससे जुड़ी हिंसा का जिक्र किया है। उन्होंने पश्चिम बंगाल की वाममोर्चा सरकार को आड़े हाथ लेते हुए आज कहा कि यह प्रदेश देश के बदतर शासित राज्यों में शामिल है और यहां प्रशासन 'स्तरहीनÓ है। गृह मंत्री की इस टिप्पणी से दो दिन पहले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी कहा था कि पश्चिम बंगाल कृषि, उद्योग, निवेश, स्वास्थ्य और शिक्षा सहित 'हर क्षेत्रÓ में पिछड़ गया है। चिदंबरम ने रिपोर्टों के हवाले से दावा किया कि वर्ष 2010 में राजनीतिक दलों के बीच संघर्ष में 204 लोगों की मौत हुई थी। इनमें से तृणमूल कांगे्रस के 99 और कांग्रेस के 60 कार्यकर्ता थे। उन्होंने कहा कि इस वर्ष पश्चिम बंगाल में राजनीतिक हिंसा में अब तक 26 लोगों की मौत हो चुकी है। इनमें तृणमूल कांग्रेस के 14 और कांग्रेस के चार कार्यकर्ता शामिल हैं। उन्होंने कहा, ''यह कर्ज में डूबे उन प्रदेशों में से एक है जहां आम Ÿोणी के राज्यों में कर - जीडीपी का अनुपात सबसे कम है।ÓÓ चिदंबरम ने कहा कि प्रदेश सीमा से अधिक कर्ज लिये जा रहा है। उन्होंने कहा कि अप्रैल में पश्चिम बंगाल ने खुले बाजार से 3,173 करोड़ रुपये का कर्ज लिया। विख्यात अपराध शास्त्री सैमुअल सोडरमैन के अनुसार किसी व्यवस्था में विकास के थम जाने से अपराध बढऩे लगता है। प्रसिद्ध कृषि अर्थशास्त्री और पश्चिम बंगाल योजना बोर्ड के सदस्य अजित नारायन बसु का कहना है कि पश्चिम बंगाल में भूमि सुधार से गांव के गरीबों के आर्थिक विकास में कोई मदद नहीं मिली है। बसु के अनुसार पश्चिम बंगाल के 53. 38 फीसदी ग्रामीण परिवारों के पास कुल कृषि योग्य जमीन में से मात्र 3.29 फीसदी कृषि योग्य जमीन है। यह राष्ट्रीय औसत से काफी नीचे है। राष्ट्रीय स्तर पर 58. 28 फीसदी परिवारों के पास 5. 97 फीसदी कृषि योग्य जमीन है। इसी तरह पश्चिम बंगाल के 13. 24 फीसदी समृद्ध ग्रामीण परिवारों के पास 58. 56 फीसदी कृषि योग्य जमीन है। बसु ने रेखांकित किया है पश्चिम बंगाल में 1992 और 2001 में कृषि मजदूरों को तयशुदा सरकारी मजदूरी की तुलना में क्रमश: 12.3 और 21.5 फीसदी कम न्यूनतम मजदूरी मिलती है। सरकार के अनुसार न्यूनतम मजदूरी का यह आंकड़ा 7,052 करोड़ रुपये होता है। बसु का मानना है दो वर्षों में वाममोर्चा सरकार यदि चाहती तो कृषि योग्य उपलब्ध जमीन में से 143. 69 एकड़ जमीन को 68 लाख किसान परिवारों में बांट सकती थी। यदि ऐसा हो जाता तो इससे समस्त गरीब ग्रामीण परिवारों को गरीबी की रेखा से ऊपर ले जाने में मदद मिलती लेकिन ऐसा नहीं हुआ। दूसरी ओर गरीबी बढऩे से सांस्कृतिक क्षय आरंभ हो जाता है। जिसका असर जनतांत्रिक परिवेश पर पड़ता है। आज सांस्कृतिक क्षय की अवस्था है। संस्कृति को राजनीति ने हड़प लिया है। सब कुछ राजनीतिक है। राजनीति के अलावा सब बेकार है। यही कारण है कि चुनाव में जो लोग खड़े हो रहे हैं उनमें से बहुतों की पृष्ठïभूमि साफ सुथरी नहीं है। पश्चिम बंगाल में कुल सीटों के उम्मीदवारों में से कम से कम 54 ऐसे हैं जिन पर आपराधिक मामलों में मुकदमा चल रहा है। तृणमूल कांग्रेस, बीजेपी, सीपीआई-एम सभी के कुछ उम्मीदवार ऐसे हैं। पश्चिम बंगाल में सामाजिक कार्यकर्ताओं की पहल पर की गयी एक स्टडी में यह बात सामने आयी है। कुल सीटों में से 54 मुकदमे आपराधिक हैं और इनमें से 34 पर गंभीर आरोप हैं। इलेक्शन वॉच के राज्य समन्वयक बिप्लव हालिम के अनुसार इनमें हत्या, हत्या की कोशिश और जबरन वसूली जैसे आरोप शामिल हैं। हालिम ने कहा कि सभी मुख्य पार्टियों ने ऐसे लोगों को टिकट दिया है जिन पर आपराधिक मुकदमे चल रहे हैं। तृणमूल कांग्रेस में 29, बीजेपी में 13, सीपीआई-एम में 10 और कांग्रेस और आरएसपी में एक एक ऐसा उम्मीदवार है। सर्वे में यह भी सामने आया है कि 31 उम्मीदवार करोड़पति हैं और 100 ऐसे हैं जिन्होंने कभी आयकर रिटर्न फाइल नहीं किया। 57 उम्मीदवारों ने पीएएन की जानकारी नहीं दी है। यह राजनीति के अपराधीकरण का छोटा सैंपल है और संकेत देता है कि वाममोर्चे के शासन में सोशल इंटरलॉकिंग कितनी ज्यादा टूटी है। सियासत के प्रहारों से समाज कितनी बुरी तरह क्षत विक्षत हो गया है। आने वाले दिनों में नयी सरकार का यह कत्र्तव्य होना चाहिये कि वह इस स्थिति को सुधारने के लिये जरूरी कदम उठाये।
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गणतंत्र दिवस
हरिराम पाण्डेय
हर साल की तरह आज एक बार फिर हम गणतंत्र दिवस बड़े धूमधाम से मना रहें हैं जो हमारे लिए गर्व की बात हैं। आज कहीं हमारी युवा पीढ़ी को स्वतंत्रा और लोकतंत्र की महान गाथा सुनाई जाएगी और कहा जाएगा कि देश का भविष्य यानि लोकतंत्र आपके हाथ में है।
आजादी के इतने सालों बाद हम मजबूती से खड़े हैं लेकिन इस देश में जहां भष्ट्राचार, विश्वासघात, बेईमानी और न जाने और कितने नासूर फैले हुए हैं, इसके बावजूद हमारे देश में लोकतंत्र जिंदा है। जबकि हमारे साथ बना पाकिस्तान और बाद में तैयार हुआ बंग्लादेश लोकतंत्र को बचाने के लिए संघर्षरत है। आखिर हमारी सरजमी में ऐसा क्या है कि इतने निराशा के माहौल में हमारा लोकतंत्र बचा हुआ है ? दरअसल हम भारतवासियों के अंदर का जज्बा और जिद ही जिसके कारण लोकतंत्र में हम सांस ले रहे हैं। जिद्द दुनिया बदलने की, जिद्द समाज को बदलने की और जिद लगातार अपने आप में सुधार करने की। आईए ऐसी ही कुछ खास बातों पर हम सोचें और विचार करें:
गंगा-जमुनी तहजीब
हमारा देश हजारों सालों से सभी धर्म, रंग और संप्रदाय के लोगों को साथ में ले कर चला है। हम आपस में चाहें कितना भी लड़ लें लेकिन जब संकट आन पड़ता है कि तो हम आपसी विवादों को भूलकर एक साथ खड़े हो जाते हैं। यह है हमारी पहचान।
राजनीति आजादी : आइडिया ऑफ डेमाक्रेसी
भारतीय संविधान मूल विचार ही लोगों से निकला है। इसमें कहा गया है कि भारतीय लोकतंत्र लोगों के लिए, लोगों के द्धारा चलाया जाएगा। इस आइडिया का ही देन है कि भारत में राजनीति आजादी मिली हुई है। एक ही घर के अलग-अलग सदस्य अलग-अलग पार्टी को मत देते हैं। जिसके कारण लोकतंत्र का फूल चारों ओर अपनी खूश्बू बिखेर रहा है। हिंदुस्तान का लोकतंत्र ढाई हजार साल से भी पुराना होने के कारण यहां लोकतांत्रिक मूल्य कहीं न कहीं मौजूद हैं। जब शेष दुनिया लोकतंत्र के बारे में जानती तक नहीं थी तो लिच्छवी और मगध जैसे राज्यों में हर फैसले लोकतांत्रिक ढंग से किए जाते थे।
आशावादी सोच
भष्ट्राचार, नैतिक पत्तन और सभ्यताओं के पतन के बावजूद हम आज भी आशावादी हैं। लोगों में भ्रष्टाचार बड़ा है, नैतिक मूल्यों में भी कमी आई है लेकिन इसके बावजूद कुछ अच्छे नेता, अधिकारी और अन्य क्षेत्र के लोगों की वजह से हमें आशा बची हुई है। उम्म्ीद की एक किरण से भारत रुपी आंगन को सवारनें की आश्शवादी सोच हमारे विकास की गाथा लिखने के लिए हर बार एक लौ बन जाती है।
आध्यात्मिक औ अभौतिकवाद
भारतीय आध्यात्म पूरी दुनिया में सबसे प्राचीन आध्यात्म है। जिसका फायदा लोकतंत्र को मिल रहा है। यहां के लोगों में आज भी आध्यात्म और अभौतिकवाद शामिल है। जिसके कारण लाख मुश्किलों में भी हम सतुंष्ठ रहते हैं।
हम लोग
भारत की आबादी 1.10 अरब से अधिक हो चुकी है। कई बार कहा जाता है कि किसी भी देश के लिए बढ़ती आबादी खतरनाक संकेत है। लेकिन भारत के लिए यह ताकत है। एक ऐसी आबादी जो एक साथ खड़ी होती है तो उसकी धमक और ताकत का आभास संसार को हो जाता है।
अनेकता में एकता
इस बात से शायद ही कोई इंकार करे कि हमारी सबसे बड़ी ताकत भारत के वे लोग हैं जो हैं तो अलग-अलग। लेकिन इसके बावजूद अनेकता में एकता का राग उनके दिलों में बसता हैं। होली, ईद, बैशाखी और जगमग दिपावली जैसे त्यौहार हमारे देश में अनेकता में एकता की मिसाल स्थापित करते है। दुख और मुसीबत के समय पूरा देश एक साथ खड़ा हो जाता है। चाहे वह कश्मीर मसला हो या देश के किसी भी कोने में होने वाले बम ब्लास्ट हो या कोसी की बाढ़ से आई तबाही ही क्यों ना हो। भूकंप गुजरात में आता है लेकिन मदद सूदूर प्रदेशों से आती है। यह है हमारी ताकत।
धर्मनिरपेक्षता
हिंदुस्तान की सबसे बड़ी खासियत इसकी धर्मनिरपेक्षता है। अमेरिका के राष्ट्रपति अब कहते हैं कि उनका देश ईसाईयों का, मुस्लमानों का और हिंदूओं को भी देश है। जबकि हमारे यहां कभी यह कहने की आवश्यकता भी नहीं पड़ी। यहां सभी धर्मो के लोगों को अपने धर्म के अनुसार रहने और पूजा-पाठ की इजाजत भारतीय संविधान देता है।
समाजिक न्याय
आजादी के तुरंत बाद सरकारों ने जो सबसे पहला काम किया, वह यह था कि समाज में जो लोग पिछड़ गए हैं, उन्हें मुख्यधारा में लाया जाए। इसके लिए कई पंचवर्षीय योजनाओं में बंदोबस्त किया गया। जिसका अपेक्षित परिणाम तो नहीं मिल पाया लेकिन इसके बावजूद स्थिति काफी बदली है। भारत बनाम इंडिया की खाई को पाटने की लगातार कोशिश का ही नतीजा है कि लोग आज भी संविधान और लोकतंत्र में विश्वास रखते हैं।
जय हे ! दिल में देशराग की भावना
देश की अधिकांश आबादी दो जून की रोटी के लिए हर रोज संघर्ष करती है। लाखों लोगों के सिर पर छत नहीं है। बेरोजगारी का जाल बुरी तरह फैला हुआ है। लेकिन इन सबके बावजूद हमारे अंदर देशराग की जो भावना है, वही हमारे लोकतंत्र को मजबूत करती है। इसीलिए कहा जाता है सारे जहां से अच्छा हिंदुस्तान हमारा। जय हे..जय हे..
