फिर वही काला धन का बवाल। संघर्षशील अर्थ व्यवस्था वाले राष्ट्र भारत में जहां काला धन चाहे वह देश में हो या विदेश में सदा जनता की दिलचस्प का विषय रहा है वहां एक बार फिर हां हां ना का एक मामला सामने आ गया। वह है ‘पनामा पेपर्स’, लगभग दो लाख खातों का एक विशाल दस्तावेज। पनामा की जिस कंपनी के यहां ये खाते थे मंगलवार की तड़के (भारतीय समयानुसार लगभग 4बजे सुबह ) जारी कर दिया। ये कागजात ऑन लाइन हैं और सार्वजनिक हैं। पनामा की वह कम्पनी है मोसाक फेंसोका और इन खातों को देख कर लगता है कि अमीर और ताकतवर लोग किस तरह टैक्स की चोरी कर अपनी काली कमाई ऐसे विदेशी बैंकों तथा कम्पनियों में महफूज रखते हैं। हालांकि इन दस्तावेजों में किन किन भारतीय लोगों के नाम हैं यह प्रमाणिक तौर पर पता नहीं चला है पर जो हवा बनायी गयी थी उससे कहा जा सकता है कि इसमें कु भारतीयों के भी नाम हो सकते हैं। कहा जाता है कि इसमें बॉलिवुड के महानायक अमिताभ बच्चन के भी नाम हैं पर बच्चन ने इससे इन्कार किया है और कहा है उन्होंने किसी भी प्रकार की टैक्स चोरी नहीं की है। वैसे अन्य वैश्विक व्यक्तित्वों में कई सिलेब्रिटी ,कई पूर्व और वर्तमान नेताओं, सरकारी अधिकारियों, खेल जगत के लोगों के नाम हैं। दुनिया में कौन है और उसके नाम का क्या असर है इससे अलग हमें यह देखना होगा कि हमारे देश में इसके प्रति क्या होता है? इससे जो सबसे पहला असर होगा वह है इस देश में एक बार फिर मीडिया के जरिये नैतिक आतंक पैदा करने का प्रयास होगा। बड़े राजनीतिक दल एवं हस्तियां इसके विरुद्ध अभियान आरंभ करेंग और कठोर कानून बनाये जाने की मांग करेंगे। सरकार ने भी कार्रवाई का आश्वासन दिया है। अगर कानून बनत भी है तो इससे हम जैसे वेतन भोगी लोगों की कठिनाइयां और बढ़ जायेंगी। दूसरी तरफ अमीर लोग इसके बाद नये इंसेंटिव पायेंगे और टैक्स चोरी करने के नये उपाय ढूंढ़ लेंगे तथा पहले से ज्यादा परिमाण में धन काला होता जायेगा। इसलिये कम से कम सरकार से उम्मीद की जाती है कि वह लोकलुभावन राजनीति से दूर रहे तथा टैक्स का और कोई कानून ना बनाये ताकि अर्थ व्यवस्था को सुधरने का अवसर मिले। इसके अलावा अब यह देखना है कि इस नये खुलासे से देश और विदेश की राजनीति पर क्या असर पड़ सकता है। दूसरे क्या सूचना की ताकत एक ऐसी वैश्विक ताकत के रूप में उभरेगी जिससे देसी सियासत को प्रभावित किया जा सके या सरकारों को घुटने टेकने पर बाध्य किया जा सके। अब पनामा पेपर्स के संदर्भ में हम राजनीतिक नेतृत्व और दश के प्रति उसकी जवाबदेही के मद्देनजर तीन तरह की स्थितियों की उम्मीद कर सकते हैं और उन तीनों स्थितियों पर संभवत: उस खुलासे के अलग अलग सर हो सकते हैं। अब अगर कोई ऐसा नाम जो सऊदी अरब, अबू धाबी या कतर का अमीर अथवा राजा है तो उस पर इसका कोई असर नहीं पड़ने वाला, क्योंकि