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Monday, May 9, 2016

ये रोशनी हकीकत में एक छल लोगों

अंक जब आंकड़े बन जाते हैं तब शून्य से नौ के सेट्स में बहुत कुछ बोलने लगते हैं। उनकी मदद से इतिहास में सुधार किया जा सकता है, सरकार की नीतियों की समीक्षा और उनका विनिर्माण किया जा सकता है, राष्ट्र के सामाजिक डायनामिक्स का विश्लेषण किया जा सकता है। पिछले चुनाव की बातें अभी देशवासियों के मन में घूम रहीं होंगी। काम करने वाली सरकार को लोगों ने भारी बहुमत से विजयी बना कर दिल्ली के तख्त पर बैठाया। बड़े बड़े वायदे किये गये थे और उम्मीदों से भरा यह राष्ट्र अपना मुकद्दर उस सरकार को सौंप कर निश्चिंत हो गया। इन वायदों में सबसे ज्यादा जो बात कही गयी थी वह थी रोजगार की, रोजगार को बढ़ाने की, ज्यादा से ज्यादा लोगों को रोजगार देने की। एक उम्मीद थी कि यह काम करने वाली सरकार होगी। पर क्या हुआ।

ये रोशनी हकीकत में एक छल लोगों

कि जैसे जल मे झलकता हुआ महल लोगो

रोजगार की बात यदि कहें तो श्रम मंत्रालय के ताजा आंकड़ों के मुताबिक बीते वित्त वर्ष के अप्रैल से जून की तिमाही में 43000 लोगों ने अपने रोजगार गंवाये। यही हाल शिक्षा के क्षेत्र का भी है। कभी जरूरत के मुताबिक उच्च शिक्षा नीति इन दिनों पुरानी पड़ती जा रही है। विश्वविद्यालयों में इन दिनों क्या हो रहा है यह सबको मालूम है। यदि हालातों को नकारात्मक ना सोचें तो यह मानने में किसी को गुरेज नहीं होगा कि हमारे विश्वविद्यालयों ने लोकतंत्र के भाव को मजबूत किया है। यही नहीं हमारे विश्वविद्यालयों ने सियासी जमात को यह याद करने के लिये मजबूर किया है कि लोकतंत्र के स्थाई मूल्य क्या हैं। साथ ही उसने शिक्षा की उपयोगिता पर भी बहस को गति दी है। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में जो कुछ भी हुआ उसने साफ तौर पर यह सोचने पर बाध्य कर  दिया है कि उच्च शिक्षा का नजरिया और उद्देश्य क्या होना चाहिये। यह सोचना जरूरी है कि उच्चशिक्षा का उद्देश्य विचारवान नौजवानों को तैयार करना है या रोजगार के बाजार में उपयोग लाने वाले औजार तैयार करने हैं। जनता द्वारा दिये गये टैक्स से चलने वाले इन विश्वद्यालयों में राजनीतिक गतिविधियां क्या शैक्षणिक प्रयासों का विचलन है?

इस सड़क पर इस कदर कीचड़ बिछी  है

हर किसी का पांव घुटनों तक सना है

इस बिंदु पर जितना भी चिंतन होता है तो यही बात मूल में दिखती है कि पेशेवर शिक्षा और उच्चशिक्षा में जो विभाजन हुआ है वही गलत है। आज एक एम ए पास नौजवान के सामने भविष्य की दो चार कतरनें दिखतीं हैं बाकी सबकुछ पेशेवर शिक्षा के रकबे में जज्ब है।

खिड़कियां नाचीज गलियों से मुखातिब हैं

अब लपट शायद मकानों तक पहुंचती है

जब भी शिक्षा पर बहस या चिंतन शुरू होता है तो साफ दिखता है कि व्यवस्था और संकीर्ण सोच ने उच्च शिक्षा को दो धाराओं में विभाजित कर दिया है। शिक्षा के मामले औपनिवेशिक नीतियां आजादी के बाद भी  लागू रहीं और आर्थि सुधार के दौर में उन्हें और भी मजबूत घेरों में विभाजित कर दिया गया। आजदी के तुरत बाद शिक्षा में सुधार के लिये ग​ठित सरकार कमिटी ने राष्ट्र निर्माण के लिये तकनीकि या पेशेवर शिक्षा को बढ़ावा देने की सिफारिश कर दी। यही नहीं राष्ट्रीय विकास के नाम पर 1986 में आम शिक्षा और तकनीकी शिक्षा के लिये अलग अलग विश्वविद्यावलयों का अनुमोदन किया गया। जवाहर लाल नेहरू के काल में विज्ञान , कला और अभियांत्कि शिक्षाओं को बराबर तरजीह दी गयी। नेहरू का मानना था कि इससे देश सामाजिक आर्थिक विकास होगा। पर यह बाद में लागू नहीं रहा।  नेहरू ने शिक्षा का उद्देश्य जो तय किया था उसी के अनुरूप विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग ने अनुमोदन किया कि विश्वविद्यालयी शिक्षा के  विस्तार विवेक का विस्तार तथा व्यवसायिक शिक्षा की व्यवस्था करना। लेकिन बाद में इसी उद्देश्य को तरजीह देकर व्यवसायिक शिक्षा से साधारण शिक्षा को अलग कर दिया गया। नतीजा क्या हुआ। इतने ही वर्षों में विवेक को बढ़ावा देने वाली शिक्षा सामाजिक विभाजन और बेरोजगारी का वाहक हो गया दूसरी तरफ एक सीमा के बाद जा कर व्यवसायिक शिक्षा भी उपयोग के अयोग्य नौजवानों को पैदा करने की तंत्र बन गयी। नतीजा हुआ कि हमारे देश का नौजवान समूह  सियासती खेमेबाजी का शिकार हो गया और विवेकहीनता ने पैर पफसारना आरंभ कर दिया। आज जो हालत है वह इसी व्यवस्था का प्रतिफल है। एक ही विश्वविद्यालय में अलग अलग सियासी खेमे खड़े हो गये हैं और वे खेमे पृथक सोच का केंद्र बनते जा रहे हैं। लंेकिन देश को तो इस तरह से तो नहीं चलाया जा सकता है। शिक्षा के केंद्र रोजगार के योग्य युवक पैदा करने के कारखाने नहीं बन सकते और ना रोजगार के लोभ में उसे कारपोरेट इगो से संचालित होने वाले परिसर में बदला जा सकता है।

कैसी मसालें लेकर चले तीरगी में आप

जो रोशनी थी भी वोभी सलामत ना रही

यह तो स्वीकार करने में किसी को आपत्रि नहीं होनी चाहिये कि नौजवान हमारे देश की ऊर्जा के उत्स हैं और उनकी ऊर्जा को ​िसयासत के इंजन में डाल कर बर्बाद नहीं किया जा सकता। इसके लिये जरूरी है कि व्यावसायिक शिक्षा और आमशिक्षा के बीच की सीमा रेखा को समाप्त किया जाय एवं चितन तथा विवेक के विकास पर जो दिया जाय जिससे हुनर और कौशल के साथ साथ देश का नौजवान विवेकशील भी बने। विभाजन की व्यवस्था जब की गयी थी तो उस समय समेकित रूप में सामाजिक और आर्थिक विकास का लक्ष्य नहीं तय किया गया था , पर आज अगर ऐसा नहीं हुआ तो एक तरफ रोजगार के अयोग्य युवको की बढ़ती तादाद और दूसरी तरफ विवेकहीन ऊर्जा से आप्लावित विशाल फौज। देश को किस मोड़ पर पहुंचायेगा इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है।

 

 

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