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भारत में गणतंत्र की परंपरा यूनानी नगर राज्यों से भी पुरानी है
हरिराम पाण्डेय
सामान्यत: यह कहा जाता है कि गणराज्यों की परंपरा यूनान के नगर राज्यों से प्रारंभ हुई
थी। लेकिन इन नगर राज्यों से भी हजारों वर्ष पहले भारतवर्ष में अनेक गणराज्य स्थापित हो चुके थे। उनकी शासन व्यवस्था अत्यंत दृढ़ थी और जनता सुखी थी। गण शब्द का अर्थ संख्या या समूह से है। गणराज्य या गणतंत्र का शाब्दिक अर्थ संख्या अर्थात बहुसंख्यक का शासन है। इस शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में चालीस बार, अथर्व वेद में नौ बार और ब्राह्माण ग्रंथों में अनेक बार किया गया है। वहां यह प्रयोग जनतंत्र तथा गणराज्य के आधुनिक अर्थों में ही किया गया है।
वैदिक साहित्य में, विभिन्न स्थानों पर किए गए उल्लेखों से यह जानकारी मिलती है कि उस काल में अधिकांश स्थानों पर हमारे यहां गणतंत्रीय व्यवस्था ही थी। कालांतर में, उनमें कुछ दोष उत्पन्न हुए और राजनीतिक व्यवस्था का झुकाव राजतंत्र की तरफ होने लगा। ऋग्वेद के एक सूक्त में प्रार्थना की गई है कि समिति की मंत्रणा एकमुख हो, सदस्यों के मत परंपरानुकूल हों और निर्णय भी सर्वसम्मत हों। कुछ स्थानों पर मूलत: राजतंत्र था, जो बाद में गणतंत्र में परिवर्तित हुआ । कुरु और पांचाल जनों में भी पहले राजतंत्रीय व्यवस्था थी और ईसा से लगभग चार या पांच शताब्दी पूर्व उन्होंने गणतंत्रीय व्यवस्था अपनाई।
भारत में वैदिक काल से लेकर लगभग चौथी-पांचवीं शताब्दी तक बडे़ पैमाने पर जनतंत्रीय व्यवस्था रही। इस युग को सामान्यत: तीन भागों में बांटा जाता है। प्रथम 450 ई.पू. तक का समय, दूसरा इसके उपरांत 300 ई.पू. तक और तीसरा लगभग 350 ई. तक। पहले कालखंड के चर्चित गणराज्य थे पिप्पली वन के मौर्य, कुशीनगर और काशी के मल्ल, कपिलवस्तु के शाक्य, मिथिला के विदेह और वैशाली के लिच्छवी।
दूसरे कालखंड में अटल, अराट, मालव और मिसोई नामक गणराज्यों का उल्लेख मिलता है। तीसरे कालखंड में पंजाब, राजपूताना और मालवा में अनेक गणराज्यों की चर्चा पढ़ने को मिलती है, जिनमें यौधेय, मालव और वृष्णि संघ आदि विशेष उल्लेखनीय हैं। आधुनिक आगरा और जयपुर के क्षेत्र में विशाल अर्जुनायन गणतंत्र था, जिसकी मुद्राएं भी खुदाई में मिली हैं। यह गणराज्य सहारनपुर -भागलपुर -लुधियाना और दिल्ली के बीच फैला था। इसमें तीन छोटे गणराज्य और शामिल थे, जिससे इसका रूप संघात्मक बन गया था। गोरखपुर और उत्तर बिहार में भी अनेक गणतंत्र थे। इन गणराज्यों में राष्ट्रीय भावना बहुत प्रबल हुआ करती थी और किसी भी राजतंत्रीय राज्य से युद्घ होने पर, ये मिलकर संयुक्त रूप से उसका सामना करते थे। कभी- कभी इनमें आपस में भी संघर्ष होता था।
महाभारत के सभा पर्व में अर्जुन द्वारा अनेक गणराज्यों को जीतकर उन्हें कर देने वाले राज्य बनाने की बात आई है। महाभारत में गणराज्यों की व्यवस्था की भी विशद विवेचना है। उसके अनुसार गणराज्य में एक जनसभा होती थी, जिसमें सभी सदस्यों को वैचारिक स्वतंत्रता प्राप्त थी। गणराज्य के अध्यक्ष पद पर जनता ही किसी नागरिक का निर्वाचन करती थी। कभी-कभी निर्णयों को गुप्त रखने के लिए मंत्रणा को, केवल मंत्रिपरिषद तक ही सीमित रखा जाता था। शांति पर्व में गणतंत्र की कुछ त्रुटियों की ओर भी इंगित किया गया है। जैसे यह कि गणतंत्र में प्रत्येक व्यक्ति अपनी-अपनी बात कहता है और उसी को सही मानता है। इससे पारस्परिक विवाद में वृद्घि होती है और समय से पहले ही बात के फूट जाने की आशंका रहती है।
कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी लिच्छवी, बृजक, मल्लक, मदक और कम्बोज आदि जैसे गणराज्यों का उल्लेख मिलता है। उनसे भी पहले पाणिनी ने कुछ गणराज्यों का वर्णन अपने व्याकरण में किया है। आगे चलकर यूनानी राजदूत मेगास्थनीज ने भी क्षुदक, मालव और शिवि आदि गणराज्यों का वर्णन किया।
बौद्घ साहित्य में एक घटना का उल्लेख है। इसके अनुसार महात्मा बुद्घ से एक बार पूछा गया कि गणराज्य की सफलता के क्या कारण हैं? इस पर बुद्घ ने सात कारण बतलाए (1) जल्दी- जल्दी सभाएं करना और उनमें अधिक से अधिक सदस्यों का भाग लेना (2) राज्य के कामों को मिलजुल कर पूरा करना (3) कानूनों का पालन करना तथा समाज विरोधी कानूनों का निर्माण न करना (4) वृद्घ व्यक्तियों के विचारों का सम्मान करना (5) महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार न करना (6) स्वधर्म में दृढ़ विश्वास रखना तथा (7) अपने कर्तव्य का पालन करना।
राजा का शाब्दिक अर्थ (जनता का) रंजन करने वाले या सुख पहुंचाने वाले से है। हमारे यहां राजा की शक्तियां सदैव सीमित हुआ करती थीं।
गणराज्य में तो अंतिम शक्ति स्पष्ट रूप से जनसभा या स्वयं जनता के पास होती थी, लेकिन राजतंत्र में भी निरंकुश राजा को स्वीकार नहीं किया जाता था। जनमत की अवहेलना एक गंभीर अपराध था, जिसके दंड से स्वयं राजा या राजवंश भी नहीं बच सकता था। राजा सागर ने अत्याचार के आरोप में अपने पुत्र को निष्कासित कर दिया। जनमत की अवहेलना करने पर ही राजा वेण का वध कर दिया गया और राम को भी सीता का परित्याग करना पड़ा।
महाभारत के अनुशासन पर्व में स्पष्ट कहा गया कि जो राजा जनता की रक्षा करने का अपना कर्त्तव्य पूरा नहीं करता, वह पागल कुत्ते की तरह मार देने योग्य है। राजा का कर्त्तव्य अपनी जनता को सुख पहुंचाना है।
बाद में एक लंबे अंतराल के बाद आज हमने जो यह नई गणतंत्रीय व्यवस्था प्राप्त की है, वह मूलत: हमारे लिए अपरिचित नहीं है, आवश्यकता बस उस पुरानी स्मृति को फिर से जगाने की है।
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Friday, April 22, 2011
संसद को सर्वोच्च मानना जरूरी
हरिराम पाण्डेय
सोमवार को खबर थी कि अण्णा हजारे ने कहा है कि यदि संसद ने प्रस्तावित लोकपाल विधेयक को नहीं माना तो वे उसे स्वीकार कर लेंगे। यह बात अण्णा ने एक सवाल के जवाब में कहा था। सवाल था कि उन्होंने इतना बड़ा आंदोलन किया और सरकार ने भी उनकी मांगों को मान लिया, लेकिन यदि उनकी कमिटी द्वारा बनाया गया विधेयक संसद में नहीं स्वीकृत हुआ वैसी सूरत में वे क्या करेंगे? अण्णा का उत्तर सुनकर बहुतों की थमी हुई सांस ने उसांस भर ली। क्योंकि अण्णा ने जितने प्रभावशाली रूप में आंदोलन को चलाया था उससे बहुत लोगों को भय था कि जन लोकपाल विधेयक का अण्णा की कमिटी द्वारा तैयार मसौदे को यदि संसद ने नहीं माना तो कहीं आंदोलन अलोकतांत्रिक स्वरूप न ग्रहण कर ले। लेकिन अण्णा और उनके साथियों ने साफ कहा कि हमें संसद का निर्णय मंजूर है, हम लोकतंत्र में रहते हैं और लोकतंत्र पर भरोसा करते हैं। हालांकि अब अण्णा के समर्थक और साथी यह कहते फिर रहे हैं हैं कि अण्णा ने ऐसा कुछ कहा ही नहीं है। वे विधेयक को पास कराने की 15 अगस्त की समय सीमा से आबद्ध हैं। उल्लेखनीय है कि अपना सत्याग्रह भंग करते समय अण्णा ने कहा था कि अगर 15 अगस्त तक यह विधेयक पारित नहीं हुआ तो हम लोग संसद के लिये प्रयाण करेंगे। अण्णा इसके पारित होने की राह में किसी प्रकार का अवरोध बर्दाश्त नहीं करेंगे। यह सचमुच बड़ा दुर्भाग्यपूर्ण है। हजारे सत्याग्रह के दौरान बहुत लोग इसी बात से परेशान थे कि संसद में बेवजह बहस होती है। उनकी परेशानी सही है। इसलिये हमारे राजनीतिक वर्ग को इसे दूर करने के बारे में सोचना चाहिये और नागरिक होने की हैसियत से हमें भी इसे याद रखना चाहिये और जन मंचों पर हमेशा उठाते रहना चाहिये। लेकिन साथ ही हमें कानून बनाने की प्रक्रिया और अपनी संसद के लोकतांत्रिक प्रकृति को भी याद रखना चाहिये। हमें यह भी ध्यान में रखना चाहिये कि कानून बनाने की प्रक्रिया बेहद लम्बी और जटिल है। संसद में मतदान से पहले इस पर कई स्तरों पर बहस होती है और प्रस्ताव का बारीकी से विश्लेषण होता है। इस दौरान सामाजिक स्थितियों पर विशेष ध्यान दिया जाता है। यहां कई सैद्धांतिक प्रक्षेत्र हैं जहां बहुत से लोग हजारे के तौर- तरीकों से इत्तफाक नहीं करते। हजारे ने खुद इसे 'सिद्धांतों का आतंकवादÓ कहा था। चाहे जो हो या जैसा भी हो लेकिन कानून बनाने के मामले में संसद की सर्वोच्चता को स्वीकार करना जरूरी होता है क्योंकि एक सक्रिय सियासत की यह पहली शर्त है। ... और अण्णा के समर्थक या साथी इस प्रतिबद्धता से आबद्ध नहीं हैं। यहीं आकर लगता है कि संसदीय लोकतंत्र के संदर्भ में यह आंदोलन कहीं छलावा तो नहीं है। जरा गौर करें, सिर्फ दो दिनों के भीतर, अण्णा हजारे, स्वामी अग्निवेश, किरण बेदी, प्रशांत भूषण, शांति भूषण और अरविंद केजरीवाल के बीच दूरियां दिखनी शुरू हो गयी हैं। और आने वाले दिनों में ये दूरी किस कदर, किस पक्ष पर हावी होगी या किस धड़े को कमजोर करेगी, यह फिलहाल कह पाना संभव नहीं। लेकिन हां, यह जरूर कहा जा सकता है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ लोकपाल के मुद्दे पर इक_ा हुए तमाम लोगों के लिए परीक्षा की घड़ी अब शुरू हुई है।
इन सभी लोगों को अब ये साबित करना होगा कि जिस बड़े लक्ष्य की ओर इन्होंने कदम बढ़ाया है, उस दिशा में ये सभी एकजुट होकर लगातार आगे बढ़ते रहेंगे। इतना ही नहीं, इन्हें ये भी साबित करना होगा कि आगे बढऩे का रास्ता इनके पास है और उस रास्ते में किसी का भी अहम अड़चन बन कर सामने नहीं आयेगा। ना ही किसी प्रलोभन या व्यक्तिगत लाभ की वजह से उस बड़े मकसद के साथ बेईमानी की जायेगी। अगर इसमें से किसी भी मुद्दे पर, इस गुट में से किसी ने भी चूक की, तो इस पूरे अभियान को एक बहुत बड़ी और करारी चोट पहुंचेगी और उन पर लोकतंत्र को अमान्य करने का आरोप भी लग सकता है।
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एक और सत्याग्रह जरूरी
हरिराम पाण्डेय
भ्रष्टïाचार के खिलाफ अण्णा हजारे का धर्मयुद्ध समाप्त हो गया और उनके द्वारा स्वीकृत कमेटी के सदस्यों ने मंत्रिसमूह के साथ बैठ कर जन लोकपाल विधेयक का मसौदा बनाने की तैयारी में जुट गये। मसौदा तैयार होने के बाद संसद के सामने पेश होगा और वहां की मुहर लगने के बाद वह कानून का रूप लेगा। इस सत्याग्रह को जितना प्रबल समर्थन मिला उसे देख कर यह महसूस होता है कि विपक्षी दल किसी न किसी प्रकार इस विधेयक को संसद से पारित भी करवा देंगे। बस!
अब विचार करें कि इतना शोर और प्रदर्शन, मोमबत्तियों की कांपती लौ और देश भर की उम्मीदों के बाद मिली विजय से हमें क्या मिला। एक दम सकारात्मक हो और बेहतरीन का ख्याल सामने हो तब भी क्या मिला हमें- एक लोकपाल कानून। जिस कानून के माध्यम से बड़े- बड़े घोटाले जैसे हाल का 2 जी घोटाला या फिर कामनवेल्थ घोटाला। ये घोटाले चाहे जितने भी खराब हों लेकिन ये बिल्कुल न्यून हैं। गैर कानूनी अर्थ व्यवस्था में इनका कोई स्थान नहीं है। धूसर अर्थ व्यवस्था (ब्लैक इकॉनमी)के ये मामूली हिस्से हैं। इसके साथ एक और सवाल उठता है कि यदि सिविल सोसायटी के सदस्यों को इतने अधिकार दे दिये जाते हैं तो वे एक समानांतर व्यवस्था चलायेंगे जिनके पास असीमित अधिकार होंगे। चलिये इसे भी मान लेगी इस देश की जनता तो क्या गारंटी है कि नया लोकपाल आगे चल कर भ्रष्टï नहीं होगा। जिस देश में और जिस वातावरण में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश पर भी भ्रष्टïाचार में शामिल होने का आरोप लग सकता है वहां और उस वातावरण में एक और सर्वोच्च संस्था - राम बचाये! दुनिया में बहुत से स्थापित लोकतंत्र हैं जहां भ्रष्टïाचार का स्तर हमारे देश से बहुत कम है। फिर क्या कारण है कि हम अपने देश में ऐसा नहीं कर सकते। यहां सामान्य बुद्धि से यह समझा जा सकता है कि सरकार गैर कानूनी कामों में नागरिकों की संलग्नता को कम करे या ऐसी व्यवस्था करे कि इस तरह की संलग्नता से आय के अवसर नहीं हों। ऐसी बात नहीं कि सरकार ने कोई व्यवस्था नहीं की है। मसलन बड़ी खरीद- बिक्री अथवा लेन- देन में पैन कार्ड को अनिवार्य बनाया जाना या फिर आयकर विभाग द्वारा कम्प्यूटर का उपयोग किये जाने से टैक्स की चोरी में थोड़ी कमी आयी है जरूर पर अभी भी कई ऐसे चोर दरवाजे हैं जिन्हें बंद किया जाना जरूरी है। कई मामलों में देखा गया है कि अफसरशाही के कारण ही भ्रष्टïाचार को बढ़ावा मिलता है। सरकारी अफसरों के दबाव के कारण आम जनता को अपना काम करवाने के लिये घूस देना मजबूरी बन जाती है। इसे रोकने के लिये सरकार को चाहिये कि वह सारी सेवाओं के विहित समय सीमा की इंटरनेट पर घोषणा कर दे तथा उस माध्यम से आवेदन एवं कार्य निष्पादन की सुविधा दे दे। हर आदमी को यह दीखता रहेगा कि एक खास समय में उसके आवेदन की स्थिति क्या है। साथ ही उसमें देरी को रोकने के लिये शिकायत की भी व्यवस्था हो जो साफ सबको दिखे। साथ ही सरकार ऐसी व्यवस्था करे जिससे यह भाव प्रदर्शित हो कि भ्रष्टïाचार से लाभ नहीं है। दूसरे सरकार को कालेधन की उपयोगिता को व्यर्थ करना भी जरूरी है। मसलन यदि सारी खरीद बिक्री चेक से या क्रेडिट कार्ड से के माध्यम से हो तो घर में काले धन का खजाना रखने से क्या लाभ होगा। लोग खुद ब खुद हतोत्साहित होने लगेंगे। यह बात दूसरी है कि भ्रष्टïाचार मुक्त देश एक कल्पना है पर इसे रोकने के लिये एक और सत्याग्रह तो जरूरी है।
