चुनाव खत्म हुये, नतीजे आये ओर उनपर बड़े बड़े लोग बड़े बड़े तफसिरे भी पेश किये। कई लोगों का मानना था कि भाजपा ने सभी राज्यों में मनोनुकूल सफलता इसलिये नहीं पायी कि वहां क्षेत्रीय दलों का दबदबा था। ममता बनर्जी और जय ललिता की विजय इस बात को साबित करने के लिये मुफीद मिसाल भी है। पर अगर शास्त्रीय नजरिये से देखें तो पायेंग कि इसका जवाब दो सवालों में निहित है। पहला तो पारिभाषिक है और दूसरा है कि ये छोटे- छोटे राष्ट्रीय दल और क्षेत्रीय दलों की राजनीतिक अवसंरचना क्या है। इस विषय पर आगे बढ़ने से पहले यहां यह बता देना उचित होगा कि आने वाले कुछ वर्षों में छोट छोटे क्षेत्रीय दल बड़े दलों की जगह काबिज हो जायेंगे और अभी जो क्षेत्रव्यापी क्षेत्रीय दल हें वे राष्ट्रीय दलों की भूमिका में आ जायेंगे। आम बोचाल में हम क्षेत्रीय पार्टी उसे कहते हैं जिसके वोटरों का आधार राज्य तक ही या इक्का दुक्का प्रांतों तक ही सीमित है। जैसे बंगाल में तृणमूल कांग्रेस ओर केरल में वाममोर्चा। अब यहां पूछा जा सकता है कि क्षेत्रीय पार्टी कहते किसे हैं। क्या वह पार्टी जिसकी सोच या विचारधारा एक क्षेत्र की समस्याओं या भूगोल तक ही सीमित है या दो चार चुनाव हार कर एक क्षेत्र विशेष में सिमट कर रह गयी हो। चैसे कांग्रेस का ही उदाहरण लें। दूसरी तरफ अब जैसे वाममोर्चा है। उसकी विचार धारा राष्ट्रीय है और उस स्तर पर व्यवहारिक भी है तो उसे किस कोटि में रखा जाय। जबकि केवल में ही वह सरकार में है। साथ ही बसपा जो एक राज्य में है पर उसका दलित एजेंडा क्षेत्र की ही समस्या नहीं है। तर्क चाहे जो हो कांग्रेस ,भाजपा, वाममोर्चा और बसपा मुकम्मल तौर राष्ट्रीय पार्टी हैं। इनकी विचार धारा भी राष्ट्रीय है। अब दूसरी बात पर आयें क्षेत्रीय शब्द का उद्भव भाषा वैज्ञानिक है और क्षेत्र से जुड़ा है। लेकिन भाषा के आधार पर क्षेत्र का बटवारा हो रहा है। अभी विदर्भ का उदाहरण देखें और तमिल इलाकों में भी ऐसा ही देखा जा रहा है हो सकता है कल गोरखा लैंड भी एक हकीकत हो जाये। लेकिन आने वाले दिनों में क्षेत्रीय भाषा अपनी अहमियत खो देगी और विकास की नयी मांग के साथ क्षेत्रीय दलों का उत्थान शुरु होगा जिसमें जाति , धर्म, सामाजिक वर्ग और शहरी – ग्रामीण कई तरह के गुणक कार्य करेंगे। अब जैसे जम्मू और कश्मीर एक क्षेत्र है या तीन क्षेत्रों –जम्मू , कश्मीर और लद्दाख - का एक फेडरेशन है , दिल्ली क्या है एक राज्य है या क्षेत्र है या शहरी मिनी प्रांत है। उसी तरह मुम्बई क्या है महाराष्ट्र है या भविष्य का इक शहरी सूबा है जिसकी मुख्य गतिविधि व्यावसायिक है वैसे ही बंगलुरु क्या है एक शहर या अंतरराष्ट्रीय केंद्र। राजनीतिक विश्लेषक अक्सर यह