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Thursday, May 5, 2016

हमारे सपने और बच्चों की वेदना

अखबारों की मानें तो राजस्थान के कोटा में हर साल दर्जनों बच्चे इसी मौसम में खुदकुशी कर लेते हैं।  खदकुशी के पहले इन बच्चों से किसी को कोई बात करने का अवसर नहीं मिलता। अभी तीन दिन पहले 17 वर्षीया कीर्ति त्रिपाठी ने हॉस्टल की छत से कूद कर आत्महत्या कर ली। उस बच्ची ने खुद को खत्म करने का फैसला केवल इसलिये लिया कि आई आई टी मेंस की परीक्षा में उसे उम्मीद के मुताबिक अंक नहीं मिये थे। उसने यह कदम उठाने के पहले कोटाह के जिलाधीश को एक लम्बा पत्र लिखा , जिसमें उसने अपनी मानसिक व्यथा का वर्णन किया था। वह इंजीनियरिंग नहीं पढ़ना चाहती थी वह, साइंस यानी फिजिक्स, मैथेमेटिक्स और केमिस्ट्री पढ़ना चाहती थी पर पिता की इच्छा पूरी करने के लिये उसे कोटा आना पड़ा। उसने अपने पत्र में लिखा है कि उसकी छोटी बहन पर आकांक्षाओं का वह दबाव ना डाला जाय जो उसपर डाला गया। उसके पत्र से पिघल कर जिलाधीश ने पत्र लिखा जिसमें उन्होने अभिभावकों को सुझाव दिया है कि डीएम रवि कुमार ने पहले एक पत्र छात्रों को लिखा था और अब उनके अभिभावकों से अपनी पीड़ा साझा की है।उन्होंने पत्र में अभिभावकों से अनुरोध किया है वे बच्चों पर अपनी इच्छाएं थोपने के बजाय उसकी क्षमताओं, रुचियों और योग्यताओं के आधार पर ही उनका भविष्य उज्ज्वल बनाने का प्रयास करें। पहले बच्चे की मन की बात जानें कि वह क्या करना चाहता है। बिना वजह दबाव न बनाएं और यदि कोई फैसला हो भी गया है तो बच्चे को भरोसा दिलाएं कि हर बुरी स्थिति में उसके साथ हैं। उसे हर तरह के मानसिक दबाव का मुकाबला करने के काबिल भी बनाएं। डीएम रवि कुमार ने अपने पत्र में लिखा है कि ‘यह मेरा दुर्भाग्य है कि मुझे 20 से ज्यादा मेधावी बच्चों के सुसाइड नोट पढ़ने पड़े हैं। करिअर के अवसरों के शहर कोटा में आपके बच्चों का स्वागत है, लेकिन बच्चे की न किसी से तुलना करें और न परिणाम के बारे में डराएं। वे आपको बेहतरीन परिणाम देंगे। हम आपको बता दें कि 1.50 लाख छात्र-छात्रा हर साल कोटा में पढ़ने के लिए आते हैं। साल 2015 में 30 छात्रों ने आत्महत्या की थी। वहीं इस साल अभी तक 5 छात्र आत्महत्या कर चुके हैं। ’ कोटा में 40 बड़े कोचिंग सेंटर हैं। इन आत्महत्या करने वाले बच्चों में 90 प्रतिशत यू पी और बिहार जैसे हिंदी भाषी प्रदेशों से हैं। अब सवाल उठता है कि क्या हम अपने बच्चों से  यही चाहते हैं? यदि नहीं , तो सोचिये कि हम गलत कहां हैं?क्या कारण है कि उमंग और उत्साह से प्रफुल्लित मासूम अचानक निराशा और हताशा के अथाह सागर में डूबकर आत्महत्या जैसा जघन्य कदम उठा लेते हैं? ऐसा तो नहीं ,  ये मासूम अभिभावकों की अति महत्वाकांक्षा की भेंट तो नहीं चढ़ रहे? राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) की ओर से जारी ताजा आंकड़ों से यह कड़वी हकीकत सामने आई है। विशेषज्ञों का कहना है कि सामाजिक माहौल में बदलाव, माता-पिता का रवैया और उम्मीदों का बढ़ता दबाव ही इसकी प्रमुख वजहें हैं। मध्य प्रदेश किशोरों की 349 आत्महत्याओं के साथ इस मामले में सबसे ऊपर है। उसके बाद तमिलनाडु 345 और पश्चिम बंगाल 298 का नंबर है। मध्य प्रदेश में हुई इन घटनाओं में 191 लड़के थे और 158 लड़कियां।