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भूषण कहीं दूषण न बन जाएं
हरिराम पाण्डेय
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा कि भ्रष्टाचार एक चुनौती है और हमें इसका सामना पूरी ताकत के साथ करना होगा। प्रधानमंत्री ने कहा कि सरकार को संसद के मानसून सत्र में लोकपाल विधेयक पेश करने की उम्मीद है। प्रधानमंत्री ने कहा कि मौजूदा हालात में लोगों की बर्दाश्त करने की ताकत कम हो गयी है- लोग तत्काल और एक ऐसी कार्रवाई चाहते हैं जिससे दूसरों को सबक मिले। सब ठीक है। प्रधानमंत्री जी ने लोकपाल बिल के समर्थन में अपना मत दे दिया, सोनिया जी ने भी अण्णा हजारे को लिख कर अपना समर्थन भेज दिया था। देश की जनता भी कमोबेश उस बिल के साथ है या यों कहें कि सब लोग चाहते हैं कि भ्रष्टïाचार को मिटाने के लिये कोई ठोस व्यवस्था हो। पर यदि सरसों में ही भूत हो तो क्या होगा। अण्णा हजारे ने जिस टीम को विधेयक का मसौदा बनाने के लिये चुना वह टीम ही दुनिया को ईमानदार नहीं दिख रही है। उस टीम के दो सबसे प्रबुद्ध और कानून के जानकार सदस्य शांतिभूषण तथा प्रशांत भूषण रोज- रोज नये स्कैंडल्स में फंसते दिखायी पड़ रहे हैं। अब वे सही हैं या गलतन इसका फैसला समय करेगा, लेकिन फिलहाल तो लांछन लग ही गया। जन लोकपाल बिल ड्राफ्ट करने के लिए बनी समिति के सह अध्यक्ष शांति भूषण के पाक - साफ होने पर उठ रहे सवाल और गहरा गये हैं। वह चौतरफा घिर रहे हैं और समिति से उनके इस्तीफे की मांग उठने लगी है। शांति भूषण पर इलाहाबाद में करोड़ों के प्लॉट की खरीद में स्टांप ड्यूटी चोरी का आरोप है और इस मामले में उन्हें नोटिस भी जारी की गयी है। हालांकि अब तक प्रशांत भूषण इन आरोपों से इनकार करते रहे हैं कि उन्होंने स्टांप ड्यूटी की चोरी की है। लेकिन स्टांप ड्यूटी चोरी के आरोप में जारी हुई नोटिस की कॉपी मीडिया में आने के बाद इनकी मुश्किलें बढ़ सकती हैं। चरित्र हनन अभियान के तहत जिस तरह कांग्रेस के कुछ हलकों से शान्ति भूषण की सम्पत्ति संबंधी बयान आ रहे हैं वे निराधार नहीं हैं। ऐसे बयानों की वजह कमिटी के गैर सरकारी सदस्यों या अण्णा-टोली की वह पहलकदमी है जिसके तहत उन्होंने पहली मीटिंग में जाने से पहले ही अपनी सम्पत्ति की घोषणा कर दी। कांग्रेस के किसी सदस्य ने न तो अब तक अपनी सम्पत्ति की घोषणा की और न ही उनका घोषणा करने का कोई विचार है। बेचारे करें भी तो कैसे, अण्णा ने सम्पत्ति घोषणा रूपी ट्रंप कार्ड इतनी जल्दी चल दिया कि उन्हें हिसाब-किताब लगाने का मौका ही नहीं मिल पाया। कैसे बताएं कि कितनी दौलत सफेद है और कितनी काली। कितनी भारत में है और कितनी की स्विस बैंक करता है रखवाली। लोग सोचते हैं कि आ गया लोकपाल बिल और अब हो गया भ्रष्टाचार दूर। लेकिन क्या यह संभव है? पैनल के लिए नामित पांच सिविल सोसायटी सदस्यों पर भी विचार किया जाना चाहिए। इस तरह का पैनल सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता। ऐसा क्यों है कि भ्रष्टाचार के विरुद्ध संघर्ष कर रहे भारत में एक भी ऐसा आदिवासी कानूनविद् या शिक्षक, सामाजिक कार्यकर्ता या विद्वान नहीं मिला, जो पैनल में अपनी सेवाएं दे सके? यही वह वर्ग है, जिससे उसकी जमीन, जंगल और आजीविका छीन ली गयी है। पैनल में कोई महिला प्रतिनिधि भी नहीं है। पुरुष बहुल सवर्ण मध्यवर्ग अन्य योग्य नागरिकों की अनदेखी कर देश की आवाज बन सकता है? वर्ष 1952 से हर वयस्क भारतीय को वोट देने का अधिकार है। आज भारत में लगभग 30 लाख निर्वाचित जनप्रतिनिधि हैं, जिनमें से एक-तिहाई महिलाएं हैं। यह चिंताजनक स्थिति है कि मध्यवर्ग के बहुतेरे लोग राजनीति में तब कम दिलचस्पी ले रहे हैं, जब देश में राजनीतिक प्रक्रिया संभ्रांत वर्ग के दायरे से बाहर निकल रही है और निचले तबके से भी नये नेता उभर रहे हैं। आज मध्यवर्ग और कस्बों के दायरे से बाहर भी निचले स्तर पर एक नयी जमीन तैयार हो रही है।
ऐसे में हमारे सामने चुनौती इन संस्थाओं को सशक्त बनाने की है। यह अभी तक स्पष्ट नहीं है कि मसौदा लोकपाल विधेयक सभी सवालों का समाधान कर देगा। निश्चित ही विचार - विमर्श के लिए एक से अधिक मसौदे भी प्रस्तुत किए जा सकते हैं। जो आंदोलन सरकार से पारदर्शिता की मांग करता हो, वह स्वयं पारदर्शिता से नहीं बच सकता।
सामाजिक आंदोलन जनता और सरकार के बीच की कड़ी बन सकते हैं। लोकतंत्र का संचालन सुगठित संस्थाओं और स्पष्ट प्रक्रियाओं से ही संभव है। इसलिये बिल और कानून की सियासत को छोड़ संस्थाओं के सशक्त बनाने की दिशा में काम हो और उस पर जनता की निगरानी हो।
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अमीर हो रहे हैं भारत के गरीब
हरिराम पाण्डेय
विश्व के 124 देशों की खुशहाली का पता लगाने के वास्ते लिये कराये गए एक सर्वेक्षण में भारत को 71 वां स्थान मिला हैं जहां केवल 17 प्रतिशत लोग ही अपने को सम्पन्न मानते हैं। गैलअप नाम की एक अमरीकी संस्था ओर से खुशहाली का पता लगाने के लिए किये सर्वेक्षणों को जोड़कर आये परिणामों के अनुसार 64 प्रतिशत भारतीय मानते हैं कि वे 'संघर्षरतÓ हैं जबकि 19 प्रतिशत मानते हैं कि वे 'कष्टÓ में हैं। दूसरी तरफ देश में गरीबी का अनुपात 2009-10 में घटकर 32 प्रतिशत पर आ गया है। योजना आयोग के शुरुआती अध्ययन में यह आंकड़ा सामने आया है। पांच साल पहले गरीबी का अनुपात 37.2 प्रतिशत था। यह अनुमान तेंदुलकर समिति द्वारा गरीबों का आंकड़ा निकालने के लिए सुझाये गए फार्मूले पर आधारित है। योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह आहलूवालिया ने बुधवार को कहा, ''2009-10 के आंकड़ों में गरीबी घटकर 2004-05 के 37.2 प्रतिशत से 32 फीसदी पर आ गई है। ÓÓ सरकारी आंकड़ों को ही यदि सही मान लें तो हमारे देश में लगभग 68 प्रीतशत लोग गरीब हैं। ये आंकड़े भी कम निराशाजनक नहीं हैं। देश के गरीब 20 रुपये रोजाना से कम पर गुजारा कर रहे हैं। पर सवाल यह है कि कौन सा आंकड़ा ज्यादा भरोसेमंद है और किस हद तक। कुछ महीने पहले एक अन्य रिपोर्ट में एन. सी. सक्सेना ने देश में गरीबों का आंकड़ा 50 फीसदी बताया था। इस मामले में विश्व बैंक के पास भी एक आंकड़ा है, जिसने देश में गरीबों की संख्या 42 फीसदी बताई गई है। निश्चित तौर पर ये सभी अनुमान उन पर आधारित हैं कि आप गरीबी रेखा के लिए कौन सा मानदंड अपनाते हैं। वर्तमान में सरकारी विधि में गरीबी रेखा के लिए खर्च को मानक बनाया है, इस बारे में तेंदुलकर का कहना है कि यह काफी कम था क्योंकि इसमें शिक्षा व स्वास्थ्य खर्च को शामिल नहीं किया गया था और इस वजह से उन्होंने इस लागत को इसमें जोड़ा है।
उन्होंने यह भी महसूस किया कि शहरी व ग्रामीण उपभोग के बीच अंतर वाला नियम पुराना पड़ गया है, लिहाजा उन्होंने दोनों जगह के लोगों के लिए एक सा उपभोग नियम इस्तेमाल करने का फैसला किया। इसके लिए उन्होंने निश्चित तौर पर अलग-अलग कीमतों को लिया ताकि वह लागत के अंतर पर प्रतिबिंबित हो सके।
उन्होंने गरीबी रेखा की बाबत 483.6 रुपये प्रति व्यक्ति प्रति माह खर्च पेश किया - 446.7 रुपये ग्रामीण इलाकों के लिए और 578.8 शहरी इलाकों के लिए - और इसी से गरीबी का उनका अनुमान सरकारी अनुमान 27.5 फीसदी के मुकाबले 37.2 फीसदी सुनिश्चित हुआ। विश्व बैंक का गरीबी रेखा खर्च का मानक तेंदुलकर के मुकाबले मामूली रूप से ज्यादा है और सक्सेना का मानक विश्व बैंक के मुकाबले ज्यादा है। खर्च के आंकड़़ों से अलग सक्सेना ने ग्रामीण इलाकों के लिए 700 रुपये की आय और शहरी इलाकों के लिए 1000 रुपये की आय को गरीबी के अनुमान के लिए आधार बनाया। ऐसे में गरीबी की रेखा जितनी ऊंची होगी देश में गरीबों की संख्या भी उतनी ही ज्यादा होगी। गरीबी रेखा के सही मानक के लिए रॉकेट साइंटिस्ट की जरूरत महसूस नहीं हुई है, लेकिन यह महत्त्वपूर्ण है। निश्चित तौर पर यह वहीं है जहां तेंदुलकर का आंकड़ा बिना किसी बाधा के सामने आया है और वह सरकारी 27.5 फीसदी के आंकड़ों के करीब है, जिसे वह बदलना चाहते हैं।यह सर्वे भी बताता है कि गरीबी के आंकड़े काफी ऊंचे हैं। एनसीएईआर के 2004-05 के आंकड़ों के मुताबिक, 30.5 फीसदी भारतीय - 35 फीसदी ग्रामीण भारत में और 19 फीसदी शहरी भारत में - के खर्च तेंदुलकर द्वारा पेश आंकड़ों से कम थे। महत्वपूर्ण रूप से यह तेंदुलकर के 37.2 फीसदी के आंकड़ों से कम है, ज्यादा महत्वपूर्ण है कि इनके पास किन चीजों का मालिकाना हक है।
ग्रामीण भारत के 13 घरों में से एक घर में दोपहिया वाहन है - शहरी इलाकों में यह बढ़कर पांच घरों में एक हो जाता है। ग्रामीण भारत में चार घरों में से एक में सीलिंग फैन है जबकि शहरी इलाकों में यह संख्या 10 में 7 की है।
ग्रामीण भारत में 20 घरों में से एक के पास रंगीन टेलीविजन है जबकि शहरी इलाकों में हर चार घरों में से एक में है (ब्लैक ऐंड व्हाइट के मामले में यह संख्या कई गुना बढ़ जाती है) - इसका मतलब यह हुआ कि वे ऐसे घरों में रहते हैं जहां बिजली की सुविधा है। दूसरे शब्दों में, ऐसे आंकड़े उस नजरिए पर प्रश्नचिह्न लगाते हैं कि ये घर गरीबी रेखा के नीचे हैं।
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Wednesday, April 20, 2011
मां बाप और सुख दुख
हरिराम पाण्डेय
जिंदगी मां के आँचल की गांठों जैसी है। गांठें खुलती जाती हैं। किसी में से दु:ख और किसी में से सुख निकलता है।
हम अपने दु:ख में और सुख में खोए रहते हैं। न तो मां का आँचल याद रहता है और न ही उन गांठों को खोलकर मां का वो चवन्नी अठन्नी देना।
याद नहीं रहती तो वो मां की थपकियां। चोट लगने पर मां की आंखों से झर झर बहते आंसू। कॉलेज से या काम पर से लौटने पर बिना पूछे वही बनाना जो पसंद हो। जाते समय पराठे, चूड़ा, नमकीन और न जाने कितने पैकटोंं में अपनी यादें निचोड़ कर डाल देना।
याद रहता है तो बस बूढ़े मां बाप का चिड़चिड़ाना। उनकी दवाईयों के बिल, उनकी बिमारी, उनकी झिड़कियां और हर बात पर उनकी बेजा सी लगने वाली सलाह।
आखिरी बार याद नहीं कब मां को फोन किया था। काम पर था तो यह कहते हुए काट दिया था कि बिजी हूं बाद में करता हूं। वह इंतजार करती रह गयी और थक कर सो गयी मोबाइल के स्क्रीन को देखते देखते। उसे पैसे चाहिए थे। पैसे थे भी, बैंक से निकालने की फुर्सत नहीं थी।
भूल गया था दसेक साल पहले हर चौथी तारीख को पापा नियम से पैसे दे देते थे। शायद ही कभी कहना पड़ा हो मां पैसे नहीं मिले।
शादी हो गई । बच्चे हो गए। नई गाड़ी और नया फ्लैट लेने की चिंता है। बॉस को खुश करना है। दोस्तों को पार्टी देनी है। बीवी को छुट्टियों पर गोवा लेकर जाना है।
मां बाप वैष्णो देवी जाने के लिए कई बार कह चुके हैं लेकिन फुर्सत कहां है। काम बहाना है। समय है लेकिन कौन मां के साथ सर खपाए। बोर कर देती है नसीहत दे देकर।
पापा इतने सवाल करते हैं कि पूछो मत। कौन इतने जवाब दे। सुबह देर से सो कर उठना मुहाल हो जाता है। अपने घर में ही छुपते रहो।
न जाने हमने कितने सवाल पूछे होंगे मां-बाप से, अभी बिटिया हमेशा सवाल पूछती रहती है दादा- दादी से लेकिन शायद ही कभी डांट भरा जवाब मिला हो।
लेकिन हमारे पास उन्हें देने के लिए कुछ नहीं है। हमारे बटुओं में सिर्फ झूठ है। गुस्सा है...अवसाद है... अपना बनावटी चिड़चिडापन है। उनकी गांठों में आज भी सुख है दु:ख है और हम खोलने जाएं तो हमारे लिए आशीर्वाद के अलावा और कुछ नहीं।
अगले दिनों में मदर्स डे है....साल में एक बार मदर्स डे के नाम पर ही एक बार मां के आंचल की गांठें खोलने की जरुरत सभी को होनी चाहिए।
