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Saturday, May 14, 2016

विमर्श ,मोदी जी की डिग्री के बहाने

पहले स्मृति इरानी और अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की डिग्री को लेकर एक भारी सियासी बवंडर चला। शिक्षा विभाग लाचार है उन कागजात को खोज पाने में। यह कोई अजूबा नहीं है और ना इसका को खास महत्व है केवल राजनीतिक शोर शराबे के। लेकिन यदि इसके समाजवैज्ञानिक पक्ष को देखें तो एक बड़ी समस्या दिखेगी जिससे हम भारती ग्रस्त हैं। वह समस्या है अपाने प्रमाणपत्रों, वर्तमान दस्तावेजों तथा कला के महत्व की वस्तुओं की हिफाजत नहीं करने की सामाजिक सर्वकालिक आदत। समाज के बदलाव की डायनामिक्स को समझने के लिये इतिहास को समझना जरूरी होता है और इतिहास अक्सर अतीत के बिम्बों से समझा जा सकता है। जैसे राष्ट्रवाद हम भारतीयों का चरित्र है। इस चरित्र को अगर विश्लेषित करें तो पायेंगे कि पीढ़ी दर पीढ़ी जो आदते चली आ रहीं हैं वही आगे चल कर चरित्र बन गयीं। अब यह हमारा राष्ट्रीय चरित्र है कि हम अपने कागजात चाहे वे दस्तावेज हों या हस्तलिपियां हों या स्मृति चिन्ह हों या कला के महत्व की वस्तुएं हों , उन्हें हम संजो कर नहीं रखते। आप कहें ज्क आपके परदादा जी बहुत बड़े विद्वान थे, बेशक होंगे पर कोई कहे कि उनका कुछ लिखा दिखायें तो मानें। अब आपके हाथ पांव फूल जायेंगे। विख्यात इतिहासकार डा. बी बी मिश्र के अनुसार ‘जब वे भारत चीन सम्बंघों  के इतिहास की पड़ताल कर रहे थे तो दुनिया के 6 प्रसिद्ध पुस्तकालयों में ह्वेन सांग की डायरी के छ: वर्जन मिले और सभी सामाजिक स्थितियों का अलग अलग बयान कर रही थी।’ यही नहीं हमरे भारत की सभ्यता संस्कृति के 3000 वर्ष पुराने सबूत हैं पर यदि किसी से कहा जाय कि एक हजार साल के कोई प्रमाशिक दस्तावेज दिखायें तो आप निरुत्तर हो जायेंगे। कितनी शर्मनाक बात है कि हम भगत सिंह और नेताजी जैसे महापुरुषों के इतिहास के लिये सरकारी दस्तावेजों पर निर्भर रहते हैं। अपने इतिहास को सिरक्षित रखने में सरकार या शासन व्यवस्था की नाकामयाबी एक तरह से सामाजिक जिम्मेदारी, संस्कृति और राष्ट्रीय पहचान  के अभाव तथा अनादर का लक्षण है। हममें से बहुत लोग मिलेंगे जिनसे कहा जाय कि वे अपने विवाह का प्रमाणपत्र, जन्म प्रमाणपत्र या स्कूल के समय के प्रशंसापत्र को दिखायें तो बहुत लोग ऐसे मिलेंगे जो ये सब नहीं दिखा पायेंगे। यही नहीं बहुत से लोग तो माध्यमिक की परीक्षा पास करने का प्रमाणपत्र भी नहीं दे पायेंगे बेशक एम ए , बीए की डिग्री झुलाते घूमाते हैं। दरअसल हमारे समाज में डिग्री या सर्टिफिकेट्स का महत्व केवल तदर्थ होता है, नौकरी पाने के लिये या पासपोर्ट इत्यादि बनवाने के लिये। इसके बाद हम भूल जाते हैं कि वह कहां है। जहां तक पत्रों, लिखित दस्तावेजों का प्रश्न है , हम उन्हें आसानी से भूल जाते हैं। जबकि दूसरे समाज में इन्हें बेहद एहतियात से संभाल कर रखा जाता है। बेशक अगहर इस पर कोई सवाल उठाये तो यहां के वाग्वीर आनन फानन में स्थान और तकनीक के अभाव को सामने रख देंगे और पूछने वाले की बोलती बंद कर देंगे। लेकिन हमारी नाकामयाबी बेहद है।  