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Wednesday, May 4, 2016

बढ़ते अकाल से गृहयुद्ध का खतरा

 कहते हैं कि भारत माता ग्रामवासिनी या किसान अन्नदाता होते हैं या देश में गांवों का विकास होगा तभी देश का विकास होगा , लेकिन ये सब केवल नेताओं के लुभावने नारे हैं। गरीबी और लाचारी से जूझते किसान आत्म हत्या कर रहें और नेता आगुस्ता हेलीकाप्टर या पनामालीक्स के मासले से सियासत में छौंक लगा रहे हैं। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि 1995 से 2014 के बीच देश में गरीबी तथा लाचारी से जूझने में असफल 2,96,438 किसानो ने आत्म हत्या की। यही नहीं खुशहाली के बड़े बड़े वायदे कर के पीए बने मोदी जी के कार्यकाल में 2015 के 365 दिनों में 1200 से ज्यादा किसानों आत्म हत्या की। हालात सुधरने का नाम नहीं ले रहे। इस वर्ष के 90 दिनों में  273 किसानों ने आत्म हत्या कर ली। खबरों की मानें तो लातूर की एक महिला ने नर्स की ट्रेनिंग के लिये नाम लिखाना चाहा पर उसके किसान पिता फीस नहीं दे पाये और पिता ने आत्म हत्या कर ली। भूख से बिलबिलाते बच्चों, पढ़ नही पाने के कारण अफसोस करते बच्चों के पिता के सामने आत्म हत्या के अलावा क्या साधन है। यहां सवाल होता है कि आखिर उपज होती क्यों नहीं है और जो उपज होती है वह इतनी सस्ती क्यों बिकती है?

वे तुम्हारी आत्महत्या पर अफसोस नहीं करेंगे

आत्महत्या उनके लिये दार्शनिक चिंता का विषय है

वे इसकी व्याख्या में सवाल वहीं टांग देंगे

जिस पेड़ पर तुमने अपना फंदा लगाया था

अनाज जब किसान के घर में आता है तो उससे ज्यादा आशायें उसके घर में आती हैं। लेकिन जब वह अनाज लेकर बाजार में जाता है तो सारी आशायें धूल में मिल जाती हैं। साहूकार मनमानी दाम देता है उस पर से कर्जे का बोझ। हाथ में कुछ भी नहीं आता। हमारी सरकार ग्लाबल वार्मिंग पर समझौते करती चल रही है। वज्ञानिक बताते हैं ​कि ग्लोबल वार्मिंग से तापमान बहढ़ेगा, बर्फ पिघलेगी , शहर डूब जायेंगे वगैरह – वगैरह। परन्तु इंटर गवर्नमेंटल पैनल ऑव क्लाइमेट चेंज ( आई पी सी सी) की 2015 की रपट में कहा गया है कि ग्लोबल वार्मिंग का असर जो वैज्ञानिक बता रहे हैं उससे ज्यादा खतरनाक हैं, वह है बढ़ती भूख की विभीषिका, उसके फलस्वरूप बढ़ते अपराध, सामाजिक विपयर्य, युद्ध, शरणार्थियों का दबाव इत्यादि। यह तो केवल एक संकेत है। विश्व मौसम विज्ञान संगठन के अध्यक्ष माइकल जुराड के अनुसार अगले 30- 35 वर्शो में दक्षिण एशिया की हालत बेहद खराब हो जायेगी। मौसम में बदलाव के कारण इस क्षेत्र में गेंहूं , चावल, चना और गन्ने की उपज में भीषण गिरावट आयेगी, जिससे भयानक गृहयुद्ध भड़क जायेगा और महामारी फैल जायेगी। फिजीकल रिसर्च लेबोरेटरी अहमदाबाद की ताजा रपट के मुताबिक बारिश की अवधि औसतन 75 दिनों से घट कर 37 दिन हो गयी है और जिससे गैती चौपट हो रही है, वनस्पितियां सूख रहीं हैं , नल कूपों का जल स्तर गिर रहा है और उन्हें सुधारने के लिये किसानों के पास धन नहीं है,  मवेशी मर रहे हैं और किसान तेजी विपन्न होते जा रहे हैं। सरकार की निष्क्रियता और उचित योजना के अभाव में खेती करने वाले मरने को मजबूर हो रहे हैं। अब प्रश्न उठता है कि किसानों की दशा सुधारने के लिये क्या सरकार में इच्छाशक्ति नहीं है? इसके अलावा मौसम की भविष्यवाणिया जो किसानों के लिये कामयाब हो सकतीं हैं वह गलत क्यों होती हैं। मौसम वैज्ञानिकों के अनुसार हमारी सरकार में मौसम अनुसंधान को बढ़ावा देने की कोई योजना नहीं है। राजनीतिक जमूरे बाजी और नेताओं के ऐशो आराम एवं विदेश यात्राओं पर बेशुमार दौलत खर्च होती है पर मौसम के आंकड़े एकत्र करने के लिये हम यूरोप पर मोहताज हैं। हमारे पास अपना कोई देसी साधन नहीं हैं।  