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Thursday, April 14, 2011
समाधान का शार्टकट हमारी सबसे बड़ी कमजोरी
हरिराम पाण्डेय
किसी क्रांति की राह में अकादमिक पंडिताई के रोड़े अटकाना उद्देशिक गद्दारी कही जा सकती है। अपने देश में जब भी कोई बहस होती है तो लोग सबसे पहले समस्या के हल की मांग करते हैं। एक तरह से यह एक दम जायज भी है। अतएव हमें यह देखना है कि समस्या के चक्रव्यूह से हमें क्या- क्या हासिल हो सकता है। समस्या जितनी गंभीर होगी उसके हल की व्याकुलता उतनी ज्यादा होगी। लेकिन हम समाधान की पड़ताल में क्या देख रहे हैं? कई बार ऐसा होता है कि जिसे हम समाधान समझते हैं वह हमें अंधी गली के आखिरी सिरे पर ले जाकर छोड़ देता है। इसलिये जरूरी है कि उन पगडंडियों को न अपनाएं जिन्हें हम शार्टकट समझ कर समाधान के संधान के लिये अपनाते हैं। इसका सबसे पहला शार्टकट है जिसे हम आम तौर पर अपनाते हैं, वह है कि समस्या का एक ही केंद्र है और समाधान का आधार वह केंद्र ही है। उदाहरण के लिये भ्रष्टïाचार मिटाने के लिये जन लोकपाल के गठन से ही 90 प्रतिशत समस्याओं का समाधान हो जायेगा। दूसरी बात है कि समाधान हमेशा कारण से सम्बद्ध होना चाहिये ना कि लक्षण से। मौजूदा स्थिति में जितने भी उपाय हैं या जो कानून हैं वे सब भ्रष्टïाचार विरोधी हैं ना कि भ्रष्टïाचार निरोधी। यह गौर करने वाली बात है कि एक अच्छा कानून भ्रष्टïाचार को शत- प्रतिशत खत्म करने की गारंटी नहीं दे सकता पर एक गलत कानून इसके प्रसार की पूरी गारंटी है। कई बार समाधान प्रत्यक्ष नहीं परोक्ष होते हैं मसलन , किसी जरूरत की वस्तु को दुर्लभ बना कर मूल्य नियंत्रण कानून कठोर करना समस्या का हल नहीं हो सकता जबकि उस वस्तु को अत्यंत सुलभ बना देने से ही मूल्य नियंत्रण हो जायेगा फिर कानून की जरूरत ही नहीं है। किसी भी प्रभावशाली समाधान के लिए मानवीय गरिमा को नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिये। कई बार देखा गया है कि भ्रष्टïाचार मिटाने के उपाय उसे तो दूर नहीं करते जबकि स्थान और समय को बदल देते हैं। यहां तक कि चीन में भ्रष्टïाचार के लिये मृत्युदंड का प्रावधान है पर वहां भी भ्रष्टïाचार की प्रवृत्ति का समूल नाश नहीं किया जा सका है। आदतें अभी भी कायम हैं, प्रवृतियां कायम हैं। समाधान हमेशा बाहर से नहीं गढ़े जाते बल्कि उनका अंतरस्स्फुटन भी होता है। भ्रष्टïाचार सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तन से आसानी से दूर हो सकता है। अत: किसी भी समाधान की सफलता के लिये जरूरी है कि हमें उन दशाओं की पूरी जानकारी हो जिसके तहत वह समाधान कामयाब हो सकता है। कई समाधान केवल इसलिये फलीभूत नहीं होते कि उनके लिये उपयुक्त दशा वहां मौजूद है ही नहीं। किसी समाधान के बारे में हम सवाल पूछना ही भूल जाते हैं। हम यह नहीं समझते कि सुप्रीम कोर्ट के एक जज के लिये जो जरूरी है वह मीडिया या किसी पुलिस अधिकारी के लिये या प्रधानमंत्री के लिये जरूरी नहीं है। हमारे यहां समाधान की मांग के दौरान हम चाहते हैं कि कुछ होता हुआ दिखे, हम उपायों को प्राथमिकता नहीं देते। समाधान के कई पहलू ऐसे हैं जो लोगों को हैरान कर देते हैं। क्योंकि हम उपायों को लागू करने पर दबाव नहीं देते। हमें समाधान के दौरान समस्या के विभिन्न स्वरूपों पर ध्यान देना होगा। हमारे देश में लोग भ्रष्टïाचार के विभिन्न स्वरूपों पर ध्यान नहीं देते बल्कि उसके समाधान के लिये नारे लगाने लगते हैं। इसके स्वरूप विभिन्न हो सकते हैं इसलिये उसके समाधान भी अलग- अलग हो सकते हैं। इसके अलावा भ्रष्टïाचार सामाजिक मूल्यों के कारण भी पनपता है। शासन अक्सर सामाजिक मूल्यों का वाहक होता है और ऐसे में जाने अनजाने भ्रष्टïाचार को समाज में पनपने का मौका मिलता है। किसी भी लोकतंत्र में भ्रष्टïाचार केवल पैसों तक सीमित नहीं होता बल्कि वह कई गूढ़ अर्थों में भी सामने आता है। यहां तक कि हम अपना काम करने या करवाने के लिये किन साधनों का इस्तेमाल करते हैं। इसका मतलब यह नहीं होता कि कुछ हो नहीं सकता। कुछ लोग हैं जो उम्मीद का आंचल नहीं छोड़ते। उनके लिए यह दुनिया अटपटी जरूर है लेकिन उनके संदेहों और संकटों का निराकरण भी शायद इसी दुनिया में है। अगर हम सतयुग से इक्कीसवीं सदी के कलयुग तक आ पहुंचे हैं और अभी तक हमारा अस्तित्व और वर्चस्व बरकरार है तो इसका एक मात्र सीधा अर्थ यही होता है कि अभी सारी उम्मीदें खत्म नहीं हुई हैं। सिर्फ उन उम्मीदों तक पहुंचना है और इसमें सदाचार का ताबीज शायद कुछ मदद कर सके। वैसे ताबीजों और तमगों के भरोसे जंग नहीं जीती जाती और करने वाले भूदान और गोदान में भी घपला करते हैं लेकिन सब कुछ बुरा हो रहा है इसका अर्थ यह कतई नहीं है कि अच्छा होने की कल्पना से भी हम अपने आपको दूर कर लें।
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हवा निकल रही है अण्णा के आंदोलन की
हरिराम पाण्डेय
कई बार ऐसा होता है कि वर्जनाहीन सद्गुण लोकतंत्र को गुमराह कर देते हैं। अण्णा हजारे का आंदोलन इसी कड़वी सच्चाई का नमूना है। भ्रष्टïाचार के खिलाफ आंदोलन ने लोगों को बहुत ज्यादा विस्मित कर रहे थे। इस मामले में राजनीतिक नेताओं की जिद तो जनता के धैर्य को वजन किया करती है।
लोकपाल बिल को मजबूत बनाने और उसे तैयार करने के लिए बनायी गयी समिति में जनता के नुमाइंदे शामिल करने के लिए केंद्र को अनशन के जरिए मजबूर करने वाले हजारे से इन दिनों हर पार्टी और विचारधारा के लोग उम्मीद लगाये बैठे हैं। जो काम राजनीतिक पार्टियों को खुद करना चाहिए, उसके लिए ये पार्टियां 72 साल के अण्णा हजारे से गुजारिश कर रही हैं। लेकिन गुजरात में ग्राम्य विकास के लिए मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की तारीफ करना हजारे के सहयोगियों और समर्थकों को नागवार गुजर रहा है। सामाजिक कार्यकर्ता मेधा पाटकर, अरुणा रॉय, संदीप पांडेय और कविता श्रीवास्तव ने एक साझा बयान जारी कर हजारे द्वारा मोदी की तारीफ किए जाने की आलोचना की है। बयान में कहा गया है कि यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण और मंजूर करने लायक नहीं है। यह बयान नेशनल अलायंस ऑफ पीपल्स मूवमेंट (एनएपीएम) नाम के संगठन की ओर से जारी किया गया है। सामाजिक कार्यकर्ताओं के निशाने पर आए अण्णा हजारे ने एक ताजा बयान में कहा है कि उनका राजनीति से कोई लेना- देना नहीं और वे इस मामले में कोई पार्टी नहीं हैं। उन्होंने यह भी कहा है कि उनका अभियान सिर्फ भ्रष्टाचार के खिलाफ है। हजारे ने एक विज्ञप्ति जारी कर यह सफाई दी है।
लेकिन अण्णा की सफाई गुजरात के सामाजिक कार्यकर्ताओं के गले उतरती नहीं दिख रही है। जन लोकपाल बिल पर अण्णा के समर्थन में अनशन पर बैठने वाली मल्लिका साराभाई ने भी मोदी की तारीफ करने पर हजारे की आलोचना की है।
हालांकि अण्णा की भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम अभी समाप्त नहीं हुई है, इसका सिर्फ एक चरण समाप्त हुआ है। मगर, जिस चरण को सौ फीसदी कामयाब बताया और बड़े पैमाने पर माना जा रहा है, वह दरअसल कितना कामयाब है, इसके संकेत अभी से मिलने शुरू हो गए हैं। यहां मतलब बाबा रामदेव के उस आरोप से नहीं है जिससे वह पीछे हट चुके हैं। हालांकि एक समिति में बाप- बेटे को शामिल किए जाने संबंधी उस आरोप को उनके बाद बीजेपी ने उठा लिया है। लेकिन, फिर भी उसे तूल देने का खास मतलब नहीं है। असल समस्या है कि मौजूदा सरकार के वरिष्ठ मंत्री अब उस धारणा को बदलने की कोशिश में जुटे हैं जिसके मुताबिक सरकार ने अण्णा और उनकी सिविल सोसाइटी को जरूरत से ज्यादा भाव दे दिया है। यह राय प्रशासनिक और राजनीतिक तंत्र के अंदर बैठे उन लोगों की है जो इस तंत्र को चला रहे हैं। मंत्रियों की ये अटपटी बातें दरअसल उस तंत्र को सफाई देने की मात्र कोशिश है जो उनसे जवाब तलब कर रहा है कि आपने तंत्र के बाहरी लोगों को फैसले करने का अधिकार कैसे दे दिया? अगर ध्यान दें तो साफ हो जाता है कि परदे के पीछे इसमें सभी दलों के लोग शामिल हैं। अण्णा ने समिति की बैठकों की विडियोग्राफी कराने की जो मांग की, उसे सभी दलों ने मिलकर ठुकरा दिया है। यही वह बिंदु है जहां अण्णा हजारे के इस आंदोलन की लाचारी साफ हो जाती है। सवाल किसी एक कानून का है ही नहीं। हालांकि तंत्र की मर्जी के बगैर कोई कानून बनवाना भी आसान नहीं, लेकिन जैसे-तैसे कानून बनवा भी लिया जाय तो उससे खास फर्क नहीं पड़ेगा क्योंकि उस कानून को लागू करने की जिम्मेदारी तो इसी तंत्र को सौंपनी होगी। साफ है कि अगर आप स्थितियों को सचमुच बदलना चाहते हैं, उसे बेहतर बनाना चाहते हैं तो आज नहीं तो कल आपको मौजूदा तंत्र से टकराना ही होगा। इस मुख्य और बेहद कठिन लड़ाई से बचते हुए चोर दरवाजे से कोई सुधार करवा लेने और उस कथित सुधार के जरिए दुनिया बदल लेने का सोच बचपना नहीं तो और क्या है? अगर आज अण्णा के आंदोलन की ताकत नापनी है तो कल्पना करें कि देश की सभी लोकसभा सीटों पर अण्णा के लोगों को खड़ा कर दिया जाए तो क्या स्थिति रहेगी? पहला सवाल तो यही आएगा कि क्या उतने उम्मीदवार भी मिलेंगे अण्णा को? दूसरी बात खुद अण्णा मान चुके हैं कि अगर वह चुनाव लड़े तो उनकी जमानत जब्त हो जाएगी। यानी जिसे लोकतंत्र की सबसे अहम कसौटी माना जाता है, जिस कसौटी को हम देश चलाने की योग्यता का आधार मानते हैं वह ऐसी बेकार हो गयी है कि अपने समय के सबसे प्रामाणिक आंदोलन का सही मूल्यांकन नहीं कर सकती। उसे दो कौड़ी का बता देती है और जिन नेताओं को दो कौड़ी का होना चाहिए उन्हें देश चलाने के लायक बता देती है।
क्या इस सच्चाई को अनदेखा करके कोई आंदोलन आगे बढ़ सकता है? यह कहने से काम नहीं चलेगा कि अण्णा चुनाव सुधार की भी बात करते हैं, कि उन्होंने वोटिंग मशीन में इनमें से कोई नहीं का विकल्प देने की भी मांग की है। एक बार फिर, यह मांग वैसी ही उथली है जैसी कि जन लोकपाल बिल। सवाल वोटिंग मशीन के बटनों का नहीं है, उन ताकतों का है जो वोटरों को एक बोतल शराब पिलाकर या जाति और धर्म के इंजेक्शन लगाकर उनके वोट हथिया लेती हैं। इनसे टकराए बगैर सुधार के रास्ते पर आगे नहीं बढ़ा जा सकता। अम्बेडकर ने अनशन पर दिये गये अपने भाषण में कहा था कि 'ऐसे साधनों का उपयोग लोकतंत्र को अराजक बनाना है। Ó
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अन्ना का आंदोलन और सरकार की समरनीति
हरिराम पाण्डेय
दिल्ली में अन्ना हजारे के अनशन का उद्देश्य सरकार को झुकाना नहीं था, इसका एकमेव उद्देश्य था , उस भारतीय को जगाना, जो मु_ीभर नेताओं और उनके अनुचरों द्वारा इस देश की दौलत को लूटे जाने के दौरान उनींदा और अकर्मण्य हो चुका था। हजारे यह देखने के लिए प्रतीक्षा नहीं कर रहे थे कि कितने भ्रष्ट, पाखंडी मंत्री उनकी तरफ आते हैं। वे जानना चाहते थे कि कितने सारे अन्ना हजारे अपने घरों के सामने गली के नुक्कड़ पर उनकी तरह काम करना शुरू कर चुके हैं। उन्होंने एक ही सवाल पूछा था: हिंदुस्तानियो, क्या तुम्हारे पास विवेक है? लेकिन अब सवाल उठता है कि क्या भारतीयों के भीतर का विवेक जाग चुका है? गत नौ अप्रैल को सभी ने सुना और जाना कि भ्रष्टïाचार विरोधी कमेटी बनाने के लिये अन्ना की मांग को सरकार ने मान लिया और इसके फलस्वरूप अन्ना ने अपना आमरण अनशन तोड़ दिया। यह दरअसल सरकार और सामाजिक संगठनों में जोर आजमाइश के व्यवहार्य पक्ष की समाप्ति और समरनीतिक चरण की शुरुआत थी। पहले चरण में समाज जीता और सरकार पराजित हुई। मनमोहन सिंह की सरकार ने उन मांगों को इस लिये मान लिया कि चार दिनों में चक्रवात की शक्ल में बदल गये उस आंदोलन के अचानक आघात से उबर सके। इस आंदोलन में सामाजिक संगठनों और छात्र संगठनों के ऐसे गठबंधन की सरकार को उम्मीद नहीं थी। सरकार ने उन मांगों को इस लिये नहीं मान लिया कि वह उन्हें उचित मानती थी, बल्कि इसलिये मान लिया कि वह इस आंदोलन में निहित आश्चर्य के तत्व से निपट नहीं पा रही थी। सरकार के इस कदम के संभवत: दो कारण हो सकते हैं। पहला कि समाज और छात्रों के संगठनों का यह गठबंधन बहुत टिकाऊ नहीं होगा। दूसरा कि एक बार उसकी ऊर्जा बिखर गयी तो फिर से समेटना संभव नहीं हो सकेगा। मिस्र में इसका उदाहरण साफ दिख रहा है। अब यह सरकार के लिये बुद्धिमानी नहीं होगी कि वह इस आंदोलन के प्रभाव को खत्म होने का इंतजार करे अथवा गठबंधन को तोडऩे की साजिश में जुट जाए। अगर सरकार ऐसा करती है तो यह लाभदायक नहीं होगा। ऐसा होने के कई कारण हैं जैसे देश का शहरी वर्ग भ्रष्टïाचार और उससे निपटने में सरकार की नाकामयाबी से ऊब चुका था और बेहद गुस्से में था। अब यहां यह देखना है कि यह गुस्सा गांवों तक छितराया है अथवा नहीं। इसकी पड़ताल तमिलनाडु विधानसभा चुनाव के नतीजों से हो सकती है। यहां सवाल उठता है कि क्या भ्रष्टïाचार के खिलाफ जंग में केवल शहरी समुदाय की भागीदारी मिल सकती है? क्या इसमें गांवों की आबादी को शामिल होना जरूरी नहीं है? यह भविष्य में आंदोलन की दशा और दिशा पर निर्भर करता है। दूसरे कि आंदोलनकारी समूह का एक हिस्सा यह भी चाहता है कि केवल व्यक्तिगत भ्रष्टïाचार के मामलात में ही सजा नहीं हो बल्कि भ्रष्टïाचार निरोधी संस्थाओं को भी ज्यादा अधिकार मिले ताकि उनकी साख बढ़ सके। उधर हजारे का आंदोलन संस्थागत आधार तैयार करने के लिये था। अब यदि इसमें व्यक्तिगत भ्रष्टïाचार से उपजे गुस्से को मौका ना मिले तो बहुत जरूरी है कि एक वर्ग का इससे तालमेल खत्म हो जाय। अब सरकार के लिये यह जरूरी है कि वह भ्रष्टïाचार को समाप्त करने में अपनी तरफ से पहल शुरू कर दे और कमेटी के गठन की प्रतीक्षा ना करे। इस पहल में समाज के विभिन्न वर्गों और छात्रों के संगठनों को भी शामिल किया जाय। यहां यह ध्यान देने की बात है कि हजारे के नेतृत्व वाला मोर्चा तभी तक प्रभावकारी दिखायी देगा जब तक कानून नहीं बन जाता लेकिन सरकार की पहल स्थायी होगी और यही उसकी अंतिम रणनीति होनी चाहिये।