आज के माता पिता के पास अपने बच्चे के साथ बिताने के लिए वक्त ही नहीं है। अधिक से अधिक भौतिक सुविधाएं जुटाने में लगे अभिभावक बच्चों को बचपन से ही अनजाने ही पैसे से सब कुछ प्राप्त कर लेने की आदत डालते रहते हैं। आज बच्चा रोता है तब उसे 'चन्दा मामा दूर के पुआ पकावे गुड़ के ' ना सुनाकर 25 रुपये की चॉकलेट थमा दी जाती है।बचपन के गीत, लोरियों, कहानियों के माध्यम से बच्चों को साहस का, मुसीबत में हिम्मत रखने का जो ज्ञान विकसित होता था ,वह आज के सुपरहीरो और वीडियो गेम ने  निगल लिया। इस बच्चे में आपका बच्चा भी हो सकता है। क्या एक पिता के नाते आप  सोचते हैं कि आज के ये कान्वेंट स्कूल या तथाकथित बड़े स्कूल बच्चों को कैसी शिक्षा दे रहे हैं?हम या आप जैसे लोग बच्चे की शिक्षा को स्कूल और ट्यूटर के भरोसे छोड़कर निश्चिन्त हो जाते हैं। यस समझना जरूरी होगा कि सारे के सारे तथाकथित बड़े स्कूल इनदिनों धन उगाहने के स्रोत बने हुये हैं। वे हमारे बच्चों को शिक्षा नहीं देते उनमें शिक्षित हो जाने की गलतफहमी पैदा कर रहे हैं।अच्छा स्टूडेंट होने का मतलब परीक्षा में 90प्रतिशत के ऊपर मार्क्स पाना मात्र रह गया है। शिक्षा किताबों के रटने तक ही सिमट गयी है। समाज , सरकार और स्कूल तथा परिवार किसी को भी मासूम मन से होने वाले खिलवाड़ की फिक्र नहीं है। स्कूल स्तर तक  बच्चे की पढ़ाई पर अच्छी खासी रकम खर्च कर चुके माता पिता की उम्मीदों का बोझ बच्चे को अतिरिक्त मानसिक दबाव में रखता है। अपने स्कूल का टॉपर स्टूडेंट जब उम्मीदों के पंख लगाकर डॉक्टर, इंजीनियर या आई ए एस बनने का ख्वाब लिए इन कोचिंग इंस्टिट्यूट में दाखिला लेता है, और खुद को राष्ट्रीय स्तर पर आंकता है तो अपनी मार्कशीट के मायने समझ जाता है। साल दो साल इन इन कोचिंग संस्थानों में अच्छी खासी रकम खर्च करने के बाद जब मासूम अपनी उम्मीदों पर खरा नहीं उतरते तो अचानक उनके अंदर का सुपर हीरो मर जाता है, और उसके साथ ही मर जाती है उनकी उम्मीदें और साहस भी। लेकिन किया क्या जा सकता है ऐसी गलाकाट प्रतियोगिता के युग में? सबसे पहले माता पिता को खुद को सुधारना होगा। उन्हें अपने बच्चे में ऐसी आदत डालनी होगी जिससे मां बाप पर उसका भरोसा बढ़े और यही नहीं मार्कशीट देख कर बच्चे के ज्ञान का आकलन करने से खुद की महत्वाकांक्षाओं का बोझ लादने से बचना होगा। अभिभावकों को बच्चे को एक अच्छा नागरिक बनाने का सपना देखना चाहिए ना कि डॉक्टर , इंजीनियर या  आई ए एस बनाने का।

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