वे जानते हैं कि गेहूं की कीमत लोहे से कम है

और इस समय वे लोहे की खेती में व्यस्त हैं

इस समय ग्रामीण इलाकों में खपत में कमी और देहातों में बढ़ती परेशानी गंभीर चिंता का विषय बन चुकी है। यह चिंता इसलिए भी बढ़ गई है कि खराब मौसम की मार के चलते कृषि क्षेत्र का संकट इस साल और गहराने की आशंका है। दूसरी ओर, वैश्विक स्तर पर बाजार के असामान्य व्यवहार और कीमतों में गिरावट ने देश के कृषि क्षेत्र के लिए एक और संकट खड़ा कर दिया है। वैसे यह हाल पिछले दो साल से लगातार बना हुआ है। इन दो सालों में देश ने सूखा देखा है और बेमौसमी बरसात भी देखी है। यह लगातार तीसरा वर्ष है, जब गेहूं और प्रमुख रबी फसलों का बुआई क्षेत्र कमजोर रहा है। बीते छह साल में हर वर्ष फसल मौसम की नमी में कमी आई है। लेकिन 2015-16 में फसल मौसम सबसे गरम रहा है। इस बार रबी सीजन में करीब 18 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में बुआई कम हुई है, इसलिए उत्पादन कमजोर रह सकता है। इसका असर कीमतों पर पड़ेगा। गेहूं, दालों और तिलहनी फसलों के दाम बढ़ने की आशंका है।

यह सब उस समय हो रहा है, जब सरकार ने कृषि क्षेत्र में चार प्रतिशत की वृद्धि दर हासिल करने का लक्ष्य रखा है। कृषि क्षेत्र में ऊंची वृद्धि हासिल करने के लिए सार्वजनिक और निजी निवेश बढ़ाने की जरूरत है। सरकार के झोले में ऐसी बहुत-सी योजनाएं हैं, जैसे मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजना, राष्ट्रीय कृषि विकास योजना, प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई विकास योजना। ये सब योजनाएं किसानों के लिए फायदे की हो सकती हैं, बशर्ते सरकार पर्याप्त धन उपलब्ध कराए। सबसे जरूरी चीज है नई ‘प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना’ को जमीन पर उतारना। निजी क्षेत्र की मौसम एजेंसी स्काईमेट और एसोचैम के एक अध्ययन के मुताबिक, भारत के करीब 14 करोड़ किसान परिवारों में से 20 प्रतिशत से भी कम फसल बीमा कराते हैं। यही वजह है कि मौसम की मार पड़ने पर उनकी स्थिति खराब हो जाती है। कर्ज लेने वाले किसान भी बीमा नहीं कराते, जबकि उनके लिए बीमा कवर जरूरी है। असल समस्या योजना लोगों तक पहुंचाने की है। आज समाज में हिंसा बढ़ रही है आत्महत्यायें इसी हिंसा का एक स्वरूप हैं। इसके बाद देश में देसी आतंकवाद, जिसे सरकार गृह युद्ध कहती है,अगर सिर उठाने लगे तो हैरत नहीं होनी चाहिये।

लोहे की खेती के लिये ही

उन्होंने आदिवासी गांव में

फौज के साथ डेरा डाला है

उन्हें आत्म हत्याओं से डर नहीं लगता

उन्हें प्रतिघाती हत्याओं से डर लगता है

तुम आत्महत्याएं करोगे

तो वे गोलियां चलाने बच जाएंगे

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