वे अपनी जनता के प्रति जवाबदेह नहीं हैं। अलबत्ता वहां की जनता यह सुनकर हैरत जाहिर करेगी कि आखिर ऐसा क्यों किया, जबकि उन्हें टैक्स देने नहीं पड़ते। यानी वहां इसका कोई असर नहीं पड़ने का। अब अगर पुतीन तथा शी जिन पिंग के नाम आते हैं (जैसी कि चर्चा है), तब भी वहां कोई खास नही असर पड़ने वाला, क्योंकि उनकी प्रणाली इस स्तर पर जवाबदेही बहुत कम है। अगर बात बहुत बिगड़ी और उन्हें गद्दी से उतरना भी पड़ा तो वे अपने समझौतों के जाल को फैला कर अपने को बचा लेंगे। भारत जैसे देश में यदि इसाके असर का आकलन किया जाय तो यकीनन कुछ होने वाला नहीं है , क्योंकि जो कानूनी प्रक्रिया है तथा जो वकीलों की बुद्धिमता है उससे शायद ही कोई फंसे। तो अब विचार करते हैं दूसरे प्रकार के असर पर। वह है सूचना तंत्र का वैश्विक तौर पर ताकतवर होना। अभी तक कोई नहीं जानता कि किसने इस सूचना को लीक किया कि अंत पनामा की वह कम्पनी उसे सार्वजनिक करने के लिये बाध्य हो गयी। अब अंधेरे में खड़ा वह आदमी कौन हो सकता है? शायद कोई ताकतवर नेता, कोई शक्तिशाली ब्यूरोक्रेट, कोई खुफिया एजेंसी या कोई मीडिया घराना, कोई भी हो सकता है जिसने अपने प्रतिद्वंद्वी को नीचा दिखाने की गरज से यह कदम उठाया हो। अगर भारत के संदर्भ में सोचें तो यह मानना होगा कि हारी अर्थ व्यवस्था बहुत तेजी से घोर पूंजीवाद की ओर बढ़ रही है। सरकार और उद्योगपतियों की सांठगांठ से उद्योगों का निजीकरण हो रहा है। ऐसे किसी विपक्षी राजनीतिक नेता पर मुश्किलें लादने के लिये ऐसे खुलासे भी हो सकते हैं। भारत में वर्तमान सरकार संरक्षित अर्थ व्यवस्था को स्वतंत्र अर्थ व्यवस्था में बदलने का प्रयास कर रहे हैं। जैसा कि अर्थ शास्त्री मानते हैं कि घोर पूंजीवाद में विरोधियों को राजनीतिक तौर पर नीचा दिखा कर निस्तेज करने से लेकर रिश्वत दिये जाने तक कुछ भी किया जा सकता है। इससे सरकार में भरोसा घटता है और संसाधनों के गलत आवंटन से सही व्यवसायी की राह रोक दी जाती है। अतएव घेर पूंजीवाद को बढ़ने से रोकना जरूरी है और इसके लिये सरकार को कदम उठाने ही होंगे। इसके लिये सरकार को तत्काल चार उपाय करने होंगे। पहला कि जब सरकारी उपक्रम या पूंजी निजी हाथों में जाती है उस समय सावधानी बरतें, दूसरे कि, बैंकों के काम करने के तरीकों पर नजर रखेंऔर सुधार की कोशिश हो। बैंक से कर्ज लेकर लोग अमीर बन जाते हैं और देश छोड़ जते हैं और बैंक घटे में घसीटते रहते हैं। तीसरा कि दौलत देश से बाहर ना जाय , ऐसी व्यवस्था होनी चाहिये। अंतिम कि पूंजीवाद को लांछित ना किया जाय। आर्थिक विकास के लिये इसका होना जरूरी है। अगर देश की दौलत को विदेश जाने से ना रोका गया और नाम उछाल कर राजनीति की गयी तो शायद और भी इस किस्म के खलासे होंगे तथा देश की जनता उसे लेकर उलझी रहेगी।
0 comments:
Post a Comment