प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की डिग्री को लेकर चल रहा विवाद कोई ऐसा विषय नहीं है जिसपर कुछ लिखा जाय या बहस की जाय। यह फकत एक गप्पबाजी या शोशेबाजी के अलावा कुछ नहीं है। फिर भी लिखना इसलिये जरूरी है कि इन आदतों यह पता चलता है कि हमारे लोकतंत्र पर किस तरह के खतरे आने वाले हैं। यह एक तरह से सामाजिक विभाजन की हमारी पुरानी बुराई को हवा देना है। हो सकता है कि इन मामलों से वह बुराई , जो धीरे धीरे खत्म होने को आ रही थी , अब फिर पनप जाये। आजादी के बाद भारत के इतिहास में जातिवाद या ऊंचनीच की मंशा का इतना गूढ़ और कुटिल ‘मेनिफेस्टेशन’ देखने को नहीं मिला।
पक गयी हैं आदतें बातों से सर होंगी नहीं
कोई हंगामा करो ऐसे गुजर होगी नहीं
राजनीतिक आडडम्बर में सामाजिक बुराई को बढ़ावा देना है। यही हाल हुआ था जब अमरीका में ओबामा जीत कर आये थे। कंजवेटिव विचारों वालों को यह गवारा नहीं था कि एक अश्वेत अमरीका की गद्दी पर बैठे और उन जैसे लोगों पर हुकूमत करे। उन्होंने पहले शोर शुरू किया कि ओबामा इसाई नहीं मुस्लिम हैं। जब वह मामला सलटातो लगे कहने कि वे अमरीकी नहीं लिहाजा अपने को अमरीकी साबित करने के लिये जन्म प्रमाणपत्र दिखायें। जन्म प्रमाणपत्र दिखा दिया गया और मामला शांत हो गया। भारत में भी कुछ ऐसा ही हो रहा है। आखिर एक ‘चायवाला छोकरा’ प्रधानमंत्री कैसे बन गया और बड़े बड़े एलीट कालेज से पढ़े लोग उसके तहत काम कर रहे हैं। भारत में यह बात नयी नहीं है। महादेव देसाई लिखते हैं कि ‘महात्मा गांधी ने भी अम्बेडकर को लेकर शक जाहिर किया था कि वे दलित नहीं ब्राह्मण हैं। बाद में उन्हें सुधारा गया तब भी वे कहते थे कि अम्बेडकर में हिंदुत्व थोड़ा कम है। ’ अतएव यह ‘सोशल सुपरियरीटी कॉम्प्लेक्स’ भारत में नया नहीं है। सोनिया जी भी जब शादी कर के आयीं थीं तो यहां कई लोगों ने दांतों तले उंगली दबा ली थी। जब वे पिछलीबार चुनाव में बहुमत हासिल कर सरकार बनाने के लिये बढ़ीं तो भगवा ब्रिगेड की महिलाओं ने अनशन की धमकी दी थी। कुछ लोगों ने तो एम केधर की किताब के उन वाक्याशों को फैलाना शुरू किया जिसमें लिखा थ ‘सोनिया गांधी लंदन में हाउस मेड थीं और रोड साइड ट्यूटोरयल होम में अंगेजी सीखतीं थीं।’ सोनियाजी ने मनमोहन सिंह को पधनमंत्री बनाकर सारी बाजी उलट दी, क्योंकि असली सत्ता तो उनके हाथों में ही थी। सोनिया जी इतालवी हैं और मोदी जी ओ बी सी हैं लेकिन दोनों के विरोध का मूलगत भाव एक ही है।
आज मेरा साथ दो वैसे मुझे मालूम है
पत्थरों में चीख हरगिज कारगर होगी नहीं
आज मोदी जी की डिग्री के लेकर फिर वही मनोभाव दिख रहे हैं। केजरीवाल आई आई टी स्नातक हैं उन्हें कम पढ़ा लिखा ऐसा पी एम बर्दाश्त नहीं जो हर मौके पर उन्हें धूल चटा दे। यहां सवाल है कि क्या भारत के संविधान में यह उल्लिखित है कि प्रधानमंत्री को एम ए अथवा बी ए पास होना चाहिये। अगर ऐसा नहीं है तो बेकार जनता में खास किस्म के मनोभाव को पैदा करने की क्या जरूरत है।
आदमी होठ चबाये तो समझ आता है
आदमी छाल चबाने लगे, ये तो हद है
इन दिनों हमारे देश में कुछ ऐसा हो रहा है कि जिससे जनजीवन विभिन्न मतों- विचारों- सिद्धांतों की मरीचिका में दौड़ता रहे और नयी नयी सामाजिक व्याधियां पैदा होती रहीं। खबरों की मानें तो , आज ही खबर आयी है कि भाजपा के एक नेता ने जादवपुर विश्वविद्यालय की छात्राओं को बेहया कहा है। ये सब क्या हो रहा है। जो आपके सिद्धांतों के अनुकूल नहीं है वह सामाजिक तौर पर गलत है। चाहे वह सत्ता पक्ष में हो या विपक्ष में।
मस्लहत आमेज होते हैं सियासत के कदम
तू नहीं समझेगा सियासत तू अभी नादान है
दूसरा सवाल उठता है कि मोदी जी की डिग्री को लेकर विवाद क्यों पैदा हुआ। उसके दो कारण हैं। पहला मोदी जी या उनकी पार्टी की हठधर्मिता। जब डिग्री की मांग की गयी और उसी समय दिखा दी गयी होती तो मामला तूल नहीं पकड़ता। यही हाल उनके विवाह को लेकर भी हुआ था। दूसरे उनकी डिग्री की प्रमाणिकता को लेकर बवाल है। यह सरासर गलत है। सवा सौ करोड़ की आबादी वाले इस देश में लाखों लोग मिल जायेंगे जिनकी डिग्रीयों के बारे में विश्वविद्यालयों के पास कोई जवाब नहीं है। जहां तक प्रधानमंत्री का सवाल है या किसी और का जिसे सार्वजनिक जीवन में काम करना है उसके लिये डिग्री नहीं ज्ञान की जरूरत है।
जाति ना पूछो साधु की पूछ लिजीये ज्ञान
मोल करो तलवार का पड़ा रहन दो म्यान
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