इन दिनों चर्चा है कि इतिहास के पन्ने बदले जा रहे हैं, ऐतिहासिक बिम्बों को अन्य बिम्बों स्थानांतरित किया जा रहा है। यह हर सत्ता का प्रयास होता है। क्योंकि इतिहास के बिम्ब वर्तमान की अभिव्यक्तियों को स्वरूप प्रदान करते हैं और नये मसायल में बदल जाते हैं। लेकिन क्या यह सच होता है। अगर आप बिम्बों को ना भी बदलें तो वे अपने स्वरूप में कायम तो रहेंगे लेकिन आहिस्ता आहिस्ता अपने मायने बदल देंगे। यह कोई नयी बात नहीं है। एक लम्बे अर्से से सत्ता के आसनों में समय और इतिहास के प्रति एक सशंकित और पीड़ित दुविधा का भाव रहा है। वह चीज जो हमेशा बदलती है , दुनिया को बदलती हुई किसी बिंदु की तरफ बढ़ती जाती है , क्या हम बलाव की इस सतत प्रक्रिया में ऐतिहासिक बिम्बों स्थायी और उद्देश्यपूर्ण अर्थ खोज सकते हैं? अर्थ बिम्ब जिनका उद्देश्य परिवर्तन के विपरीत एक स्थिर और चिरंतन विश्वास पर टिकाये रखने की चेष्टा है क्या अपने सत्य का या होने का रेफरेन्स किसी ऐसे मूल्य में खोज सकते हैं जो स्वयं इतिहास से उपजे हैं और कभी भी अप्रासंगिक हो सकते हैं। इतिहास में बच्चों की किताबों से नेहरू को हटाया जा रहा है और ना जाने क्या क्या हो रहा है पाठ्य पुस्तकों में। नेहरू इतिहास के एक बिम्ब थे और उस बिम्ब को दूसरे से स्थानांतरित करने को अगर दर्शन की भाषा में कहें तो इसे ‘नियो रियलिज्म’ कह सकते हैं। यह एक स्थिर आवेग है जो एक ही साथ काल और कालातीत में वास करता है। लेकिन सच्चाई यह है कि एक के विपरीत दूसरे का पलड़ा भारी होते ही बिम्बों की गरिमा नष्ट होने लगती है और मनुष्य अपने मनुष्यत्व के गौरव से वंचित होने लगता है। सार्त्र की माने तो यह एक अर्थहीन आवेग है जो इंसान को कहीं नहीं ले जाता है। गतिहीन मनुष्य टोटिलेटिरियन गुलामी के जाल में फंस जाता है और इतिहास के प्रति आतातायी हो जाता है। आज की भाजपा, जो पूर्ववर्ती जनसंघ थी , आपातकाल के बाद जब जनता पार्टी की सरकार बनी थी तब भी ऐसी कोशिशें हुईं थीं इरफान हबीब , रामिला थापर और बिपिन चंद्रा जैसे प्रतिष्ठित इतिहासकारों की किताबों पर बंदिशें लगा दी गयीं थीं। गांधी को धीरे धीरे डिस्कार्ड करने की कोशिश शरू हुई थी, लेकिन हुआ क्या। आज फिर बच्चों की किताब से नेहरू को हटाया जा रहा है, अम्बेडकर को बढ़ाया जा रहा है। इसका स्पष्ट संकेत राजनीतिक स्वार्थ की ओर है। यह एक स्वार्थनिष्ठ कदम है। यह जो हो रहा है यह नया नहीं है ,उसके संकेत सारी दुनिया के आदिकाव्यों में हैं। महाभारत के धृतराष्ट्र अंधता और इडिपस का अंधापन दो विभिन्न संस्कृतियों के मिमों को कितना करीब पहुंचा देता है। यह जो कुछ हो रहा है आज इतिहास के किताबों के साथ वा खंडित चेतना का परिणाम है। ऊपर बताया गया है कि 1977 में भी कुछ इस तरह की कोशिशें हुईं थीं पर क्या हुआ? आज हमारी शिक्षा व्छयवस्था जो है उसमेंसब कुछ आदर्श नहीं है और इसके लिये बेशक कॉग्रेस आलोचना का पात्र है पर इसका यह अर्थ नहीं है कि सरकार आलोचना के उत्साह में निंदा और स्वार्थ पूर्ण उद्देश्यों