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Thursday, May 12, 2016

बच्चों के रिपोर्ट कार्ड के प्रति संवेदनशील बनें

अभी हफ्ता दस दिन ही हुये होंगे जब अखबारों में दिल को दहला देने वाली एक खबर आयी थी कि कोचिंग के केंद्र कोटा में एक किशोरी कन्या ने केवल इसलिये आत्म हत्या कर ली कि जे ई ई में उसे इच्छानुरूप अंक नहीं प्राप्त हंये थे। इस घटना पर कोटा के कलक्टर ने एक पत्र लिख कर अभिवाकों को संदेश दिया था कि अपनी महत्वाकांक्षाएं अपने बच्चों पर ना लादें। उस घटना के बाद अभी हाल में आई सी एस सी बोर्ड तथा आई एस सी बोर्ड के नतीजे आये और उसके बाद कई बच्चों के अवसाद ग्रस्त हो जाने की खबरें आयीं। यह परीक्षा परिणामों का मौसम है। अभी केंद्रीय बोर्ड और राज्यों के शिक्षाबोर्ड्स के भी नतीजे आयेंगे। सारी परीक्षाओं में कोमलमन किशोरों के ही भविष्य दांव पर हैं। लेकिन हमारे समाज और उसके नेताओं ने कभी भी कलेजे को टुकड़े-टुकड़े कर देने वाली इस समस्या पर समाज को संदेश नहीं दिया। इससे साफ जाहिर है कि हमारे भविष्य के बारे में वे कितना जागरूक हैं। परीक्षाओं के नतीजो के बाद सोशल मीडिया और अखबारों में उन छात्रों की तस्वीरें छपती हैं जिन्होंने अधिकाधिक अंक प्राप्त किये हैं। उनके रिपोर्ट कार्ड्स को दिखाया जाता है और उनके तौर तौरीकों का वर्णन किया जाता है। लेकिन जो छात्र ऐसा नहीं कर पाये वे अंधेरे कोने में सिसकते रहते हैं, दोस्तों तथा अभिभावकों की निगाहों से बचते हैं , कुछ तो बाहहर निकलना ही बंद कर देते हैं। यहां कम अंक की भी अलग अलग परिभाषा है। कुछ बच्चों के लिये 90 प्रतिशत से कम नम्बर लाना ही पिछड़ जाना है, कुछ के लिये अपने दोस्तों की तुलना में कम नम्बर लाना ही पिछड़ना है, कुछ बच्चों के अच्छे संस्थहान में प्रवेश के कटमार्क हे कम नम्बर लाना ही असफलता है और कुछ के लिये फेल होना नाकामयाबी है। यही हाल प्रतियोगी परीक्षाओं का भी है। मेडिकल , इंजीनियरिंग की प्रवेश परीक्षाओं में भी रैंक को लेकर कुछ ऐसी ही बात होती है। यानी हमारा किशोर छात्र समुदाय सफलताओं के कई खानों में बंटा हुआ है और अवसाद के भी उतने ही स्तर हैं। स्तर चाहे जितने हों लेकिन हमलोगों में से लगभग सभी लोगों ने इन स्थितियों को लेकर छात्रों के मोभावों में अवसाद के विभिन्न नतीजों को कई बार देखा होगा। खास कर परीक्षा परिणाम जब सार्वजनिक चर्चा का विषय बन जाएं, अखबारों की खबर बन जाएं। ऐसा क्यों होता है?इस तरह की स्थितियों की डायनामिक्स क्या है और उसकी चालक ऊर्जा क्या है? गौर से देखें तो पायेंगे कि इसके पीछे तीन कारण हैं। पहला , खुद छात्र, दूसरा अभिभावक और तीसरा हमारा समाजिक वातावरण या यों कहें समाज।