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Tuesday, April 12, 2011
सन्मार्ग : 65 साल का लम्बा सफर
हरिराम पाण्डेय
आज रामनवमी है यानी भगवान श्रीराम का जन्मदिन। भगवान श्रीराम के जन्मदिन को केन्द्रित कर आजके ही दिन 'सन्मार्गÓ की स्थापना की गयी थी। उद्देश्य था भारतीय संस्कृति के सुपथ पर लोगों को चलने के लिये प्रेरित करना- 'सन्मार्ग एव सर्वत्र पूज्यते नापथ: क्वचितÓ। आज सन्मार्ग का स्थापना दिवस है और जरूरी है कि हम अतीत में झांकें तथा इस तथ्य की पड़ताल करें कि हमने लक्ष्यों को कितनी हद तक प्राप्त कर लिया है और उस समय के किये गये हमारे फैसले कितने अधूरे हैं। आज के बदलते समय में हमें इस बात की भी चिंता है कि आरंभिक काल में हमने जो फैसले लिये क्या वे सही और तर्क संगत थे। क्या आज की रोशनी में हम उन्हें बदल कर एक नयी दिशा निर्धारित कर सकते हैं? हमें यह देखना ज्यादा जरूरी नहीं कि हम अपने कर्म में कितने कामयाब हो सके बल्कि यह जरूरी है कि वे कर्म कितने सच और सही थे। सन्मार्ग उस वक्त शुरू हुआ जब समाज आंदोलन के उत्कर्ष पर था और लक्ष्य था हर क्षेत्र में स्वाधीनता। सन्मार्ग को स्थापित करने वाले मनीषियों ने तय किया कि हमारा लक्ष्य होगा चिंतन, कर्म और व्यवस्था को उन्हीं जातीय मर्यादाओं से जोडऩा जो दो सौ वर्षों के अंग्रेजी शासन काल में भ्रष्टï और दूषित हो चुकी थीं। हमारे स्वतंत्र कर्म और चिंतन को जिन वर्जनाओं ने दो सौ वर्षों तक अवरुद्ध कर रखा था उन वर्जनाओं को भंग करने के लिये एक सांस्कृतिक वातावरण तैयार करना। लेकिन आजादी के बाद हमारी अध्यात्मिक अवस्था और व्यावहारिक कार्य प्रणाली को हमारी लोकतांत्रिक संस्थाओं, व्यवस्था और शिक्षण प्रणाली ने दूषित कर दिया। यह स्वयं में एक भयावह दुर्घटना थी। आज हमारे सामने सबसे बड़ी चुनौती है कि हम इस दुर्घटना के कारण फैली देशव्यापी निराशा का विश्लेषण करें, एक निर्मम आत्मविश्लेषण कर लें। इसकी शुरुआत एक सपाट प्रश्न से की जा सकती है कि क्या एक भारतीय होने के नाते हमारे भीतर अपने देश से कोई लगाव बाकी रह गया है? बार- बार सोचने पर एक ही उत्तर मिलता है- नहीं। क्योंकि अब तक हम यह साहस नहीं जुटा पाये कि पश्चिमी बौद्धिक दासता से मुक्त होकर सोच- समझ के अपने औजार विकसित कर सकें और युवा पीढ़ी को अपनी आध्यात्मिक और सांस्कृतिक मनीषा के अनुरूप दीक्षित कर सकें। देश के प्रति लगाव की यह सार्वभौमिक उपस्थिति हमारे स्वतंत्रता संग्राम को एक नैतिक आयाम देती थी। आज उसका अभाव हो गया है। उस अभाव को ढंकने के लिये हम आत्म प्रदर्शन और आडम्बर का रास्ता अपनाते हैं। आज हमारा देश एक तरफ प्रकृति के विनाश और दूसरे छोर पर स्मृतियों के बीच झूल रहा है। इन दोनों को बचाना हमारे जीवन की सबसे बड़ी चुनौती है। सन्मार्ग को आरंभ करने वाले मनीषियों ने यही लक्ष्य तय किया था। सन्मार्ग आज भी उसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिये प्रतिज्ञाबद्ध है। अब सवाल उठता है कि हमने वह लक्ष्य कहां तक पूरा किया? यहां यह स्पष्टï कर देना उचित होगा कि यह प्रतिज्ञा केवल व्यापक सभ्यता बोध के भीतर ही पूरी हो सकती है। भारत की भौगोलिक एकता केवल ऐसे परम्पराबोध में ही अर्थवान हो सकी है, जहां अनेक संस्कृतियां और धर्म-सम्प्रदाय सदियों से एक दूसरे से प्रेरणा पाते रहे हैं। दुनिया में भारत ही एक ऐसा देश है जिसकी राष्टï्रीय अस्मिता दूसरों के विनाश से नहीं अपनी सभ्यता के विविध चरित्र से बनी है। हमसे अभागा कौन होगा जो आधुनिकता की रौ में भारतीय सभ्यता की इस अनमोल निधि को नष्टï कर दे रहे हैं। हमारी कोशिश है कि इस निधि को बचाने के लिये लोगों के भीतर एक जज्बा कायम कर दें। हम यह गर्व से कह सकते हैं कि देश के अपने दस लाख पाठकों के भीतर सभ्यताबोध की इस ज्योति को जगाने में हम बहुत हद तक कामयाब रहे हैं और इस सफलता की व्यापकता में प्रसार हो रहा है। 65 वर्ष पूर्व जब सन्मार्ग ने यह सफर शुरू किया था तो हालात ऐसे नहीं थे। पर हमारे मनीषियों ने ऐसा नहीं कहा कि 'जदि तोमार डाक सुने केउ ना आसे तबे एकला चोलो रे।Ó उन्हें तो भरोसा था 'नमोऽस्तु रामाय सलक्ष्मणाय देव्यै च तस्यै जनकात्मजायै नमोऽस्तुरुद्रेंद्रयमानिलेभ्यो नमोऽस्तुचंद्रार्कमरुद्गणेभ्य:Ó जैसे मंत्र पर। यह मंत्र किसी को पुकारने के लिये नहीं अकेले लक्ष्य संधान के लिये निकल पडऩे की प्रेरणा देता है। क्योंकि यहां लक्ष्य एक साधन है, साध्य नहीं। उस साधन की उपलब्धि के बाद साध्य तो स्वमेव सध जायेगा। ... और वे इस सफर पर निकल पड़े।
'मैं अकेला ही चला था जानिबे मंजिल मगर
लोग आते ही गये औ कारवां बनता गयाÓ
65 वर्ष के मील पत्थर पर जब हम खड़े होकर पथ का विहंगावलोकन करते हैं तो चप्पे-चप्पे पर हमारे सुधी पाठकों, विज्ञापनदाताओं और हितैषियों की मौजूदगी दिखायी पड़ती है। हम आज भी उनके आभारी हैं।
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अण्णा जीते पर करेंगे क्या?
हरिराम पाण्डेय
अण्णा हजारे ने अनशन तोड़ दिया। सरकार झुक गयी और उनकी मांगों को मान लिया। कुछ लोगों ने इसे 1968 की पुनरावृत्ति बतायी किसी ने जेपी आंदोलन का आगाज कहा लेकिन जिन लोगों ने इन आंदोलन में जनता के गुस्से का ताप नहीं देखा उसे सुन- पढ़ कर महसूस किया उन्हें अण्णा हजारे के अनशन से हुआ आंदोलन एक खास किस्म की कैथारसिस की तरह लगा, एक ऐसी क्रांति की भांति या एक ऐसे तूफान की तरह लगा जो भ्रष्टïाचारी राजनीतिक वर्ग को उखाड़ कर ऐसे लोगों के हाथों में सत्ता सौंप देगा जिन्हें आम आदमी की पीड़ा, उसकी मुश्किलें और उसकी भूख का अहसास है और उससे वे खुद को पीडि़त महसूस करते हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात है कि इस आंदोलन में वह कौन सी ऊर्जा थी जिसने पूर्व सैनिकों, रिक्शा चलाने वालों के संगठनों, छात्रों, बुद्धिजीवियों और यहां तक कि कॉरपोरेट दुनिया के शहंशाहों को आपस में जोड़ दिया था। वह एक मनोस्थिति थी। सब के सब किसी ना किसी रूप में राजनीति के 'रावणोंÓ के हाथों में अपमानित महसूस कर रहे थे और अपनी बेचारगी को लेकर भारी गुस्से में थे। सरकार को घुटनों पर ला देना और लोकपाल विधेयक में संशोधन के लिये मंजूर कर देने से उन्हें संतोष मिला। यही वह संतोष वह ऊर्जा थी। यह आंदोलन भ्रष्टïाचार के खिलाफ एक जोरदार हस्तक्षेप था। इसमें कोई शक नहीं है कि अब तक भ्रष्टïाचार के खिलाफ जितने भी कानून बनाये गये सबमें कुछ ऐसे घुमावदार कूचे थे जहां से कोई भी अपराधी बच कर निकल आये, लेकिन इस आंदोलन ने अपनी मांगों के कारण अपने भीतर के अंगारों के पुंज को बिखरा दिया। आखिर समाज क्या है और एक दूसरे को खरी खोटी सुनाने का विशेषाधिकार क्या होता है। इन नेताओं के साथ बस एक ही सुविधा है कि वे जिन लोगों का प्रतिनिधित्व करते हैं उन्होंने एक स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव में उन्हें चुना है। अगर हमारा लोकतंत्र सही नहीं है तो लोकऊर्जा का उपयोग उसे सही बनाने में किया जाना चाहिये, न कि इसे खारिज करने में और कुछ स्वयंभू स्वयंसेवकों की मदद से इसे बदलने में। एकबार अमर कथाकार उपन्यासकार मुंशी प्रेमचंद ने कहा था कि आज जॉन की जगह कल किसी गोविंद को इस कुर्सी पर बिठा दिया जाय तो क्या बदलेगा। अतएव सबसे पहले इंसान नहीं सत्ता के उन तंत्रों को बदलना होगा जिनके माध्यम से सत्ता चलती है। बेशक इस सरकार ने लोकतांत्रिक व्यवस्था में अनिर्वाचित लोगों को सत्ता के उपादानों में शामिल किया और उन शामिल हुए लोगों को यह मुगालता हो गया कि वे निर्वाचित लोगों से ज्यादा महत्वपूर्ण हैं इस लोकतंत्र के लिये। लेकिन समस्त राजनीतिक वर्ग की इस तरह आम भत्र्सना जैसी कि हजारे ने अपने अनशन के दौरान की और ऐसे कार्य के लिये देश के जनमानस को तैयार किया, वह व्यर्थ और खतरनाक भी है। क्योंकि हमारे प्रतिनिधि ठीक वैसे ही हैं जैसा कि हमारा समाज है। दरअसल राजनीति का विरोध अक्सर राजनीति के लिये आड़ बन जाता है। एडमंड ब्रुक ने लिखा है कि 'सियासत और संसद के प्रति सिनिक भाव किसी को भी उन संस्थाओं के बारे में गलत सोचने का जरिया देता है जिन्हें लोग सम्मान करते आये हैं और खुद को एक आजाद इंसान समझनेवाले भावों से दूर होते जाते हैं।Ó जो लोग लम्बी राजनीतिक प्रक्रिया का चुटकियों में समाधान करते हैं दरअसल वे विकल्प का सत्यानाश कर देते हैं। वे यह महसूस कर सकते हैं कि हमारी ढेर सारी समस्याओं का समाधान अपनी लोकतांत्रिक समस्याओं को ज्यादा ताकतवर बनाने , उन्हें पारदर्शी बनाने और जवाबदेह बनाने में है ना कि उन्हें बदलने या उनके समानांतर एक नयी व्यवस्था को आरंभ करने में है।
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Saturday, April 9, 2011
अन्ना का अनशन : आसार आशाजनक नही
हरिराम पाण्डेय
अन्ना हजारे के अनशन से देश में उम्मीदें जाग गयी हैं और लोग सवाल पूछ रहे हैं कि क्या सचमुच ऐसा कोई विधेयक बनेगा, नहीं बना तो क्या होगा, यदि अन्ना के अनशन ने लोगों में क्रांति की ज्वाला भड़का दी तो क्या यहां भी मिस्र, अरब और लीबिया की तरह आंदोलन होंगे? माहौल पूरा है। थोड़ा दिल्ली के जंतर मंतर पर, थोड़ा इधर-उधर के शहरों में और सबसे ज्यादा टेलीविजन के स्क्रीनों पर। अखबारों ने भी माहौल बनाने की पूरी कोशिश की है। लेकिन, जो काम इस अभियान के शुभचिंतकों को करना चाहिये वह ढंग से होता नहीं दिख रहा। मुहिम का शोर तो बहुत हो रहा है, लेकिन इसे ज्यादा मजबूत, ज्यादा कारगर, ज्यादा तर्कसंगत बनाने की कोशिश कम से कम सार्वजनिक मंचों पर अपवादस्वरूप ही दिख रही है। चूंकि अन्ना हजारे का कोई निजी स्वार्थ नहीं है और सार्वजनिक कल्याण के भाव से सबके हित को देखते हुए उन्होंने यह अनशन शुरू किया है, इसलिए निश्चित तौर पर खुद अन्ना भी ऐसी किसी कोशिश का समर्थन ही करेंगे। परंतु, यही बात उनके उन उत्साही समर्थकों के बारे में नहीं कही जा सकती, जो इस मुहिम का शोर मचाते हुए इसके लिए जीने-मरने का खोखला एलान करने को ही सफलता की गारंटी समझ बैठे हैं। बहुत संभव है कि ऐसी किसी कोशिश को ये उत्साही समर्थक मुहिम के विरोध के रूप में लें और ऐसा करने वालों को विरोधी खेमे का करार दें। यही कारण है कि जो लोग अन्ना हजारे के आमरण अनशन के समर्थन में निकल रहे हैं उनकी संख्या अभी हजारों में भी नहीं पहुंची है। हमारी आबादी के नये आंकड़े अभी-अभी आए हैं। एक अरब 21 करोड़ यानी लगभग सवा अरब। इस सवा अरब लोगों में से अभी कुछ हजार लोग भी जंतर मंतर या इंडिया गेट पर इक_े नहीं हो रहे हैं। मिस्र की आबादी से तुलना करके देखें, वहां की कुल आबादी है आठ करोड़ से भी कम। यानी अपने आंध्र प्रदेश की आबादी से भी कम। लेकिन वहाँ तहरीर चौक पर एकबारगी लाखों-लाखों लोग इक_े होते रहे। उन्हें वहां इक_ा करने के लिए किसी नेता की जरूरत नहीं पड़ी। वे खुद वहां आये क्योंकि उन्हें लगा कि परिवर्तन उनकी अपनी जरूरत है। भारत की जनता के लिए अन्ना को आमरण अनशन पर बैठना पड़ा है। फिर भी इक_े हो रहे हैं कुछ सौ लोग। दिल्ली में ही एक करोड़ से ज़्यादा लोग रहते हैं और जितने लोग इक_े हो रहे हैं वो तो बहुत ज्यादा नहीं हैं, तो क्या अभी लोगों को भ्रष्टाचार अपना मुद्दा नहीं लगता? इसका भी एक पुख्ता कारण है। यह हमारा सामाजिक कारण है। हमारी धार्मिक और सामाजिक व्यवस्था में कभी इस तरह की कोई आचार संहिता ही नहीं रही जहां भ्रष्टïाचार को गलत बताया गया हो। जब तक इंसान अपने विवेक से यह फैसला नहीं लेता कि क्या सही है और क्या गलत, तब तक यह सब रुक भी नहीं सकता। हमारी रोजमर्रा की जिंदगी में छोटी-छोटी जरूरतों के लिए किया गया भ्रष्टïाचार हमारी आदतों में आ गया है। हम जब तक इसे आदत के रूप में न देखकर भ्रष्टïाचार के रूप में देखेंगे तब तक इससे बाहर नहीं निकल सकते।
