सियासी संवाद और हमारे नेता
अपने देश में फिलहाल प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को भाषण कला में सर्वाधिक दक्ष माना जाता है, लेकिन उनके भाषणों का अगर संवादशास्त्रीय विश्लेषण करें तो वे भी कमजोर और लचर प्रतीत होंगे। डेविड एल. स्वानसन और डॉन निमो के मुताबिक राजनीतिक संवाद राजनीतिक मामलों में जनता की जानकारी , आस्था और क्रिया कलाप को प्रभावित करने का समरनीतिक उपयोग है। इन दोनों संवादविज्ञानियों ने राजनीतिक संवाद में प्रत्यायन की भूमिका और संवाद की सियासी फितरत को रेखांकित किया है। उनके अनुसार संवाद भाषा का समरनीतिक प्रयोग है। इसका मतलब है कि कोई भी विषय जिसपर कोई नयी टिप्पणी की जा सके वह सियासी संवाद के दायरे में आाता है। अब सवाल उठता है कि अपने देश में इसकी क्या िस्थति है। नेताओं के भाषणों में संवाद कला का विश्लेषण करने पर पता चलता है कि नरेंद्र मोदी के अलावा सब सिफर हैं। वे समाज के डायनामिक्स को बदलने में नाकामयाब हैं। मोदी जी को भी अपने भीतर थोड़े बदलाव लाने होंगे। अगर वे एक दूरदर्शी नेता के रूप में आगे आना चाहते हैं तो उन्हें मीडिया और आम जनता से अपने रिश्तों को औपचारिक करना होगा। वे मीडिया से क्यों कतराते हैं? वे मीडिया में अपने विरोधियों को व्यक्तिगत मुलाकातों के माध्यम से पटा सकते हें। उनके सियासी संवाद में जो दूसरी सबसे बड़ी कमी है कि वे वैचारिक तौर पर राहुल गांधी से परेशान रहते हैं। हमेशा राहुल गांधी की ही बातें करते हैं।
उधर , विपक्ष की भी वही हालत है। अन्य मसलों को दरकिनार भी कर दें तो नोटबंदी का मामला एकदम ताजा है। यह तो जगजाहिर है कि नोटबंदी जिस इरादे से की गयी थी वह पूरा नहीं हो सका औय वह बिल्कुल फेल हो गयी। परंतु, विपक्ष इसका कोई लाभ उठा सका ऐसा नहीं लगता। यह एकमनोवैज्ञानिक तथ्य है कि जनता की स्मृति बहुत कमजोर है। वह अपना दुख और सुख दोनों बहुत जल्द भूल जाती है। जनता नोटबंदी के दौरान लम्बी कतार में खड़े होने की पीड़ा भूल गयी। शुरू में तो विपक्षी नेताओं ने इसे बहुत ताकत के साथ उठाया, लोगों का समर्थन पाने की कोशिश की और जैसे ही यह महसूस हुआ कि जनता इसके पक्ष में है ,वे ठंडे पड़ गये। सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों में लड़ाई केवल सामंजस्य का था। मोदी अड़े रहे और बोलते रहे कि कालेधन के विरुद्ध लड़ाई में नोटबंदी तो महज एक कदम है। विपक्ष कुछ बोलता ही नहीं था। नोटबंदी की असफलताओं के बावजूद मोदी मतदाताओं को एक कहानी बताते रहे, जबकि विपक्ष नोटबंदी की शुरूआती लोकप्रियता से डर कर चुप बैठ गया। विपक्षी रेजीमेंट में केवल ममता बनर्जी अड़ी रहींी और शेरनी की तरह दहाड़ती रहीं। लेकिन इतने बड़े देश में उनकी भी एक सीमा है। जबकि मोदी रोज कहानी बदलते रहे। जैसे ही उन्हें महसूस हुआ कि नोटबंदी फेल हो गयी तो आनन फानन में उन्होंने कहानी बदल दी। अब वे कैशलेस अर्थव्यवस्था की बात करने लगे। मोदी ने अजेंडा ही बदल दिया। विपक्ष ने तो पहले नोटबंदी से जनता को हुई तकलीफों को ही उठाया। इसके बाद जब कहानी में कैशलेस अर्थव्यवस्था का चैप्टर जुड़ा तो वे समझ ही नहीं पाये कि इससे जना को कितना वाभ होगा और कितनी हानि होगी। उन्हें नोटबंदी की पीड़ा ओर उसकी असफलता के बीच ही कहानी बदलने की जरूरत थी। मोदी ने यूपीए के घोटालों को आधार बना कर सरकार गिरा दिया। विपक्ष की चुपपी से जनता में संदेश गया कि उसे अपने कालेधन की चिंता है। विपक्ष की सारी साख ही खत्म हो गयी। अब विपक्ष यह नहीं बता पा रहा है कि बेरोजगारी दूर करने और खुशहाली लाने के तरीके क्या हैं उसके पास। सोशल मीडिया और फेसबुक के इस जमाने में अगर विपक्ष यह समझता है कि वह उसका भ्रम है। राहुल नेता बन के उभरेंगे इसका तो सवाल ही पैदा नहीं होता। ना उनके पाशस दृष्टिकोण का विकल्प है ना ही विकल्प। पूरा विपक्ष यह बता रहा है कि मोदी गलत हैं पर वे यह नहीं बता पा रहे कि इसके समाधान के लिये उनके पास सही क्या है। मोदी गलत ही क्यों नहीं हैं पर दिन रात लगभग 400 टी वी चैनलों पर दिखते तो हैं लेकिन विपक्ष तो कुल मिला कर उनके पांच प्रतिशत भी नहीं दिखता। नतीजा यह है कि विपक्ष और जनता के बीच सियासी संवादहीनता हो रही है। अगर वह संवाद कायम नहीं कर सकी तो कुछ नहीं हो पायेगा।
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