अपने बच्चों को लेकर अति महत्वाकांक्षी अभिवक समाज में व्याप्त गलाकाट अमानवीय प्रतियोगिताओं से आतंकित होकर बच्चों पर बेहद दबाव डालते हैं। यह दबाव केवल किताबों या कोर्स की पढ़ाई में अव्वल आने के लिये नहीं बल्कि अन्य गतिविधियों में भी आगे रहने के लिये होता है। अब बच्चों की अपनी प्रतिभा की भी एक सीमा होती है। बच्चे भीतर से डरने लगते हैं। ये हालात कई बच्चों में एक खास किस्म का मनोवैज्ञानिक आतंक जिसे मनोविज्ञान की शब्दावलि में ‘संवृतिभीति’ कहते हैं। यानी उसे कई स्थानों खास कर कक्षा या घर म से डर लगने लगता है। वे एक अजीब किस्म की लाचारी का शिकार हो जाते हैं। जब रिजल्ट निकलते हैं और बच्चे मनोनुकूल कामयाबी नहीं पाते हैं तो उनकी स्थिति बड़ी भयानक हो जाती है। एक तरफ तो वे यह सोचते हैं कि मेरे कारण मेरे मां- बाप की सोसायटी में भरी बेइज्जती हो रही है। वे एक काल्पनिक आतंक के जाल में फंस जाते हैं। एक तरह से वैचारिक तौर पर लकवाग्रस्त हो जाते हैं।   इसके बाद वे वह करते हैं जो उन्हें नहीं करना चाहिये। अवांछनीय राहें अपनाते हैं।अभिभावक को इसका इल्म तक नहीं होता कि उनकी संतान किन संतापों से गुजर रही है। अपनी महत्वाकांक्षाओं के परकोटे पर खड़े मां इतने संवेदनशील हो नहीं पाते कि संतान की उस पीड़ा को महसूस कर सकें। ऐसी स्थिति में जहां बच्चे का आत्मविश्वास समाप्त हो जाता है वहीं मां बाप से प्यार के बदले शर्मिंदगी महसूस करने लगता है। ऐसे मौके पर मां बाप को चाहिये कि वे अपनी महत्वाकांक्षा को किनारे रख कर बच्चे से मित्रवत आचरण करें। उन्हें उस वातावरण से दूर कहीं घुमाने ले जाएं। बच्चे को यह समझाएं कि उनके लिये रिजल्ट से ज्यादा उनका बेटा प्यारा है। वे बच्चों से उम्मीद इस लिये नहीं करते हैं कि समाज में उनका रुतबा बढ़ेगा बल्कि इसलिये करते हैं कि बच्चे का भविष्य आसान होगा। बच्चों में यह भाव पैदा करना चाहिये कि उनका प्यार अपनी औलाद के लिया बिना किसी शर्त के है। बच्चों को भी यह सोचना चाहिये कि मां बाप इसलिये चाहते हैं कि वह परीक्षा में अच्छे नम्बर लाये ताकि अगली कक्षा में उन्हें अधिक दिक्कतें नहीं होंगी। ​फिर भी सभी छात्र की एक सीमा होती है और वह उससे आगे नहीं जा सकता है, इसलिये हालातों से समझौता कर उसे आगे बढ़ना सीखना चाहिये। इससे छात्रों को असफलता में भी सीखने का मौका मिलेगा और वह खुद भीतर से ताकतवर बनेगा।

विकल्प मिलेंगे बहुत मार्ग भटकाने के लिये

संकल्प एक ही बहुत है मंजिल तक जाने के लिये

छात्रों को चाहिये कि रिजल्ट के पूर्व वे कोड़ी देर के लिये एकांत में एकाग्र मन से यह सोचें कि खराब रिजल्ट उनके माता पिता को समाज में अपमानित नहीं करेगा बल्कि इसके बाद उठाया गया उसका खराब कदम मा बाप के प्रेम को लांछित कर देगा। यह समाज में ज्यादा अपमान जनक होगा।

मेरे बारे में कोई राय ना बनाना गालिब

मेरा वक्त भी बदलेगा और तुम्हारी राय भी

समाज को भी सोचना चाहिये कि किसी बच्चे के खराब परीक्षा परिणाम को लेकर ज्यादा चर्चा अच्छी बात नहीं है।  दुनिया में बिल गेट्स से लेकर अजीम प्रेमजी तक कई ऐसे लोग हैं जिन्होंने बहुत ज्यादा अकादमिक सफलता नहीं पायी पर उन्होंने दुनिया को बता दिया कि किताबी ज्ञान से अलग भी हुनर पैदा लेते हैं। यह तो बच्चे का भविष्य बतायेगा कि वह कहां पहंचेगा अभी से निंदा चर्चा कर एक बच्चे के भविष्य को कुंद कर देने से कोई लाभ नहीं होता। कवि नरेश अग्रवाल ने लिखा है,

शिक्षा कोई प्रकाश नहीं है

अपने आप में

 सिर्फ तरीका है

हमें अंधकार से

प्रकाश में ले जाने का

सियासत के दांव पेंच से अलग हमारे समाज के अगुओं को, शिक्षकों और अभिभावकों को चाहिये कि वे समन्वित प्रयास से एक ऐसे वाता वरण का सृजन करें जिसमें ऐसी घटनाएं ना हों।

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