जिस देश में अधिसंख्य जनता सहमत है कि देश में भ्रष्टाचार असहनीय सीमा तक जा पहुँचा है। सब कह रहे हैं कि नौकरशाहों से लेकर राजनेता तक और यहाँ तक न्यायाधीश तक भ्रष्टाचार में लिप्त हैं। हर कोई हामी भर रहा है कि इन राजनेताओं को देश की चिंता नहीं।
भ्रष्टाचार के आंकड़ों में अब इतने शून्य लगने लगे हैं कि उतनी राशि का सपना भी इस देश के आम आदमी को नहीं आता। उस देश में जनता इंतजार कर रही है कि इससे निपटने की पहल कोई और करेगा। अन्ना ने एक लहर जरूर पैदा की है। भारत का उच्च वर्ग तो वैसे भी घर से नहीं निकलता। ज़्यादातर वह वोट भी नहीं देता। गरीब तबका इतना गरीब है कि वह अपनी रोजी- रोटी का जुगाड़ एक दिन के लिए भी नहीं छोड़ सकता। बचा मध्य वर्ग। भारत का सबसे बड़ा वर्ग। और वह धीरे-धीरे इतना तटस्थ हो गया है कि डर लगने लगा है। सरकार के रवैये से दिख रहा है कि वह देर-सबेर, थोड़ा जोड़-घटाकर लोकपाल विधेयक तैयार करने में अन्ना हजारे की मांग स्वीकार कर लेगी।
जिस दिन अन्ना हजारे का अनशन खत्म हो जाएगा पता नहीं इन सवा अरब बेचारों का क्या होगा। क्योंकि डर है कि यह अभियान अपनी भीतरी कमजोरियों से ही नाकामयाब न हो जाय। क्योंकि इस आंदोलन की सबसे बड़ी ताकत अगर अन्ना की निष्पक्ष और ईमानदार छवि है तो इसकी सबसे बड़ी कमजोरी इसका अराजनीतिक चरित्र है। ध्यान दें कि राजनीति का मतलब किसी खास दल से जुड़ाव ही नहीं है। अगर यह आंदोलन मौजूदा सभी राजनीतिक दलों को खारिज करता है और खुद को उन सबसे अलग रखता है तो यह बहुत अच्छी बात है। लेकिन, अगर यह राजनीति मात्र को अपने एजेंडे से बाहर रखता है तो इसका मतलब यह जाने-अनजाने खुद को और लोगों को भुलावे में रख रहा है। यही इस आंदोलन का सबसे कमजोर पक्ष है और इसी वजह से इसका असफल हो जाना लगभग तय है।
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Friday, April 8, 2011
गांधी और उनपर लिखी किताब
hariram pandey
हालांकि, इस तरह के आलेख इस स्तम्भ में और खास कर आज की स्थिति में समीचीन नहीं कहा जायेगा पर आम भारतीय महात्मा गांधी को अपने पुरखों के तुल्य मानता है और कोई अपने चश्मे और अपनी सभ्यता से उद्भूत संस्कारों के आधार पर गांधी को अपमानित कर आर्थिक लाभ प्राप्त करने का प्रयास करता है तो विरोध होगा। गांधी पर नयी किताब का नाम है 'ग्रेट सोल : महात्मा गांधी ऐंड हिज स्ट्रगल विद इंडिया।Ó इस पुस्तक को जोजेफ लेलीवाल्ड ने लिखी हे। जोजेफ पेशे से पत्रकार हैं। इस किताब में जोजेफ ने गांधी के यौन जीवन के बारे में कई भ्रामक बातें कहीं हैं। बापू पर यौन विकृति के उनके इल्जामों पर मचे हंगामे, गुजरात में किताब पर लगी बैन और पूरे देश में उठ रही ऐसी मांगों ने अच्छे बिजनेस की गारंटी कर दी है। असल बात है कि ये बेअसर रहने वाले हैं, क्योंकि बड़े नेताओं, खासकर गांधी को लेकर दुनिया की दीवानगी कम होने वाली नहीं है। वह एक ऐसी शख्सियत हैं, जिनमें दुनिया की सबसे सनसनीखेज रहस्यकथा, सबसे दिलचस्प रोमांटिक ड्रामे और सबसे प्रेरणादायक जीवनी के रेडिमेड प्लॉट मौजूद हैं। कोई भी इनमें से किसी एक या सभी पर अपनी कलम लेकर टूट पड़ सकता है। कामयाबी लगभग पक्की है। सोचिए, इंसानियत के इतिहास में दूसरा कौन हुआ है, जिसने कामयाब करियर के बीच में महात्मा बनने की ठान ली हो, दुनिया के शौकों को छोडऩा शुरू कर दिया हो, अकेले दम पर एक बगावत की शुरुआत की हो, अधनंगे रहते हुए दुनिया की सबसे बड़ी साम्राज्यवादी ताकत को निहत्थे खदेड़ दिया हो, इंसानियत के मौलिक मूल्यों की मिसाल पेश की हो और अपनी यौन इच्छा के साथ प्रयोगों से दुनिया को चौंकाया ही न हो, उसका किस्सा खुलेआम दुनिया को सुना भी दिया हो?
इसलिए लेखक और कलाकार गांधी को आसानी से बख्शने वाले नहीं हैं। गांधी दुनियावी तौर पर सबसे कामयाब लोगों में हैं - सबसे जबर्दस्त क्रांतिकारी, जिनका स्टाइल किसी भी दूसरे नायक, मसलन चे ग्वेरा, लेनिन, माओ से अलग है। उनकी गिनती सबसे बड़ी आध्यात्मिक हस्तियों में भी की जा सकती है, लेकिन वह दयानंद या रामकृष्ण भी नहीं हैं। जो बात उन पर लिखने वालों को सबसे ज्यादा हैरतअंगेज लगती है, वह ब्रह्मचर्य के साथ उनके प्रयोग हैं। भारतीय पद्धति में वासनाओं को मिटा देना (चित्तवृत्ति निरोध) ईश्वर से मिलने के रास्ते (योग) की पहली शर्त है।
'द ग्रेट सोलÓ पर भारत के कुछ हिस्सों में प्रतिबंध लगाने का निर्णय वास्तव में पुस्तक के आधार पर नहीं, बल्कि उन ब्रिटिशर्स की पक्षपातपूर्ण व्याख्याओं के आधार पर लिया गया था, जो अभी तक अपने साम्राज्य के पतन को स्वीकार नहीं कर पाये हैं। लेलीवेल्ड ने अपने निष्कर्ष कालभ्रम के आधार पर निकाले हैं, जिसमें सौ वर्ष पूर्व की एक मित्रता को आज के एक प्रगतिशील न्यूयॉर्कर के चश्मे से देखने की प्रवृत्ति झलकती है। लेलीवेल्ड ने अतीत के लिखित साक्ष्यों के आधार पर अनुभव किया कि उन्हें यह निष्कर्ष निकालने का विशेषाधिकार है। अहमदाबाद में कोई व्यक्ति उन्हें बताता है कि कालेनबाख और गांधी 'कपलÓ थे, ऑस्ट्रेलिया में कोई व्यक्ति उनके संबंधों को 'होमोइरोटिकÓ बताता है। उनके द्वारा यह कहना कि 'गांधी अपनी पत्नी को छोड़कर उसके साथ रहने चले गए थेÓ तो और भी लचर सूचना है। तथ्य यह है कि ट्रांसवाल के भारतीयों को संगठित करने के लिए गांधी का वहां रहना जरूरी था। इस दौरान कस्तूरबा और उनके बेटे नाटाल स्थित उनके आश्रम में थे, जहां गांधी समय-समय पर उनसे मिलने आया करते थे। कालेनबाख से अपने संबंध के बारे में स्वयं गांधी ने कहा है कि उनका रिश्ता दो भाइयों जैसा था। जब वे एक ही स्थान पर रहते थे, तब गांधी के साथ ही कालेनबाख ने भी ब्रह्मचर्य का संकल्प लिया था। हालांकि बाद में कालेनबाख अपने ब्रह्मचर्य के संकल्प का पालन नहीं कर पाये थे और उन्होंने एक महिला से संबंध स्थापित किया था। लेलीवेल्ड ने अपनी किताब में इसका उल्लेख नहीं किया है या संभव है कि वे इस बारे में जानते ही न हों। लेलीवेल्ड को एक तरफ प्रतिक्रियावादी ब्रिटिश पत्रकारों और दूसरी तरफ उन अवसरवादी भारतीय राजनेताओं का दयनीय शिकार माना जाना चाहिए, जो महात्मा के आदर्शों का पालन करने में अपनी विफलता को उनकी स्मृति के प्रति आस्था प्रदर्शित करने के दावों में छुपाने की कोशिश कर रहे हैं। सेक्स बिकता है। उसमें फौरन हिट हो जाने की काबिलियत है। लेकिन आमतौर पर सेक्स में आपको ज्यादा-से-ज्यादा क्या मिल सकता है? बर्लुस्कोनी। एक महात्मा मिल जाए तो क्या कहने! पिछले साल जेड एडम्स की जो किताब आयी थी, उसका नाम क्या था - 'गांधी : नेकेड एंबिशंसÓ इससे गांधी को क्या फर्क पड़ता है। पडऩा होता तो बरसों पहले पड़ गया होता। आखिर अपनी कहानी वह खुद ही कह गये थे। उसमें से कुछ दबा-छिपा कोई ईजाद कर भी ले तो क्या होगा?
इस पुस्तक को लेकर भारतीय राष्ट्रवाद की परिपक्वता और भारतीय लोकतंत्र की विश्वसनीयता दांव पर है। क्या हमारे राष्ट्र नायक इतने दुर्बल हैं कि हमें उनकी रक्षा करने के लिए देशप्रेम का दिखावा करने वालों की जरूरत है? क्या हमारा लोकतंत्र इतना भंगुर है कि हम व्यक्तियों और घटनाओं पर किसी मुक्त बहस के लिए स्थान नहीं बना सकते? लेलीवेल्ड प्रकरण ने हमारे राष्ट्रीय राजनेताओं मनमोहन सिंह, सोनिया गांधी, लाल कृष्ण आडवाणी, सुषमा स्वराज, प्रकाश करात सभी के समक्ष परीक्षा की घड़ी प्रस्तुत की है। विचारों पर प्रतिबंध की कोशिशें हमारे लोकतांत्रिक दावों के समक्ष चुनौतियां खड़ी करती हैं।
Gandhi 'left his wife to live with a male lover' new book claims
By Daniel Bates
Last updated at 1:02 AM on 28th March 2011
Mahatma Gandhi was bisexual and left his wife to live with a German-Jewish bodybuilder, a controversial biography has claimed.
The leader of the Indian independence movement is said to have been deeply in love with Hermann Kallenbach.
He allegedly told him: ‘How completely you have taken possession of my body. This is slavery with a vengeance.’
Lovers? Gandhi and Kallenbach sit alongside a female companion. A new book has controversially said that the pair had a two-year relationship between 1908 and 1910
Lovers? Gandhi and Kallenbach sit alongside a female companion. A new book has controversially said that the pair had a two-year relationship between 1908 and 1910
Kallenbach was born in Germany but emigrated to South Africa where he became a wealthy architect.
Gandhi was working there and Kallenbach became one of his closest disciples. .
The pair lived together for two years in a house Kallenbach built in South Africa and pledged to give one another ‘more love, and yet more love . . . such love as they hope the world has not yet seen.’
Controversial: The new book outlines many details of Gandhi's sexual behaviour, including allegations he slept with his great niece
Controversial: The new book outlines many details of Gandhi's sexual behaviour, including allegations he slept with his great niece
The extraordinary claims were made in a new biography by author Joseph Lelyveld called ‘Great Soul: Mahatma Gandhi And His Struggle With India’ which details the extent of his relationship with Kallenbach like never before.
At the age of 13 Gandhi had been married to 14-year-old Kasturbai Makhanji, but after four children together they split in 1908 so he could be with Kallenbach, the book says.
At one point he wrote to the German: ‘Your portrait (the only one) stands on my mantelpiece in my bedroom. The mantelpiece is opposite to the bed.’
Although it is not clear why, Gandhi wrote that vaseline and cotton wool were a ‘constant reminder’ of Kallenbach.
He nicknamed himself ‘Upper House’ and his lover ‘Lower House’ and he vowed to make Kallenbach promise not to ‘look lustfully upon any woman’.
‘I cannot imagine a thing as ugly as the intercourse of men and women,’ he later told him.
They were separated in 1914 when Gandhi went back to India – Kallenbach was not allowed into India because of the First World War, after which they stayed in touch by letter.
As late as 1933 he wrote a letter telling of his unending desire and branding his ex-wife ‘the most venomous woman I have met’.
Lelyveld’s book goes beyond the myth to paint a very different picture of Gandhi’s private life and makes astonishing claims about his sexuality.
Revolutionary: The claims made in the book are likely to be disputed by millions of Gandhi's followers across the globe
Revolutionary: The claims made in the book are likely to be disputed by millions of Gandhi's followers across the globe
It details how even in his 70s he regularly slept with his 17-year-old great niece Manu and and other women but tried to not to become sexually excited.
He once told a woman: ‘Despite my best efforts, the organ remained aroused. It was an altogether strange and shameful experience.’
