हिंदुत्व और इसके विरोधी
अपने देश में इनदिनों जबसे भाजपा सत्ता में आयी तब से वामपंथी उदार वादियों कीं गतिविधियां तेज हो गयीं हैं। यह भारत में राजनीतिक क्षेत्र में एक दिलचस्प घटना है। 2014 के आम चुनाव के बाद से कई गैर दलीय समूहहों से नरेंद्र मोदी सरकार का विरोध आरंभ हो गया। ये समूह विपक्षी दलों के नहीं हैं। यह उदारवादी वामपंथियों की जमात है। जरा गौर करें चाहे वह गे रक्षा हो या नोटबंदी हो अथवा यहां तक कि गुजरात चुनाव हो कुछ खास लोग सबको मोदी के एजेंडे या राष्ट्रीय सवयंसेवक संघ के विरोध में खड़ा करना चाहते हैं। वामपंथी उदारवादी शब्द कोई नया नहीं है पर अर्से से इसका उपयोग नहीं हो रहा था क्योंकि किसी भी मामले में साफ तौर पर वामपंथी पार्टियां ही सामने दिखती थीं। वामपंथी उदारवादी समुदाय एक किस्म से अन्तर्धारा के रूप में सक्रिय रहती थी पर वह सतह तर आ गयी है। या यूं कहें निक यह चलन में नहीं था। इन दिनों इस शब्द के अर्थ और बनावट में भारी बदलाव आया है। परम्परागत वाम पंथियों और समाजवादियों से अलग इस शब्द ने पृथक छवि और सामाजिक आधार बना लिया है। उदारवादी वामपंथी विभिन्न वामपंथी दलों की आइडियोलॉजी से अलग र्है , अलग तरीके से काम भी करते हैं पर उनके विरोधी नहीं हैं। किसी संगठन के आकलन के लिये तीन पहलुओं का विश्लेषण करना जरूरी है। वे तीन पहलू हैं - समाजवैज्ञानिक , वैचारिक और सांगठनिक। समाजवैज्ञानिक तौर पर उदारवादी वामपंथी ऐसे बुद्धिजीवियों , अकादमिकों और मीडिया के एक भाग से बने हैं जिनका राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से विरोदा कभी छिपा नहीं रहा। इस मायने में वे कम्युनिस्ट पार्टी के स्वाभाविक सहयोगी कहे जा सकते हैं और किसी भी ऐसे संगठन या पार्टी से सहयोग करते हैं जो हिंदुत्व का विरोध करता हो। संघ से उनकी नफरत उन्हें कुछ ऐसे समुदाय के साथ भी जेड़ देती है जो आर्थिक अथवा सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में उनसे अलग हैं। इसलिये इनके साथ नक्सल समर्थकों या मुक्त बाजार के पैरोकार भी दिखते हैं। या ऐसा कहें कि यहां एडम स्मिथ और कार्ल मार्क्स आकर मिल जाते हैं। इसका एक और घटक है या कह सकते हैं कि तीसरा घटक है वह है नेहरूवाद। इसमें वे लोग हैं जो यह मानते हैं कि संघ के प्रबल होने से उनके परिवार का वर्चस्व शेष हो गया। विरोधी सामाजिक घटक कभी भी आर्थिक नजरिये को एक मुकम्मल स्वरूप नहीं दे सकते ना विकास के अजेंडे को आगे बढ़ा सकते हैं और प्रभावशाली राजनीतिक ध्रुवीकरण कर सकते हैं। इनकी ताकत बुद्धिजीवियों से निसृत होती है और ये बुद्धिजीवी चाहे सिनेमा के क्षेत्र के हों या लेखन या मीडिया के। नेहरूवादियों को विगत कई दशकों से सत्ता का समर्थन और पक्षपातपूर्ण वातावरण मिलता रहा है। वे पूर्ववर्ती शासनों के आलोचक जरूर रहे हैं पर कभी भी उनके खिलाफ करो या मरो का रूख नहीं अपनाया। मसलन, यू पी ए -2 के शासन काल में किसानों की आत्महत्याए या मंत्रियों की सांठ - गांठ से बड़े- बड़े घेटाले या फिर साम्प्रदायिक दंगे के विरोदा में किसी ने भी इनाम वापसी के लिये कदम नहीं उठाया। वैचारिक तौर पर उदारवादी वामपंथियों की पड़ताल हो सकती है। मसलन ऐसे लोग जो कट्टर राज्यनियंत्रणवादी हैं या यूरोपीय आर्थिक मॉडल के तरफदार हैं तब भी निजीकरण का स्वागत करने वालें के साथ रहते हैं। वे अपने अंतर्विरोधों पर परदा डालने के लिये मोदी सरकार का विरोध करते समय राष्ट्रवाद और धर्म निरपेक्षता की बात उठाते हैं।
जिबकि संघ एक वैकल्पिक नजरिया पेश करता है जिसके बीज और दर्शन भारतीय चिंतन में पहले से मौजूद हैं। संघ जिस तरह धमंनिरपेक्षता और राष्ट्रवाद की व्याख्या करता है वह भारतीय मनीषा में और सामान्य बुद्धि में कायम है और उसके अनुरूप है। वे संघ पर आरोप लगाते हैं कि संघी अल्पसंख्यक विरोधी , दलित विरोधी हैं और भारत की सांस्कृतिक , भाषाई तथा धार्मिक विविधता को खत्म करने पर तुले हैं। वे संघ को फास्स्टि घोषित कर अंतरराष्ट्रीय समुदाय को भी अपने पक्ष में कर सकते हैं। लेकिन संघ विरोधी राजनीतिक अजेंडा बहुत कारगर नहीं है और केवल अवसरवादी है और उदारवादी वामपंथ का उद्भव भारतीय वामपंथ में व्याप्त घोर अराजकता का सबूत है।
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