अगर संसद को अधिकार नहीं तो किसे है
संसद के शीतकालीन सत्र की शुरूआत की संबावनाओं के बीच सप्ताह के आरम्भ में ही संसदीय कार्यमंत्री अनंत कुमार ने कहा कि संसद का शीतकालीन सत्र दिसम्बर में होगा। सरकार ने अभी तारिखें तय नहीं की हैं। अक्सर संसद कह शीतकालीन सत्र नवम्बर के मध्य में होता आया है और तीन से चार हफ्ते चला करता था। भारतीय संसद के अधिवेशनों की कोई तयशुदा तारिखें नहीं हैं। इसके अलावा इसे अपना अधिवेशन बुलाने का कोई अधिकार नहीं है। संविधान में केवल इतना ही कहा गया है कि एक अधिवेशन से दूसरे अदिावेशन के बीच 6 महीने से ज्यादा की अवधि नहीं होनी चहिये। संसद का अधिवेशन बुलाने का अधिकार कार्यपालिका को है। जब संविधान बन रहा था तो संसद के अधिवेशन को बुलाने के अधिकारों पर गम्भीर तथा लम्बी बहस हुई थी। संविधान सभा के कुछ सदस्यों ने आशंका व्यक्त की थी कार्यपालिका हो सकता है " संसद का मुकाबला करने से डरती हो " और अधिवेशन बुलाने का काम " टाल " दे। कुछ मेंमबरों ने यह भी दलील दी थी कि आपात स्थिति में लोकसभा अध्यक्ष या राज्यसभा के सभापति भी अधिवेशन बुला सकते हैं। बाद में यह तय हुआ कि प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में कार्यपालिका राष्ट्रपति को सलाह दें ओर वह संसद का अधिवेशन आहूत करे। व्यावहारिक तौर पर संसदीय मामलों की केबिनेट समिति संसद के अधिवेश की तारिख तय करती है ओर राष्ट्रपति को इसकी जानकारी दे देती है जो बाद में संसद के अधिवेशन को आहूत करता है। क्या यह तरीका संसद को अपना काम प्रभावशाली तौर पर करने की अनुमति देता है ? कार्यत: संसद हमारे लोकतंत्र का पहरुआ है और कार्यपालिका से जवाब तलब करने का इसे हक है। लेकिन इसे अधिकार नहीं है अपनी बैठकें बुलाने का। यह कार्यपालिका तय करती है। वर्षों से संसद के तीन अधिवेशन होते रहे हैं। पहला बजट सत्र , दूसरा मानसून सत्र और तीसरा शीतकालीन सत्र। कई बार ऐसा हुआ है कि एक सत्र लम्बा खिंच कर दुसरे सत्र में बदल जाए। मसलन 2008 में जब मनमोहन सिंह के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव लाया गया था तब मानसून सत्र नवम्बर दिसम्बर तक खिंच कर शीत कालीन सत्र मं बदल गया था। 2011 में भी बजट सत्र की अवधि घटा दी गयी थी ताकि राजनीतिक दल चुनाव प्रचार कर सकें। अमरीका, इंग्लैंड , जर्मनी जैसे अन्य लोतेंत्रों में संसदीय कैलेंडर तय है। संसद की बैटक कौन बुला सकता है यह मसला बहुत महत्वपूर्ण है। यह संसद की बैटकों की लगातार कम होते दिवसों से जुड़ा है। विगत दस वर्षों में संसद की औसतन 70 बैटके सालाना हुईं हैं। जबकि इसके पहले साल में कम से कम 120 बेटकें हुआ करती थीं। इसके पहले संसद के कामकाज पर गठित एक राष्ट्रीय आयोग ने तय किया था कि साल लोकसभा की 120 तथा राज्यसभा की 100 बेठकें हों। पूर्व उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी व्हीप्स सम्मेलन का उद्घाटन करते हुये कहा था कि संसद की बैटके साल में 130 दिन होनी चाहिये। वर्तमान राजनतिकगतावरण में संसद की बैटके बुलाने पर काफी टीका- टिप्पणी हो रही है। क्योकि कई महत्वपूर्ण विधेयकों में संशोधन विचाराधीन है। सर्वोच्च प्रतिनिधि संस्था होने के कारण संसद सरकार पर कई मामलों में आरोप लगाती है और सरकार को उसका जवाब देना होता है। सरकार ऐसे विचार विमर्श से बचना भी चाहती हे। लेकि क्या यह जरूरी नहीं है कि संसद की बैठक का एक तयशुदा कैलेंडर हो? क्या इस सवाल पर विचार नहीं होना चाहिये कि संसद के सदस्यों की न्यूनतम संखग मिल कर संसद के अधिवेशनों की तारिखें तय कर दें? क्यों सरकार के इशारे पर यह होता है?
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