अगर हम आपसे पूछें कि भगवद्गीता की उपलब्ध सबसे पुरानी प्रति कितनी पुरानी है, आपके पास जवाब नहीं होगा। कालिदास की महान कृति धूल फांकने के लिये पड़ी मिलती है।  लेकिन लंदन में शेक्सपीयर की हस्तलिखित प्रति लोगों के देखने लिये रखी है आप वहां जाकर देख सकते हैं। हमारे महान रचनाकारों की महान हजारों कृत्तियों की एक दहाई भी सुरक्षित नहीं मिलेगी। इन महान कृतियों का सबसे बड़ा खजाना हमारे विश्वविद्यालयों के पुस्तकालय हैं। हम अगर अमरीकी कांग्रेसे की लाइब्रेरी या हार्वड की लाइब्रेरी की तुलना अपने पुस्तकालयों से करें तो बड़ी विपन्नता दिखेगी। इस मामले में हम अगर कला के महत्व की वस्तुओं की बात करते हैं तो हम और पिछड़े नजर आयेंगे। बड़ी बड़ी म्यूजिम में आप ज्यादा से ज्यादा रविवर्मा के चित्र पायेंगे बाकी सब गायब या आधे अधूरे दिखेंगे। रविवर्मा मध्यकालीन इतिहास के काल के थे प्राचीन काल की पेंटिंग्स कहीं नहीं दिखेंगी। वास्तविकता यह है कि आरंभिककाल में हमारे देश में विद्या श्रव्य थी पाठ्य नहीं थी इस लिये हमारे धार्मिक रिवाजों में लिखित ज्ञान को प्रमुखता नहीं मिली जैसा इसाइयत में होता आया है। दूसरये कि दस्तावेज संग्रह में दिलचस्पी नहीं होने के कारण वक्त के हाकिम एवं आज के राजनीतिज्ञ उनमें गड़बड़ी करते आये ताकि उनका अपना एजेंडा पूरा हो। अब एक उदाहरण देखें शहीद भगत सिंह को अंग्रजों के लिखित दस्तावेज में कुछ और कहा गया है जबकि हमारे समाज में वे पूजनीय हैं। ऐसे कार्यों के लिये अक्सर औपचारिक विद्वता जरूरी होती है। हमारे धामिक रिवाज में इसका प्रावधान है पर यह अनिवार्य नहीं है जबकि इसाइयत में यह अनिवार्य है इसलिये बताया जाता है कि वैटिकन का पुस्तकालय इसाई धर्म के लिखित दस्तावेजों का सबसे बड़ा संग्रह है। हम तो यानी हमारे देश में मध्यकालीन इतिहास की बाबरी मस्जिद और ताजमहल को लेकर ही कई दलींलें हैं। सब अपनी दलील को सही कहते हैं, ऐसे में निर्णय क्या होगा? यह तो पुरानी बात है। आज भी हमारे देश में सार्जिनिक अभिलेखों के संचय का कोई जिम्मेदार और वश्विसनीय तरीका या नियम नहीं है। एक आदमी सरकार को पत्र लिखता है। आज वह सार्वजनिक होता है इसके बाद यदि सरकार बदलती है तो राजनीतिक सुविधा या असुविधा के मुताबिक उसे रखा तथा जारी किया जाता है। नेताजी के फाइलों को सार्वजनिक करने का जितना सामाजिक और ऐतिहासिक मूल्य नहीं है उससे ज्यादा उसका राजनीतिक मूल्य है। यही बात मोदी या स्मृति इरानी की डिग्री के साथ भी है।  हमें यह सब छोड़ कर  पहले दस्तावेज संग्रह की तकनीक और रिवाज का विकास करना होगा।

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