The biography also details one instance in which he forced Manu to walk through a part of the jungle where sexual assaults had in the past taken place just to fetch a pumice stone for him he liked to use to clean his feet.
She returned with tears in her eyes but Gandhi just ‘cackled’ and said: ‘If some ruffian had carried you off and you had met your death courageously, my heart would have danced with joy.’
The revelations about Gandhi are likely to be deeply contested by his millions of followers around the world for whom he is revered with almost God-like status.
Nobody from the Indian High Commission to Britain was available for comment.
Read more: http://www.dailymail.co.uk/news/article-1370554/Gandhi-left-wife-live-male-lover-new-book-claims.html#ixzz1Iz8BrJfF
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Wednesday, April 6, 2011
अन्ना हजारे का साथ देना जरूरी
हरिराम पाण्डेय
अभी क्रिकेट का खुमार कायम था और शनिवार को वल्र्ड कप जीतने के बाद जश्न का सम्मोहन आंखों में ही बसा था कि अन्ना हजारे ने सब कबाड़ा कर दिया। भ्रष्टïाचार के खिलाफ उन्होंने जंग छेड़ दी। जन लोकपाल विधेयक की मांग को लेकर अनशन पर बैठ गये। अब इस देश में भ्रष्टïाचार भी कोई मुद्दा है कि इसे लेकर अनशन किया जाय। अगर यह सच है तो भी हमें इस मसले पर बात करने में और अन्ना का साथ देने में हिचकना नहीं चाहिये। हमें इसके खिलाफ और ताकत से आगे आना चाहिए। देश को घुन की तरह खा रहा भ्रष्टाचार, हर व्यक्ति के लिए बड़ा मुद्दा है और ऐसा पहले कभी नहीं हुआ। यही वह समय है, जब कोशिश की जाए तो भ्रष्टïाचार के खिलाफ असरदार कानून बनाया जा सकता है, क्योंकि इस वक्त कोई राजनीतिक दल, जनता के गुस्से के डर से, इसका विरोध करने की हिम्मत नहीं जुटा पाएगा। भ्रष्टाचारी भी तो यही चाहते हैं कि लोग भ्रष्टïाचार की बातों के प्रति उदासीन हो जाएं और सब कुछ भुला दें तो वे देश को लूटने के अपने धंधे में दोबारा लग जाएं। यहां एक सवाल है कि भ्रष्टïाचार निरोधी एजेंसियां कितनी कारगर हैं? क्या सीबीआई को इतनी आजादी है कि वह ऊंचे ओहदों पर बैठे लोगों के भ्रष्ट आचरण पर कार्रवाई कर सके? या फिर क्या सीवीसी के पास भ्रष्टाचार से लडऩे की ताकत है? या फिर भ्रष्टïाचार कंट्रोल में मीडिया की भूमिका क्या है? अब बात आती है प्रस्तावित लोकपाल विधेयक पर या उसके प्रावधानों पर। इस विधेयक में कहा गया है कि नौकरशाही सीवीसी के न्याय क्षेत्र में हो और राजनीतिज्ञ, लोकपाल के। यह विधेयक न्यायपालिका पर कुछ नहीं कहता। जिस बात के लिये अभी आंदोलन शुरू हुआ है उसमें मांग की गयी है कि ये तीनों अंग नये लोकपाल के न्यायक्षेत्र में हों। कारण कि भ्रष्टाचार के मामलों में नौकरशाही और राजनीतिज्ञ मिले हुए होते हैं। वैसे भी किसी केस में जांच के दौरान इससे केवल विभ्रम होगा और अलग-अलग एजेंसियों के जांच नतीजे अलग हुए तो कोर्ट में इसे नहीं माना जाएगा।
शक है कि जिन लोगों ने यह विधेयक बनाया है, वे भी आखिरकार इसी विभ्रम को बरकरार रखना चाहते होंगे। मौजूदा विधेयक में लोकपाल के पास केवल सलाह देने की पावर होगी। अगर लोकपाल को वाकई प्रभावी बनाना है तो उसके पास खुद जांच की शुरुआत करने और मुकदमा चलाने की ताकत होनी चाहिए, बगैर किसी की इजाजत लिए। विधेयक में लोकपाल को जानबूझकर दंतहीन और निष्प्रभावी बनाने की कोशिश की गयी है। यह बात एकदम सही है, कि इस तरह की ज्यादातर एजेंसियां जिनके पास केवल संस्तुति करने का अधिकार होता है -चाहे सीवीसी हो या सीएजी या फिर ट्राई- वे प्रभावहीन होती हैं। इसमें सबसे जरूरी है कि देश का नुकसान करने वाले भ्रष्टाचारियों से इसकी भरपाई कैसे की जाए। लेकिन प्रस्तावित विधेयक में इस विषय पर भी कुछ नहीं है। क्या किसी को मुख्यमंत्री या मंत्री के पद से हटा देना काफी है? नहीं, इससे घोटाले या घपले में गया धन वापस नहीं आएगा। हमें यह सुनिश्चित करना है कि भ्रष्टïाचार के खिलाफ जारी मुहिम में जरा भी ढील न आने पाये। यदि हम अब पीछे हटते हैं तो यह बेवकूफी होगी और सिर्फ वही लोग ऐसा करेंगे जो देश को लूटना चाहते हैं। हम एक ऐसे देश में हैं जहां लोगों की भीड़ का जुटना अपने आप में बहुत मुश्किल है, बशर्ते कि वह भीड़ क्रिकेट मैच देखने के लिए न जुटी हो। यहां नेताओं तक को अपनी रैली में लोगों को जुटाने के लिए न जाने क्या-क्या पापड़ बेलने पड़ते हैं। लेकिन अन्ना हजारे के अनशन में लोगों का जुटना और उस अनशन से लोगों का जुडऩा लाजवाब है। यह आशाजनक है कि इस देश में जिस तरह से चीजें आगे बढ़ रही हैं, नेताओं की जमात चीजों को ज्यादा समय तक हल्के में नहीं ले पाएगी।
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महंगाई और वेतन वृद्धि का दुष्चक्र
हरिराम पाण्डेय
महंगायी और वेतनभोगियों की आय के बीच की दूरी लगातार घटती जा रही है और इससे आने वाले समय में देश की आर्थिक व्यवस्था के साथ - साथ सामाजिक मनोविज्ञान में नकारात्मक बदलाव की प्रबल आशंका है। पिछले वर्ष खत्म हुए वित्त वर्ष में उपभोक्ता मुद्रास्फीति वेतनभोगियों की आय में हुई वृद्धि से ज्यादा थी। इससे मध्यवर्ग के सोच और उनके खर्च करने की आदत में भारी बदलाव आने की आशंका है। इस बदलाव से जहां एक तरफ आर्थिक विकास प्रभावित होगा वहीं सामाजिक तनाव और कुंठा को भी बढ़ावा मिल सकता है। आर्थिक विकास के लिए जरूरी कई बातों में यह भी एक महत्वपूर्ण पहलू है कि अगर महंगाई बढ़ती है और उसी अनुपात में उपभोक्ता की आय नहीं बढ़ती है, तो उसकी खरीदने की क्षमता कम होगी। इससे देश की समूची खपत में कमी आएगी और विकास की गति धीमी होगी। आर्थिक सिद्धांतों के मुताबिक जब भी मुद्रास्फीति एक सीमा से ज्यादा बढ़ जाती है और कुछ समय तक उसी ऊंचाई पर बनी रहती है, तो खपत में और नये निवेश में कमी आने लगती है और इससे विकास दर में कमी की आशंका बढ़ जाती है। छठे वेतन आयोग के अनुसार सरकारी कर्मचारियों की आय में 16.9 प्रतिशत की वृद्धि हुई थी। उस दौरान प्राइवेट कंपनियों द्वारा भी वेतन में अच्छी वृद्धि की गयी थी। इससे वर्ष 2008-09 में वेतन में वृद्धि की दर अपने चरम उत्कर्ष पर थी और इस साल उपभोक्ता मुद्रास्फीति के औसतन 9.1 प्रतिशत पर रहने के बावजूद एक औसत वेतनभोगी की आय में 7.8 प्रतिशत की वृद्धि हुई थी। लेकिन वर्ष 2009-10 में औसत आय में वृद्धि गिरकर 8.4 प्रतिशत हो गयी थी जो पिछले पांच सालों में सबसे कम थी। उसके बाद वेतनभोगी को एक और झटका लगा , क्योंकि इस वर्ष उपभोक्ता मुद्रास्फीति औसतन 12.3 प्रतिशत पर रही। वर्ष 2010-11 के पहले 9 महीने में अर्थात अप्रैल से दिसंबर 2010 तक एक वेतनभोगी की औसत आय में वृद्धि तकरीबन 11 प्रतिशत रही है। अगर यही प्रतिशत हम पूरे साल 2010-11 के लिए मान लें , तो भी मुद्रास्फीति को ध्यान में रखते हुए उस वेतनभोगी की वास्तविक आय या तो बिल्कुल नहीं बढ़ी होगी या पहले से भी कम हो गयी होगी। पिछले दो दशकों में उपभोक्तावाद में वृद्धि के कारण सामाजिक सोच में हुए परिवर्तनों के कारण आम भारतीय 'ऋणम् कृत्वा घृतम् पीवेतÓ की मानसिकता का हो गया और इस कारण कम्पनियों ने उधार पर उपभोक्ता वस्तुएं देनी शुरू कर दीं। लेकिन अभी ताजा स्थिति को देखते हुए सवाल उठता है कि क्या अब भी वही मनोवृत्ति बनी रहेगी? मध्य- पूर्व की राजनीतिक अस्थिरता अगर लंबे समय तक चली तो यह निश्चित है कि इसका प्रभाव कच्चे तेल की कीमत पर पड़ेगा। जापान के न्यूक्लियर रिएक्टर में रेडिएशन से इसमें और वृद्धि के आसार हैं। यानी विश्व बाजार में तेल की कीमतों में उफान और मुद्रास्फीति में इसका प्रभाव आना लगभग तय है। अभी हाल में रिलीज हुए सीआईआई के बिजनेस आउटलुक सर्वे के अनुसार भारत का बजट घाटा बढऩा और उपभोक्ता मांगों में आ रही कमी आने वाले समय में विकास के लिए चिंता का विषय बनेगा। फिक्की की एक रपट में कहा गया है कि 70 प्रतिशत उद्योग अपने बढ़ते वेतन खर्च से परेशान हैं। कच्चे माल की कीमतों के बाद दूसरी सबसे ज्यादा परेशानी का कारण आर्थिक जगत के लिए वेतन वृद्धि ही है। रपट के मुताबिक गत वर्ष वेतन में 8.4 प्रतिशत की वृद्धि हुई लेकिन मुद्रास्फीति के कारण वास्तविक वृद्धि हुई ही नही उल्टे आय में 3.4 प्रतिशत की कमी हो गयी। यानी वेतन वृद्धि के बावजूद कोई लाभ नहीं हुआ। बढ़ते बाजार के इस देश में वेतन वृद्धि और मुद्रास्फीति का दुष्चक्र कोई बहुत व्यापक सामाजिक परिवर्तन का संकेत है।
Posted by pandeyhariram at 9:11 PM 0 comments
विश्वविजय: चलो अपमान से थोड़ी राहत तो मिली
हरिराम पाण्डेय
क्रिकेट वल्र्ड कप में भारत की विजय दुनिया भर में भारत की बदनामी से राहत के एक टुकड़े के रूप में हमारे समाज को मिली। हालांकि खबरें आयीं कि वह सोने का चमचमाता कप भी नकली है। असली इनकम टैक्स वालों ने जब्त कर रखा है लेकिन बाद में अन्तरराष्टï्रीय क्रिकेट परिषद ने इन खबरों का खण्डन करते हुए कहा कि शनिवार को वानखेड़े स्टेडियम में जो ट्राफी भारत को दी गयी वह असली आईसीसी क्रिकेट विश्व कप 2011 ट्राफी थी और यह वही थी जिसे हमेशा से प्रतियोगिता के विजेता को दिया गया। हाल के महीनों में देश में घोटाला, संसद में सरकार का अपमान, विदेशी निवेश में तेज गिरावट, 2 जी घोटाला और कामनवेल्थ खेलों में घोटाले वगैरह को लेकर वैश्विक स्तर पर देश का भारी अपमान हुआ था। शनिवार की रात को भारत को वल्र्ड कप क्रिकेट में विजय मिली। क्रिकेट भारतीय जीवन में ठीक उसी तरह ऊपर से नीचे उतरा है जैसे वर्षा का पानी जमीन में रिस कर नीचे चला जाता है और मिट्टïी को गीला कर देता है। मुम्बई के वानखेड़े स्टेडियम में जब भारतीय टीम के कप्तान एम एस धोनी ने विजयदायी छक्का मारा तो भारतीय सड़कों पर खुशी से मतवाले लोग निकल आये। पूरा माहौल जश्न का हो गया। विख्यात उद्योगपति हर्षवद्र्धन नेवटिया ने इस विजय पर अपनी टिप्पणी में कहा कि 'इसने हमें गर्वित किया है।Ó इस विजय पर जाहिर की जा रही खुशियों और जलसों के बारे में एक सज्जन ने सवाल किया था कि इसका कारण क्या है, लोग इतने खुश आखिर क्यों हैं, आखिर आम आदमी को क्या मिला? इस विजय ने कई महीनों से पददलित भारतीय सामूहिक इगो को सहला दिया और उसे अनुपात से बड़ा बना दिया। दुनिया के बहुत से देशों में अभी भी नहीं खेले जाने वाले इस खेल ने कम से कम आम आदमी को देश में लगातार कायम घोटाले के माहौल से छुटकारा दिला दिया। सवा सौ करोड़ के इस देश में क्रिकेट को राष्टï्र का रूपक समझा जाता है। हमारे देश के लोग इस विजय से इसलिये भी इतने ज्यादा खुश हैं कि 1983 के बाद देश को किसी भी खेल में इतनी बड़ी विजय नहीं मिली थी। क्रिकेट के भारत में असंख्य फैन्स हैं। इसके अलावा इंग्लैंड, आस्ट्रेलिया, साउथ अफ्रीका और वेस्ट इंडीज में भी यह अतिलोकप्रिय है। रविवार को इस मैच पर टेलीविजन को देखने वालों के आंकड़े तो नहीं उपलब्ध हैं पर उसके पहले के खेलों के आंकड़े बताते हैं कि लगभग 14 अरब लोगों ने टी वी पर इस मैच को देखा जिनमें विदेशों में देखने वालों की संख्या भी लाखों में थी। देश के कई बड़े राजनीतिज्ञों ने भी खिलाडिय़ों और टीम को बधाइयां दी हैं तथा खुशी का सार्वजनिक इजहार किया है। ऐसा हो भी क्यों नहीं। हाल की घटनाओं ने पूरे देश को बेईमानों के देश के रूप में दुनिया के सामने पेश किया था। कम से कम इस खेल ने एक ईमानदार उपलब्धि का नमूना तो पेश किया। यह छोटी बात थोड़े ही थी। क्रिकेट भारत में अब बड़े लोगों का आरामदायक खेल नहीं रहा। अब यह बाजार में बिकने वाली एक सामग्री हो गयी जिसे बहुराष्टï्रीय कम्पनियों की जिन्सों को बेचने का माध्यम बनाया गया है।
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भारतीय संस्कृति की अस्मिता है विक्रम संवत
