विख्यात दाशर्निक बर्टेंड रसल ने लिखा है कि ‘सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तन के कारक आर्थिक हालात(इकोनॉमी) है।’ अभी हल के पांच चुनावों के नतीजों पर विश्लेषकों ने कई बातें कहीं, किसी ने वोटबैंक , किसी व्यक्ति तो किसी ने संगठन वगैरह की बातों को सामने रख कर जम कर बातें कीं पर शायद ही किसी ने कहा कि इसके लिये आर्थिक हालात या उनके सुधरने की उम्मीदे सबसे ज्यादा जिम्मेदार थीं। अबस पहले चुनाव में पूर्ववर्ती सत्तारूढ़ दलों को पराजित होना पड़ता था , सन्1990 से सन् 2000 तक यही सब चला। लगभग तीन चौथाई सरकारों को पराजय का मुंह देखना पड़ा लेकिन 2004 में जब अर्थ व्यवस्था में सुधार आये , बाजार में तेजी आयी तो सन् 2004 से 2011 तक कई सरकारें दुबारा चुनी गयीं। यहां तक कि 2009 में यूपीए सरकार दुबारा सत्ता में आयी। इससे साफ जाहिर होता है कि आर्थिक तौर पर संतुष्ट वोटर सत्तारूढ़ दल को चुनते हैं। 2011 में अर्थ व्यवस्था की हालत खस्ता होने लगी और उसी के साथ फिर चल पड़ा सत्ता विरोधी मतदान। 2014 में यूपीए को सत्ता से हटना पड़ा। इससे साफ पता चलता है कि सही गठबंधन अगर जरूरी है तो अर्थ व्यवस्था में सुधार की आशा की गारंटी भी पुननिर्वाचित होने के लिये जरूरी है। इस बार के विधानसभा चुनावों से यह साफ जाहिर हो गया है। ममता बनर्ज ने इस बार वामपंथ से ज्यादा सीटें छान ली जो उन्होंने ‘परिवर्तन’ के जमाने में छाना था। इसका मुख्यकारण था ममता जी का समाज कल्याण और ग्राम विकास पर ध्यान। पश्चिम बंगाल में आर्थिक सुधार के लक्षण दिखने लगे थे। चुनाव के कुछ पहले ही वित्तमंत्री अमित मित्र ने बताया था कि अर्थ व्यवस्था में तेजी से सुधार हुआ है और सकल घरेलू उत्पाद बढ़ कर 12 प्रतिशत पर पहुंच गया है। इसके ठीक विपरीत असम और केरल में आर्थिक विकास की दर घटी है साथ ही कांग्रेस का असम में ए आई डी यू एफ से हाथ मिलाया जाना घातक प्रमाशित हुआा। यानी अर्थ व्यवस्था में सुधार के साथ साथ सही गठबंधन दुबारा चुने जाने के लिये जरूरी है। तमिलनाडु में जयललिता के पराजय का भी अर्थ व्यवस्था में मंदी ही कारण बना। यहां के बारे में कुछ लोगों का कहना है कि तमिल नाडु में जयललिता सरकार के नहीं जीतने का कारण बड़ी बड़ी घेषणायें थीं। लेकिन तमिल नाडु के लिये यह नयी बात नहीं थी , वहां हर सरकार ऐसे ही बेशुमार घोषणाएं करती रही है। इसके बावजूद सरकारें दुबारा चुनी गयीं हैं या नहीं चुनी गयी है। यही हाल बंगाल में भी हुआ। कुछ लोग ममता जी के कल्याण कारी कार्यों की आलोचना करते हुये कहते सुने गये कि यह जनता के पैसे की बर्बादी है। पर चुनाव के दौरान बंगाल के गावों के लोगों से पूछने पर पता चला कि सरकार जो रुपये जनता से लेती है उसका कुछ हिस्सा अगर इस तरह वापस कर देती है तो इसमें बुरा क्या है। ममता जी की विजय से बहुत से सबक मिलते हैं जो राजनीतिक भविष्य के लिये लोगों को सीखने होंगे। बंगाल के भद्रलोक समाज में ममता जी को बहुत तरजीह नहीं दी जाती है। भद्रलोक समाज का एक बड़ा हिस्सा ममता जी जिद्द , कॉमन आहदमी की तरह आचरण , विरोधियों से चिढ़ की स्पष्ट अभिव्यक्ति इत्यादि के कारण उन्हें नापसंद करता है। कुछ लोग इस बात से भी नाराज हैं कि जिन गुंडों की गुंडागीरी वामपंथ के जमाने में चलती थी वही अब इनके जमाने में भी शुरू हो गयी हैलिकिन उनके ग्रामीण विकास के बरअक्स ये सारी बातें बेअसर साबित हुईं। यहां तक कि उनके विरोधी भी इस बात का लोहा मानते हैं कि ममता जी ने ग्रामीण सड़क विकास, विद्युतिकरण, पेयजल और स्वास्थ्य के लिये बहुत कुछ किया। वामपंथी शासन के मुकाबले तो बहुत ज्यादा। ममता जी ने 2011 से 2015 के बीच 5212.94 किलोमीटर ग्रामीण सड़कों को सुधारा , ग्रामीण विद्युतिकरण के तहत जनवरी 2016 तक गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले 90 प्रतिशत घरों में बिजली लगादी गयी। इसी अवधि में समाज विकास पर 20,000 करोड़ रुपये खर्च किये गये। दीदी ने 8 करोड़ बंगाली जनता को 2रुपये किलो चावल मुहय्या कराया। गांवों का विकास तो कोलकाता में एसी चेम्बरों और घरों में बैठे कोलकाता के इलीट वर्ग के लिये क्या मायने रखता है। वे यह नहीं सोचते कि ममता जी ने शासन की जहां से शुरुआत की थी वहां क्या हालात थे। सरकारी खजाने खाली थे, कर्ज का बोझ लदा था, सारे काम रुके पड़े थे लेकिन अब सुधार स्पष्ट दिखायी पड़ रहा है। यहां तक अब व्यापारी समुदाय भी मानने लगा है कि निवेश का वातावरण बन रहा है। यह केवल बंगाल की बात नहीं है कभी के पिछड़े राज्य आर्थिक विकास कर रहे हैं और वहां की सरकारें दुबारा चुन कर आ रहीं हैं। बिहार में नीतीश कुमार इसके सटीक उदाहरण हैं। यही नहीं उड़ीसा में नवीन पटनायक, मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान, छत्तीसगढ़ में रमन सिंह का भी उदाहरण लिया जा सकता है। ‘बीमारू राज्य’ की संज्ञा से अभीहीत कई जनसंकुल हिंदीभाषी प्रांत जो एक दशक पहले राष्ट्रीय स्तर पर पिछले राज्य माने जाते थे अब विकास के पथ पर चल रहे हैं। वहां स्थिर सरकारें हैं। पिछड़े राज्यों के तौर पर दो राज्यों का नाम अक्सर लिया जाता रहा है वे हैं पश्चिम बंगाल और दूसरा उत्तर प्रदेश पर बंगाल तो जेट रफ्तार से विकास की ओर बढ़ रहा है और यू पी को भी इससे सबक लेनी चाहिये। या यों कहें कि देश को ममताजी से सीखना चाहिये। अब यहां से वह कहावत सही लगने लगी है कि ‘बंगाल(शासन) जो आज सोचता है उसे पूरा देश कल सोचेगा।’
Tuesday, May 24, 2016
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