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Sunday, November 19, 2017

भारतीय जीवन में अपराध 

भारतीय जीवन में अपराध 

सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से कहा है कि आपराधिक मामलों में फंसे राजनीतिज्ञों के मामलों की सुनवाई के लिये अलग से अदालत की व्यवस्था करे। कोर्ट ने चुनाव आयोग की उस अर्जी पर दिया कि जिसमें सुप्रीम कोर्ट से उसने दरख्वास्त की थी कि आपराधिक मामलों में फंसे राजनीतिज्ञों के मामलों सुनवाई करे ताकि उनपर आजीवन पाबंदी लगायी जा सके। कोर्ट ने भी 2014 के चुनाव तक दायर 1581 मामलों पर रिपोर्ट मांगी है। अदालत के निर्देश का भारत के सियासी और सार्वजनिक जीवन पर गहरा असर डालेगा। यह बहुतों को याद होगा कि 2002 में सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग को निर्देश दिया था कि वह चुनाव लड़ने वाले सभी उममीदवारों को आदेश दे कि वे अपने ऊपर चल रहे आपराधिक मामलों का जिक्र करते हुये शपथ पत्र दाखिल करें, ताकि वोट डालने के पहले आम मतदाता  पर मुतमईन हो जाय कि वह किसे अपना वोट दे रहा है। वह कानून तोड़ने वाले को कानून बनाने का काम सौंप रहा है। इस आदेश ने हमें भारतीय राजनीति के अपराधीकरण के फिनोमिना को जानने का अवसर दिया साथ ही उसके खिलाफ उपाय करने के मौके दिये। इन दोनों आदेशों के बीच 15 साल का अंतर है पर इससे एक बात तो साफ हो गयी कि राजनीति का व्यापक और गंभीर  अपराधीकरण हुआ है। एसोसियेशन फॉर डिमोक्रेटिक रिफार्म के आंकड़े बताते हैं कि आज की तारीख में देश में कोई ऐसी राजनीतिक पार्टी नहीं है जो अपराध लांछित सदस्यों से मुक्त हो। 16 वीं लोकसभा के 543 में से 541 सांसदों के शपथपत्रें के विश्लेषण के बाद निष्कर्ष मिलता है कि 181 सांसद दागी हैं और कई पर तो हत्या और बलात्कार जैसे मामले चल रहे र्है। आज नरेंद्र मोदी के बल पर जिस भाजपा का शीर्ष वलक्ष है उसके एक तिहाई नये सांसद दागी हैं और लगभग 20 प्रतिशत सांसद गंभीर मामलों में फंसे हैं। जनता दल के लगभग के लगभग सांसदों पर आरोप लगे हैं। कांग्रेस पार्टी और शिव सेना भी पीछे नहीं हैं।

