कभी देश की सबसे पार्टी रहने वाली कांग्रेस और देश की आजादी की लड़ाई का राजनीतिक नेतृत्व करने वाली कांग्रेस आज निस्तेज हो गयी। आज इतने बड़े भारत में केवल एक प्रांत है जहां उसका शासन है , बाकी सभी जगहों पर उसे मुंह की खानी पड़ रही है। असम में वह लम्बे समय से कायम अपनी सरकार को बचा नहीं पायी और वहां भाजपा ने मैदान मार लिया। बंगाल में वामपंथियों से गठजोड़ का उसकी तिकड़म काम नहीं आयी, तमिलनाडु में क्षेत्रीय दलों से उसका हाथ मिलाया जाना कारगर नहीं और वह जयललिता को हटा नहीं सकी। केरल में भी वही हाल हुआ। वहां हर चुनाव में सत्तारूढ़ दल की पराजय एक तरह से राज्य का ट्रेंड बन चुका था पर वह भी नाकायाब रहा। अब हालत यह है कि देश के 29राज्यों में से कांग्रेस केवल 6 राज्यों में सिमट कर रह गयी उनमें आधे पूर्वोत्तर के छोटे- छोटे राज्य हैं। बिहार में वह जे डी यू के साथ गठबंधन में है और तमिल नाडु में देखें तो उसका गठबंधन पिट रहा है। 2013 से पार्टी साल दर साल अपना कद छोटा करती जा रही है। उस समय राजस्थान , महाराष्ट्र , दिल्ली और हरियाणा सहित कई महत्वपूर्ण राज्य हाथ से निकल गये। भगवा झंडा लिये पश्चिम में गुजरात से महाराष्ट्र और इधर किंदी भाषी क्षेत्र झारखंड तक तथा अब पूर्वी क्षेत्र असम में कमल खिल गया। हालांकि कांग्रेस आलोचक इसे मोदी के नेतृत्व का कमाल बता रहे हैं लेकिन सामाजिक तौर पर ऐसा नहीं है। कांग्रेस कई दशकों से लगातार क्षीण होती आ रही थी। 1947 में अंग्रेजों से आजादी पाने के बाद जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस की पहली सरकार बनी और उसके बाद से ही राज्यों में भाषा,जाति तथा धर्म के आधार पर या उसे वरीयता देने की नीति के आधार पर क्षेत्रीय पार्टियां बनने लगीं और कांग्रेस का आधार खिसकने लगा। 1960 के बाद तो यह खिसकना सबकी नजर में आने लगा और पार्टी की स्थनीय मशीनरी छिन्न-भिन्न होने लगी। यह छजन तमिल नाडु और उत्तर प्रदेश में स्पष्ट होने लगा। कई बार केंद्र में कांग्रेस की सरकारें गिरीं और उसका मुख्य कारण था धर्म और जाति का सामाजिक ध्रुवीकरण। लेकिन 2004 से हालात बदले और लगभग दस वर्षों तक यह महत्वपूर्ण राष्ट्रीय पार्टी बनी ही। 2014 में एक बार फिर सियासी सुनामी आयी और कांग्रेस को ब्हा ले गयी। भाजपा ने केंद्र की सत्ता पर कब्जा कर लिया। कांग्रेस को महज 44 सीटें मिलीं। आज भाजपा देश की सबसे ताकतवर पार्टी के रूप में उभरी है। उसके प्रभाव का दायरा परम्परागत उत्तरी और पश्चिमी क्षेत्रों से बढ़ता हुआ पूर्वी क्षेत्र में पहुंच गया। मोदी जी का कहना है कि वे कांग्रेस मुक्त भारत बनाना चाहते हैं और यह होता भी नजर आ रहा है। वह कांग्रेस के साथ जहां भी मुकाबला करती है वहां कांग्रेस कमजोर दिखायी पड़ने लगती है। असम का उदाहरण सबके सामने है। हालांकि भाजपा क्षेत्रीय पार्टियों से मुकाबले में उतनी सफल नहीं दिखती है। हालांकि कांग्रेस इस पराजय को बहुत गंभीरता से