की पूर्ति में लग जाय। यह भी सहीहै कि कांगह्रेस के शासन काल में जो पढ़ाया गया याह जिस पाठ्यक्रम का चयन हुआ था या इतिहास की जो धारा तैयार की गयी थी वह सब आदर्श था लेकिन यह भी सही नहीं है कि इतिहास पूरी अवधारणा को ही खारिज कर दिया जाय। यह प्रमाणित तथ्य है कि भारतीय स्वतंत्रता की लम्बी लड़ाई के इतिहास में कुछ ऐसे लोगों के भी योगदान थे जिन्होंने हमारी संस्कृति की अमीरी को संदर्भ बनाकर अंग्रेजों से लोहा लिया ,यही नहीं इतिहास के पूवर्वती चरणों-कालों में भी ऐसे अनेक उदाहरण हैं, इतिहास में समुचित आदर के साथ उनका जिक्र जरूरी है। पर इसका अर्थ नहीं है कि आधुनिक भारतीय वैज्ञानिकों यह मानने के लिये बाध्य किया जाय कि भारत ने दुनिया में सबसे पहला विमान बनाया था और हमारे बच्चों को वही पढ़ाया जाय। हमारी कोशिश बच्चों को शिक्षित करने की होनी चाहिये न कि उन्हें साक्षर करने की। उद्योगों और कॉरपोरेट क्षेत्रों की रपटों को देखें तो पायेंगे कि हमारे 90 प्रतिशत स्नातक और स्नातकोत्तर नौजवान रोजगार के लायक नहीं (अनएम्पलाएबल) हैं। सरकारी रपटें बतातीं हैं कि किशोरों में आत्महत्या का सबसे बहड़ा कारण ‘खराब रिजल्ट’ है। क्या विडम्बना है कि किसान गरीबी से आत्महत्या कर रहे हैं, नौजवान बेकारी से और बच्चे हताशा से ऐसे देश में हमारे नेता जो शिक्षा में सुधार ला रहे हैं उसका उद्देश्य गुवत्ता में सुधार का नहीं शिक्षा के राजनीतिकरण का है। स्कूलों में बच्चे यह नहीं जानते कि क्या सही है और क्या गलत है। उनका ध्यान तो केवल परीक्षाओं में अच्छा डिवीजन हासिल करने पर रहता है। यह एक धीमा जहर है हमारे बच्चों की चेतना के लिये। जब अंग्रेज भारत आये थे तो उन्होंने यही किया कि हमें यानी हम भारतीयों की जीवन पद्धति में उसने हस्तक्षेप करना शुरू किया और जीवन के प्रभाव को इतिहास से परिभाषित करना शुरु किया। नतीजा यह हुआ कि इतिहास ने भारतीयों के जीवन को भूत , वर्तमान और भविष्य के कटघरों में घेर दिया। हम अपनी थाती से अलग हो गये। आज हम इतिहास के उस बिंदु पर आ गये हैं जहां पश्चिमी सभ्यता और भारतीय संस्कृति दोनो से अलगाव होने लगा है। संस्कृति के नाम जो सिखाये जाने का प्रयास है वह एक मिथक है। जरा सिंहस्थ कुंभ की ही बात रकें जिसके बारे हमारे देश के सर्वोच्च नेता ने सिफारिशें की हैं। क्या है वह , सिर्फ भीड़ , असीम कोलाहल , अंतहीन कतारें , भिखारी, गर्मी में झुलसते लोग एक मायावी स्थल की ओर बढ़ रहे हैं। इसके माध्यम से पश्चिमी सभ्यता को अवरुद्ध करने की कोशश हो रही है। एक तरफ हम अपने दरवाजे आठों दिशाओं में खोल रहे हैं और दूसरी तरफ विभिन्न संसकृतियों का प्रवेश अवरुद्ध कर रहे हैं। यह एक खंडित स्थिति है। हमें अपने नौजवानों और बच्चों को साक्षर नहीं ज्ञानी बनाना होगा और इसके लिये शिक्षा में ऐसे स्वर्थपूर्ण बदलाव को रोकना होगा।
Wednesday, May 18, 2016
पाठ्यक्रम में बदलाव के निहितार्थ
Posted by pandeyhariram at 4:21 AM
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