हरिराम पाण्डेय
आज विक्रम संवत का नववर्ष है। मौसम में ढोल थाप पर चइता लहराने के बाद आकाश में सफेदी बढ़ïने लगती है और उषा का आंचल सुनहरा हो जाता है। दिन चम्पई - गंधकी साफा बांधे निकल पड़ता है। शाम सुरमई हो जाती है, रात सिर पर सितारों से भरी थाल लेकर उतरती है। आसमान और जमीन के बीच वसंत रंगों की दुकान सजा बैठ जाता है। वसंत के इस आगमन का संदेश अपने गहरे अर्थों में हमें जीवन का दर्शन समझाता है। बस, इसी मोड़ पर एक साल और गुजरता है। वर्ष प्रतिपदा के साथ एक नया साल वसंत के मौसम में नीम पर आईं भूरी-लाल-हरी कोंपलों की तरह संभावनाओं की पिटारी लेकर हमारे घरों में आ धमकता है। जब वसंत अपने शबाब पर है तो फिर इतिहास और पुराण कैसे इस मधुमास से अलग हो सकते हैं। इसी संयोग के साथ चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को हम विक्रम संवत के नए साल के रूप में मनाते हैं। इस तिथि से पौराणिक और ऐतिहासिक दोनों ही मान्यताएं जुड़ी हुई हैं। ब्रह्मपुराण के अनुसार चैत्र प्रतिपदा से ही ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना प्रारंभ की थी। इसी तरह के उल्लेख अथर्ववेद और शत्पथ् ब्राह्मण में भी मिलते हैं। इसी दिन से चैत्र नवरात्रि भी प्रारंभ होती है। लोक मान्यता के अनुसार इसी दिन भगवान राम का और फिर युधिष्ठिर का भी राज्यारोहण किया गया था। इतिहास बताता है कि इस दिन मालवा के नरेश विक्रमादित्य ने शकों को पराजित कर ईसा से 58 वर्ष पूर्व विक्रम संवत का प्रवर्तन किया। इस दिन से प्रारंभ चैत्र नवरात्रि का समापन रामनवमी पर भगवान राम का जन्मदिन मनाकर किया जाता है। आखिर वसंत को नवजीवन के आरंभ के अतिरिक्त और किसी तरह से कैसे मनाया जा सकता है? हालांकि विक्रम संवत से पहले भी कई संवत प्रचलन में थे। 6676 ईसवी पूर्व से शुरू हुए प्राचीन सप्तर्षि संवत को हिंदुओं का सबसे प्राचीन संवत माना जाता है, जिसकी विधिवत शुरुआत 3076 ईसवी पूर्व हुई मानी जाती है। सप्तर्षि के बाद नंबर आता है कृष्ण के जन्म की तिथि से कृष्ण कैलेंडर का फिर कलियुग संवत का। कलियुग के प्रारंभ के साथ कलियुग संवत की 3102 ईसवी पूर्व में शुरुआत हुई थी। विक्रम संवत की शुरुआत को लेकर ,खासकर विक्रमादित्य को लेकर कई मतभेद हैं। कुछ विद्वान चंद्रगुप्त द्वितीय को विक्रमादित्य मानते हैं। लेकिन चंद्रगुप्त द्वितीय का काल 5वीं शताब्दी ईसा पूर्व था। हालांकि इस तथ्य का कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है कि किसी राजा विक्रमादित्य ने किसी शक राजा को पराजित किया था और विक्रम संवत की शुरुआत की थी। उधर इलाहाबाद में प्राप्त शिलालेख के अनुसार समुद्रगुप्त ने शक क्षत्रप साम्राज्य के रुद्र सिंह तृतीय को पराजित किया था। हालांकि जैन साहित्यकार मेरुतुंगा ने विक्रमादित्य के अस्तित्व को स्वीकार किया है और विख्यात इतिहासकार आर. सी. मजुमदार ने इसका समर्थन भी किया है। यही नहीं चीनी फाह्यïान ने भी अपनी डायरी में एक राजा विक्रमादित्य का उल्लेख किया है। चंद्रगुप्त द्वितीय के दरबार में ही नौ रत्न थे जिनमें कालिदास और वाराहमिहीर जैसे विद्वान शामिल थे। कालिदास ने अपनी रचनाओं में विक्रमादित्य का जिक्र किया है। कुतुब मीनार के समीप लौह स्तम्भ पर लिखित आलेख में चंद्रगुप्त द्वितीय का उल्लेख है। लेकिन यह काल 5वीं शताब्दी ईसा पूर्व का था जबकि विक्रम संवत की शुरुआत 57 वर्ष ईसा पूर्व थी। काल चाहे जो हो पर इससे विक्रम संवत का सांस्कृतिक महत्व कम नहीं होता और सबसे जरूरी है कि हमारा देश अपनी काल गणना पद्धति को स्वीकार करे तथा राष्टï्रीय अस्मिता को अक्षुण्ण बनाये। प्रकृति भी इसे ही नववर्ष मानती है और इस अवसर पर सभी पाठकों, विज्ञापनदाताओं तथा शुभेच्छुओं को बधाई।
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Saturday, April 2, 2011
एक खतरनाक संकेत
हरिराम पाण्डेय
भारत सरकार ने देश में ताजा जनगणना की अंतिम रपट जारी कर दी है। उन आंकड़ों में कई सकारात्मक संकेत हैं जो हमारे देश के विकास और अच्छे भविष्य की ओर इशारा करते हैं। हमारे देश की आबादी बढ़ी है यानी मानव संसाधन में इजाफा हुआ है और पहले से ज्यादा पढ़े- लिखे लोगों की संख्या भी बढ़ी है यानी खुशहाली के नये रास्ते खुलने वाले हैं। बढ़ती आबादी बेशक कई मोर्चों पर थोड़ी समस्या बन सकती है पर यदि उसके साथ शिक्षा या हुनर का विकास होता है तो यह आबादी सकारात्मक फल भी देती है। लेकिन उन आंकड़ों में एक तथ्य खतरनाक संकेत कर रहा है और यदि इसे नहीं रोका गया तो उसके परिणाम अत्यंत त्रासद हो सकते हैं। यह तथ्य आबादी में खासकर 6 साल से छोटी उम्र के बच्चों में लड़कियों का घटता अनुपात। यह हमारे सामाजिक तथा सांस्थागत तौर पर विफलता एवं एक समाज के रूप में हमारे सोच के दिवालियेपन का सबूत है। यह अनुपात प्रति 1000 लड़कों पर 914 लड़कियों का है। यह आंकड़ा आजादी के बाद सबसे कम अनुपात का आंकड़ा है। हालांकि आबादी में लड़कियों का अनुपात तो 1961 से घट रहा है पर इस बार तो स्थिति खतरनाक स्तर पर पहुंच गयी है। 1991 में अनुपात प्रति 1000 लड़कों में 985 लड़कियों का था जो 2001 में घटकर 927 हो गया और इसबार यानी 2011 में यह 914 हो गया। यह खतरनाक इसलिये कहा जा रहा है कि विगत 10 वर्षों में कन्या भ्रूण हत्या को रोकने के लिये काफी प्रयास किये गये हैं। लिंग निर्णय और लिंग चयन के विरुद्ध कड़े कानून बनाने हैं और लोगों में चेतना को बढ़ाने के लिये व्यापक प्रयास किये गये हैं। लेकिन आंकड़े बताते हैं कि ये सारे प्रयास फलदायक नहीं हो सके। सारी कोशिश व्यर्थ हो गयी। हिमाचल प्रदेश , गुजरात , तमिलनाडु, अंडमान और निकोबार द्वीप समूह, हरियाणा और पंजाब को छोड़ कर देश के सभी राज्यों और कानून शासित राज्यों में यह अनुपात गिरा है। हालांकि पंजाब और हरियाणा में अभी अनुपात बहुत असंतुलित है। इसका स्पष्टï अर्थ हे कि हमारी सरकार और समाज का कथित चैतन्य वर्ग यह संदेश फलदायक बनाने में असफल हो गया कि कन्या भ्रूण हत्या चाहे जिस विधि में हो या शिशु कन्या की मौत हत्या का अपराध है। शहरों , कस्बों और गांवों में गर्भस्थ शिशु के लिंग को जानने की जांच करने वाले क्लीनिक धड़ल्ले से चल रहे हैं और कानूनी प्रावधानों के बावजूद उनका कुछ नहीं हो पा रहा है। इस प्रवृत्ति को रोकने या उसे ह्रïासोन्मुख बनाने के लिये अदम्य सियासी इच्छाशक्ति की जरूरत है। कानून कुछ कर नहीं सका, हालांकि कानून एक खास किस्म की सामाजिक वर्जना का प्रतीक तो है ही। आबादी में बच्चियों का घटता अनुपात बच्चियों और भविष्य में महिलाओं के साथ गंभीर भेदभाव का सूचक है। इस स्थिति को परिवर्तित करने के लिये जरूरी है लोगों के सोच और प्रवृत्ति में परिवर्तन लाया जाय। इसके लिये कानूनी और सामाजिक स्तर पर आंदोलन की आवश्यकता है। अगर अभी नहीं चेता गया तो देवी पूजकों का यह देश मातृहंताओं की बदनाम भूमि में बदल जायेगा।
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विश्व कप जीतना भारत के लिये जरूरी
हरिराम पाण्डेय
खेल में कूटनीति को मिलाने का सबसे ताजा उदाहरण बुधवार को मोहाली में क्रिकेट वल्र्ड कप का सेमीफाइनल था। इस मैच में भारत और पाकिस्तान का मुकाबला था और पूरा मुकाबला दोनों प्रतिद्वंद्वी देशों में छाया युद्ध की तरह था। भारत सरकार के न्योते पर इस मैच को देखने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री गिलानी भी मौजूद थे। वहीं भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के अलावा कई वी आई पी मौजूद थे। भारत जीता और पूरा देश जश्न मनाने लगा, उधर पाकिस्तान में मातम और शर्मिंदगी। देश की आम जनता ने चाहे जैसा किया लेकिन पाकिस्तान के आमंत्रित मंत्री के साथ बैठ कर भारतीय नेताओं को वह खुशी का इजहार किया जाना कूटनीतिक दृष्टिï से बहुत सही नहीं कहा जा सकता है। खास कर ऐसे मौके पर जब वातावरण काफी आवेशित हो। बुधवार की रात कुछ टेलीफोन सन्मार्ग के कार्यालय में आये उसमें कई जहीन लोगों ने कहा कि यह जंग में विजय से ज्यादा महत्वपूर्ण और प्रतिष्ठïामूलक है। यह स्थिति कूटनीतिक रूप से बहुत आदर्श नहीं कही जा सकती है।
इन सबके बावजूद भारत को अपनी अस्मिता के लिये यह मैच जीतना जरूरी था और विश्व कप जीतना भी निहायत जरूरी है। यह एक तरह से भारतीय जीवन की सामूहिक मनोवैज्ञानिक काउंसिलिंग है। आज जो स्थिति है उसमें हर भारतीय अंतरराष्टï्रीय स्तर पर खुद को पराजित और अपमानित महसूस कर रहा है। एक से बढ़ कर एक घोटालों और बेईमानियों के चर्चों ने आम भारतीय का सिर शर्म से झुका दिया है। 8.9 प्रतिशत की ग्रोथ रेट की बात घिसपिट गयी। ऐसी स्थिति में हमारी हारती हिम्मत के अंधियारे में रोशनी का एक टुकड़ा जरूरी है। रोशनी के उस टुकड़े का काम करेगा यह चमचमाता हुआ कप। देश में महंगायी अकेला मसला बचा है या फिर घोटाला, करप्शन। जिस कालीन को उठायें उसके तले करोड़ों रुपयों के घोटालों की फाइल दबी मिलती है। जिस विदेशी सर्वे को देखें वहीं भारत को बेईमानों का मुल्क लिखा है। बुधवार के जश्न को देख कर लगा कि महज एक कप हमें खुश होने का बहाना दे देगा। अपने पर गर्व करने या नाज करने का मौका दे देगा। इससे कुछ होगा अथवा नहीं लेकिन माहौल में पॉजिटिव इनर्जी का संचार होगा। इससे बेशक हमारी सामाजिक सेहत सुधरेगी। आजादी के बाद भारत ने 1983 में वल्र्ड कप जीता था। उस समय की सामाजिक स्थिति की जानकारी जिन्हें होगी उन्हें मालूम होगा कि वह भारत की अपनी रोजमर्रा की उलझनों का बरस था। ग्लोबलाइजेशन और उदारीकरण की तब सोची भी नहीं जा रही थी। देश अपनी धीमी रफ्तार में रेंग रहा था। पैसा बड़ी खबर नहीं होती थी, न तरक्की। बड़ी खबर सियासत से आती थी, जैसे उस साल का असम इलेक्शन, जिसमें दिल्ली की जिद ने सैकड़ों लोगों को बलि का बकरा बना दिया था। या फिर फूलन देवी का सरेंडर। 1982 तो उससे भी निस्तेज था, जब देश में कोई बड़ी हलचल नहीं हुई। भारत की जिंदगी में तब 1983 का वल्र्ड कप ही संजीवनी बना था। यहां यह दावा तो नहीं है कि उसी की वजह से सब कुछ बदल गया, लेकिन ठीक अगले बरस बड़ी तारीखों का सिलसिला बनने लगा। 1984 ऑपरेशन ब्लूस्टार, इंदिरा गांधी की हत्या और सिख दंगों का काला बरस भी था, लेकिन उस साल भारत का मिजाज भी कई बातों से हमेशा के लिए बदलने लगा। मारुति 800 कार बाजार में आयी, जिससे मध्य वर्ग की हसरतों को पर लग गए। राकेश शर्मा नाम के पहले भारतीय ने अंतरिक्ष से धरती को देखा और कहा, धरती बेहद सुंदर लगती है, लेकिन सबसे खूबसूरत है अपना देश। उसी बरस भारतीय सेना ने सियाचिन पर कब्जा कर लिया। उसके बाद आया 100 सी सी मोटर सायकिलों का रेला जिसने भारतीयों की जिंदगी में रफ्तार पैदा कर दी। आज भी जो दो चीजें भारत की युवा पीढ़ी को गतिमान बना रही हैं, उनमें एक बाइक ही है दूसरी है मोबाइल फोन। 1985 के बाद के बरसों में देश को बड़े घाव नहीं लगे, सिवाय कश्मीर में आतंकवाद के , जिसकी जड़ें वैसे भी 1947 तक जाती हैं। इस दौरान अयोध्या और मंडल दो ऐसी बातें हुईं, जिनके हमारी जिंदगी पर गहरे असर हैं, लेकिन हर समाज को अपने अतीत के नासूर कभी-न-कभी तो झेलने होते ही हैं। यह मामूली बात नहीं है कि भारत के पास इसे सहने और इससे उबरने की ताकत थी। 1991 के बाद वैसे भी पैसा और तरक्की ने बड़ा मुद्दा बनना शुरू कर दिया था। जाति, धर्म और आतंक की तमाम आती-जाती लहरों के बाद आखिरकार इसी का राज कायम हुआ। भारत ने अपना बैलेंस खोज लिया। आज वह बैलेंस बिगडऩे लगा है। बिना उत्साह के भारत कैसे चलेगा। उसे अपने नायकों में आस्था वापस चाहिए। हमें अपना खोया हुआ जोश वापस चाहिए। बुधवार के मैच का जश्न और उत्साह देख कर तो ऐसा ही लगा। इसलिये हमें यह कप जीतना जरूरी है।
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