उत्तराखंड की सियासत जहां से चली थी वहीं आ कर ठहर गयी, कहते हैं ना कि ‘ना खुदा मिला ना विसाले सनम।’ कई दिनों तक कांग्रेसी और भाजपाई योद्धा ताल ठोंकते रहे और अंत में वही हुआ जैसा पहले था। इस मसले पर राज्य सभा में कई कई किश्त जम कर बहस हुये और अंत में जनता ने इन बहसों का नोटिस लेना छोड़ दिया। बागी विधायकों की भयंकर खरीद बिक्री हुई, घेरे बंदी हुई और जाने क्या क्या हुआ और सुप्रीम कोर्ट ने जब फैसला दिया और जब वही हुआ जो था तो अब वे बागी विधायकों का मोल खत्म हो गया। उधर मोदी के लिये यह एक ऐसा मामला साबित हुआ जिससे उन्होंने विरोधियों को और बागी विधयकों को एक ही साथ धूल चटा दी। उनके खिलाफ स्टिंग ऑपरेशन भी हुआ और बागी विधायकों को हेलीकॉप्टर से दिल्ली लाया गया पर कुछ ना हो सका। राहुल गांधी ने कहा कि वे यानी भाजपा वाले गलत कर रहे थे और हम सही कर रहे थे और सच्चाई की जीत हुई। इस मामले को लेकर करीश रावत भी देश के सांविधानिक इतिहास के अंग बन गये। इतिहास हरबार बतायेगा कि कैसे संविधान को अनदेखा कर एक मुख्यमंत्री ने कानून की नजीर तैयार की। इतिहास में वे विधायिका के पथ भ्रष्टक माने जायेंगे। जब मामला गरम था तो सुपीम कोर्ट को भी उसमें डाला गया और सुप्रीम कोर्ट ने जो किया वह तो और अद्भुद था। विधायिका के दो अंगों के झगड़े में न्यायपालिका ने अपनी रोटी सेंक ली। इस रस्साकशी में सुप्रीम कोर्ट ताकतवर बन गया। घर का झगड़ा जब पड़ोसियों की पंचायत में पहुंचता है तब कुछ ऐसा ही होता है। पाकिस्तान खास कर कश्मीर का झगड़ा राष्ट्र संघ में गया और अब तक तू तू मैं मैं चल रही है। उत्तराखंड वाले मामले में तो जो सियासी बेइज्जती हुई है वह तो चंद दिनों विस्मृत हो जायेगी पर राजनीति खास कर विधायिका के अधिकार क्षेत्र में न्यायपालिका की पहुंच एक खतरनाक मिसाल बन गयी है। इसे सीमित कर पाना अब कठिन होगा। इसमें जो सबसे खतरनाक तथ्य है वह है कि सुप्रीम कोर्ट विधायिका, राज्यपाल और स्पीकर की भूमिका की समीक्षा करने और निर्णय करने के खेल में शामिल हो गया। अगर कहें कि राजनीतिक वर्ग ने कोर्ट को यह अवसर दिया तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। इस मामले में पहले नौ कांग्रेसी विधायकों को स्पीकर ने निलम्बि किया था और अदालत ने विश्वास मत के समय उनकी उपस्थिति का अनुमति दे दी। इससे विधायिका में एक नयी परम्परा की शुरूआत होती है कि अब किसी विधायक के निलम्बन का अंतिम अधिकार स्पीकार के पास नहीं रह गया। यह झगड़ा अब भविष्य में कोर्ट में पहुंचेगा। यह संविधान सम्मत नहीं है लेकिन अगर विधायिका और कार्यपालिका खुद ही अदालत को अपने झगड़े में डालेगी तो अदालत अपनी ताकत दिखायेगा ही। बंदरबांट वाली वह कथा सबने सुनी होगी कि दो बिल्यों में रोटी के बंटवारे के लिये बंदर पंच बना और दोनो का हिस्सा हड़प गया। यह केवल उत्तराखंड तक ही सीमित रहेगा ऐसा भी नहीं है। राजनीति में अब सिथ््ऋांतों का झगड़ा नहीं स्वार्थ का झगड़ा होता है चाहे वह तमिल नाडू हो या उत्तर प्रदेश या कोई और। हमारे विधायक सांसद इन दिनों इतने विचारहीन होते जा रहे हैं कि वे किसी भी मसले पर एक होते ही नहीं हैं। यहां तक कि जजों को नियुक्त करने के मामले पर भी उनमें मतभेद कायम रहा। ऐसे हर बात में कोर्ट की दखलंदाजी क्या संविधान में प्रदत्त विधायिका के अदिकार को कायम रहने देगी। यह एक खतरनाक नजीर सामने आयी है। उत्तराखंड में निलम्बित विधायकों को विश्वास मत के दौरान उपस्थित रहने की अनुमति से कोर्ट ने यह बताया कि स्पीकर को कैसे विश्वास मत की प्रक्रिया संचालित करनी चाहिये। यही नहीं , उत्तराखंड में किसकी सरकार रहेगी यह तो वस्तुत: विधानसभा ने तय किया पर इसकी घोषणा सुप्रीम कोर्ट ने की। मामला अभी खत्म नहीं हुआ है। भाजपा ने शिकायत की है कि बजट को बिना उचित मत विभाजन के के पारित घोषिहात कर दिया। अगर नौ कांग्रेसी विधयकों ने बजट के विरोध में मत दिया होता सरकार गिर जाती। उधर पार्टी ने उन नौ विधयकों को निलम्बित कर दिया। सरकार अल्पमत में आ जाती और इसके बाद नये नेता का चुनाव होता और सारा खेल ही पलट जाता। लेकिन , स्पीकर ने बजट पारित घोषित कर दिया और उन विधायकों को निलम्बित कर दिया। अब इस मामले पर फैसला देने का अधिकार स्पीकर के हाथ से निकल कर अदालत के हाथ में आ गया है। इधर विधान सभा में हालत यह है कि पक्ष और विपक्ष तलवारें खींचे हुये हैं। यहां अगर विधायक आहपस में यह तय नहीं कर सकते कि विधायिका के अधिकारों की रक्षा करनी है , हर मसले को अदालत में नहीं ले जाना है तो बेहतर है कि अदालत खुद मान लेकि लोकतंत्र के हर क्षेत्र में टांग अड़ाने का उसे अधिकार है , संविधान चाहे जो कहे , इसमें काई हैरत नहीं होनी चाहिये। सुप्रीमकोर्ट ने यह जो संविधान के दूसरे क्षेत्र मे प्रवेश कर कदम आगे बढ़ाने का काम किया है वह अब एक स्थापित नजीर में बदल जायेगा। इससे बचने के लिये सबसे जरूरी है कि भाजपा और कांग्रेस एक साथ बैठ कर यह तय करें कि संविधान द्वारा दिये गये अधिकारों की विधायिका रक्षा करेगी और सुप्रीम कोर्ट जो करता है वही करे तो इससेसिंविधान की हिफाजत हो कती है वरना कुछझ् नहीं हो सकेगा। इसके लिये जरूरी भी नहीं है कि राजनीतिक पार्टियां अपने मतभेद छोड़ दें। इसके लिये केवल एक निम्नतम बिंदुओं पर एकमत होना पड़ेगा। वे बिंदु हैं कि सबका झगड़ा केवल नीतियों और राजनीति तक ही रहेगा जहां कार्यपालिका और विधायिका के अधिकार की बात होगी तो सब एक हो जाएं।
Friday, May 13, 2016
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