नहीं ले रही है। वह इसे पार्टी के प्रति वोटरों की ऊब या मतदान के विहेवियर में परिवर्तन बता रही है। कांग्रेस का मानना है कि विहेवियर के इसी कारण से इस बार केरल में पुराना ट्रेंड नाम नहीं कर पाया। हर चुनाव में सरकार बदल देने का वहां की जनता में एक ट्रेंड था। कुछ लोग इतिहास की नजीर देते दिखते हैं जब पार्टी एक दम खात्मे के बिन्दु पर चली गयी थी और वहां से दुबारा सत्ता के शीर्ष पर आ गयी।
सबसे बड़ा सवाल कांग्रेस के नेतृत्व पर है। अब तक पार्टी को जोड़े रयख्घ्ने में नेहरू गांधी परिवार की भूमिका पर सब यकीन करते रहे हैं। लेकिन उस परिवार के वर्तमान वारिस राहुल गांधी, जिनके पिता, दादी और नाना सब के सब इस देश के प्रधानमंत्री रह चुके हैं , अब मतदाताओं को प्रभावित करने में नाकामयाब हो गये। ना हीं , एक बड़े राजनीतिक दल को चलाने के लिवये और उसकी मुश्किलों को हल करने के लिये जिस प्रतिभा की जरूरत होती है वह उनमें नजर आ रही है। अब अगर कांग्रेस अपना पुनर्गठन नहीं करती और अन्य नेताओं को नेतृत्व में शामिल कर उन्हें जिम्मेदारी नहीं देती तो आने वाले दिन बहुत कठिन दिखते हैं। क्योंकि कांग्रेस में गिरावट सचमुच गंभीर है और उसके गलत निर्णयों ने उसकी उपलब्धियों को बौना बना दिया है। कांग्रेस पार्टी के भीतर के आलोचक साफ यह कहते सुने जा रहे हैं कि पार्टी की यह दुर्दशा परिवार के प्रभुत्व, निर्णय लेने में लड़खड़ाहट , सामंती राजनीतिक संस्कृति को बनाये रखने के कारण चाटुकारिता को बढ़ावा और पार्टी के अंदरूनी लोकतंत्र का कमजोर होने के कारण हुई। इस पार्टी की सबसे बड़ी समस्या यह है कि इसके नेता ना तो नेहरू – गांधी परिवार को छोड़ सकते हैं और ना इसके सादथ बने रह सकते हैं। कांग्रेस को अपने भीतर नयी ऊर्जा करनी होगी और ज्यादा राजनीतिक जुझारूपन दिखाना होगा। क्योंकि पार्टी एक काल्पनिक ‘मध्य मार्ग’ पर चल रही है। कभी समाज के हर वर्ग का नेतृत्व करने वाली पार्टी तेजी से अपना जनाधार खो रही है। लेकिनक अभी भी कुछ लोग इससे आशान्वित हैं। हाल में शशि थरूर ने कहा था कि ‘कांग्रेस ही सबसे विश्वसनीय राष्ट्रीय विकल्प बनी रहेगी और इसका फिर से उदय होगा।’ यह तो मानना होगा कि कांग्रेस में चाहे जितनी खामी हो लेकिन उसका बहुलतावादी चरित्र उसकी सबसे बड़ी खूबी है। वह देश की संकीर्णवादी विचारों की साफ साफ मुखालफत करती नजर आती है। इस ताजा चुनाव के परिणाम से यह पूरी तरह मुतमईन नहीं हुआ जा सकता है कि कांग्रेस एकदम खत्म हो गयी। 2004 से 2009 के बीच में कमोबेहा यही हालात थे और लगभग सभी विधानसभा चुनावों में कांगे्रेस का प्रदर्शन बहुत बढ़िया नहीं था तब 2009 में वह जीत कर आयी। हां जरूरी है कि कांग्रेस को अगर पार्टी के तौर पर कायम रहना है तो ईमानदारी से आत्म मंथन करना होगा और खुद को बदलना होगा। इन दिनों जो कहा जा रहा है कि कांग्रेस पार्टी का वक्त खत्म हो गया वह बहुत छिछली टिप्पणी है।
0 comments:
Post a Comment