कहते सुने जाते हैं कि क्षेत्रवाद बढ़ रहा है जबकि सच तो यह है कि लोगों आकांक्षाएं बढ़ रहीं हैं। आने वाले दिनों में पार्टियां चाहे वे क्षेत्रीय हों या राष्ट्रीय अपने मतदाओं के अनुरूप अपना एजेंडा तैयार करेंगीं। भारत का राजनीतिक भविष्य अब तीन गुणकों पर आदारित होगा, उप क्षेत्रवाद ,क्षेत्रवाद और राष्ट्रीय। दिल्ली में अरविंद केजरीवाल की विजय का कारण भ्रष्टाचार के खिलाफ उनका आंदोलन नहीं था बल्कि उन्होंने दिल्ली को एक शहरी सूबे की नजर से देखा और स्कूल, सफाई, सुरक्षा, रोड जाम जैसे मसलों को उठाया। दूसरी तरफ भाजपा मोदी को लेकर उलझी रही। एक शहरी सूबा राष्ट्रीय आधार पर नहीं चल सकता है। उसकी अपनी समस्याएं हैं अपनी जरूरतें होती हैं। अगर ताज खत्म हुये चुनाव की ही बात लें तो पायेंगे कि उपक्षेत्रीय प्रभावों ने चुनाव में बड़ी भूमिका अदा की। बंगाल में 27 प्रतष्मिस्लिम आबादी है और बिहार और बंगाल से सटे सीमावर्ती चुनाव क्षेत्र में कांग्रेस को अच्छी सफलता मिली जबकि तृणमूल को उतने वोट नहीं मिल पाये। वही हालत तमिल नाडु में भी देखने को मिली। वहां द्रमुक को शहरी पार्टी माना जाता है और उसे उत्तरपूर्वी और दक्षिणी जिलों में ज्यादा वोट मिले। यही नहीं मुस्लिम दलों में तेजी उभार हो रहा है। महाराष्ट्र असम और हैदराबाद में तो वे दिखने भी लगे हैं , केरल असी तरफ बढ़ रहा है। इस समय यह सोचना भी गलत होगा कि मुस्लिम अपना दल नहीं बना सकते। जब मराठा और यादव और दलित अपनी पार्टी बना सकते हैं तो मुस्लिम क्यों नहीं। जबकि वे सबसे बड़े जाति समूह हैं। केरल में भाजपा के गठबंधन और बी डी जे एस को 15 प्रतिशत वोट मिले। इसका साफ मतलब है कि वहां के हिंदू यह महसूस कर रहे हैं कि अल्पसंख्यक सियासत में उन्हे हाशिये पर पहुंचाया जा रहा है। यही हाल असम में भी देखा गया। वहां तो चुनाव के नतीजों से साफ संकेत मिलता है कि मुकाबला हिंदू बनाम मुसलमान था। बहुत जल्द वहां धामिक और अस्तित्व का संघर्ष शुरु होने वाला है। यही नहीं इस चुनाव से साफ संकेत मिल रहे हैं कि असम में वोट का पैटर्न दो तरह का था पहला, हिंदू गठबंधन को और दूसरा गैर हिंदू गठबंधन के यरूप में सामने आये।
इन सारे हालात से संकेत मिल रहे हैं कि भारत के राजनीतिक मानचित्र में जल्दी ही बदलाव आयेगा और अगर क्षेत्रीय दल व्यापक फेडरल पार्टियों में सम्मिलित हो जाते हैं तो उनका भविष्य सुनिश्चित है। भारत तेजी से विकसित हो सकता है बशर्ते सत्ता निम्नतम स्तर से विकसित हो हालात बताते हैं कि देश अब दिल्ली या राज्यों की राजधानियों से नहीं चल सकता। आने वाले राजनीतिक स्वरूप में बदलाव के संकेत मिल रहे हैं।
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