 अब सुपीम कोर्ट का यह निर्देश चाहे जितना स्वागत योग्य हो पर भारतीय जीवन की प्रकृति और सार्वजनिक जीवन में अपराध को लेकर कई गंभीर सवाल उठते हैं। साथ ही, यह निर्देश सार्वजनिक में कितनी सफाई कर सकेगा, इस पर भी सवाल उठते हैं। भारतीय जीवन में इसकी शुरुआत आजादी की लड़ाई के समय से ही शरू हुई थी जो अब भी कायम है। चाण्क्य का वह मशहूर कथक ऐसे मौके पर याद आता है कि "  जिस तरह मछली पानी में रह कर थोड़ा पानी पीने से खुद को रोक नहीं सकती , हालांकि उसका पानी पीना किसी को दिखता नहीं हे, उसी तरह राजा के शासन में आसीन उच्चाधिकारी राजा के धन के कुछ हिस्सा खायेंगे ही।ॡ् चाणक्य का यह कथन हमारी जीवन में भ्रष्टाचार की अनिवार्यता को रेखांकित करते हें। चाणक्य ने अपनी विख्यात पुस्तक अर्थशास्त्रम में गबन के ऐसे  40 तरीकों का उल्लेख किया है जिसका उपयोग सरकारी कर्मचारी करते हैं। इसी तरह विख्यात अर्थशास्त्री मोन्टेस्कू ने भी अपने विश्लेषण में कहा है कि भ्रष्टाचार कानून के उल्लंघन के साथ ही शुरू हो जाता है। अतएव , भ्रष्टाचार मुक्त व्यवस्था की राह कानूनों के अक्षरश: पालन और अमल से होता है। यहां तक कि 1935 में भारत सरकार अधिनियम के तहत गठित सरकारों में कांग्रेस मंत्रियों में व्याप्त बुनियादी आचार सिंद्धांतों के नहीं माने जाने की मनोवृति  पर क्षोभ व्यक्त किया था। यानी, भ्रष्टाचार उस काल में भी कायम था जब लोक सेवकों सर्वाधिक नैतिकता की बात कही जाती है।  आजादी के बाद शीर्ष राष्ट्रीय नेतृत्व बेशक भ्रष्टाचारमुक्त था पर जल्दी ही उसके दानव ने शासन में अपनी जगह बना ली। नेहरू ने कहा था कि जो भ्रष्टाचार में लिप्त पाया जायेगा असे नजदीक के बिजली के खंभे से लटका दिया जायेगा। 1962 में तत्कालीन गृहमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने सार्वजनिक जीवन में संतानम कमिटी बनायी थी। उस कमिटी ने रिपोर्ट दी कि " भारत की शासन व्यवस्था में भ्रष्टाचार फैला हुआ है और उसकी जड़ें समाज में दूर तक र्फली हुईं हैं। " 1964 में जब शास्त्री जी प्रधानमंत्री थे तो उनहोंने चेतावनी दी थी कि " सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार और अपराधीकरण बहुत बड़ा दानव का रूप ले सकता है। " बाद में राजनीतिज्ञों में व्याप्त भ्रष्टाचार ने राजनीति के अपराधीकरण के दरवाजे खोल दिये। 1993 में एन एन वोहरा कमिटी की रिपोर्ट के अनुसार " पहले सांसद ओर विधायक अपराधियों को प्रश्रय देते थे,बाद में राजनीतिक नेताओं और अपराध जगत के सरगनाओं के बीच की दूरी खत्म हो गयी। इसके बाद अपराधी राजनीति में प्रवेश करने लगे।" अब यहां से एक नयी धारा शुरू हो गयी राजनीति के अपराधीकरण की। एक तरफ तो अपराधी जिन्हें हमारे राजनीतिज्ञ पार्टी को जिताने के काम में लगाते थे वे खुद भी चुनाव जीत कर सरकार में आने लगे। मों शहाबुद्दीन और लालू यादव का अदाहरण सबके सामने है। यही नहीं, आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी जैसे नेताओं पर भी आपराधिक मुकदमें दर्ज हैं। 

 उम्मीदवारों द्वारा चुनाच् लड़ने के पहले दायर शपथपत्र एक कछच अनुमान है हालांकि बहुत महत्वपूर्ण है। लेकिन इसकी गंभीर व्याख्या की जरूरत है। इसमें जो सबसे खास है कि किनके ऊपर ये अभियोग हैं। कुछ के ऊपर जबरन झूठे अभियोग लगा दिये जाते है, कुछ नेता अपने राजनीतिक आंदोलनों के तहत कानून भंग करते हैं और कुछ पुलिस तथा दबंग लोगों की मिली बगत पर गरीबों, दलितों ओर आदिवासियों पर अभियोग मढ़ दिये जाते हैं। ये सारे विषय समाजवैज्ञानिक विश्लेषण के योग्य नहीं हैं और इन आंकड़ों से राजनीति के अपराधीकरण की व्याख्या नहीं की जा सकती। राजनीति के अपराधीकरण की प्रक्रिया को खुद राजनीतिज्ञ ओर जनता ही रोक सकती है , अदालत या कोई फास्ट ट्रैक कोर्ट नहीं।  

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