अंकल सैम की धरती से आया सांता क्लॉज
भारतीय उद्यम-व्यापार क्षेत्र के लिये ढेर सारे अपहार लेकर इवांका ट्रम्प हैदराबाद आयी हुईं हैं। दर असल उनके आने का असली मकसद है दिवालिया पश्चिमी अर्थ व्यवस्थऔं को उबारने के लिये भारत को लूटना जारी रहे। वह जो बहुत कुछ उपहार देंगी उनमें सबसे खास हभिारत को सुपर पावर का दर्जा बनाये जाने का झुनझुना। 90 के दशक के उदारी करण के साथ ही हमने अपने ताकतवर मौद्रिक सिद्धातों के दर किनार कर दिया। हर वित्तमंत्रियों के आश्वासनों के बावजूद प्रति 7 वर्षो में हमारी अर्थ व्यवस्था की हालत बिगड़ती गयी। अब तो बजाज्हर तौरपर कहा जा सकता है कि हमारे नजरिये कहीं ना कहीं दोष है। विकास का " रहस्य " और सुपर पावर स्तर पर पहुंचने की मरीचिका - हमारी सरकारों के प्रचारित नजरिये ने हर भारतीय की आंखों पर पट्टी बांध दिया। पिश्चम के देशों ने इस अगंभीर नजरिये को इतना प्रचारित किया कि हमें लगने लगा कि हम सही राह पर हैं। एक जमाना था जब हम निर्गुट राष्ट्रों के अगुवा हुआ करते थे पर आज हम भारत - अमरीकी आर्थिक ढांचे का इक पुर्जा बन कर रह गये र्हैं। उदाहरण के लिये इवांका ट्रम्प की हिफाजत के मामले में हमारी खुफिया व्यवस्था के 3500 जियाले लोग और स्थानीय पुलिस अमरीकी सुरक्षा व्यवस्था के इशारे पर काम कर रही र्है। यही नहीं हमारे यहां खुफिया आसूचना का काम भी आउट सोर्स किया जा रहा है। हमारा अमरीका से सम्बंध का मूल कारण यही है। हम बड़े फख्र के साथ अमरीका से अपनी सामरिक भागीदारी की बात करते हैं और अमरीका उतने ही आराम से हमारे मिसाइल सिस्टम सागरिका और धनुष की खुफियागीरी करता है और हम जबान तक नहीं हिलाते। शायद हमें अब शर्म नहीं आती। इसका निश्कर्ष यह निकलता है कि भारतीय संसाधनों का अमरीका शोषण कर रहा है। उदारी करण और निजीकरण के बहुराष्ट्रीय आदर्श ठीक वैसे ही हैं जैसे 300 साल पहले ईस्ट इंडिया कम्पनी के थे। ईस्ट इंडिया कम्पनी ने भी भारत , अमरीका , अफ्रीका और चीन के सभी उपलब्ध संसाादानों को सोख लिया था। ईस्ट इंडिया कम्पनी के जमाने में यह सिद्धांत मुक्त व्यापार या लैसेज फेयर के नाम से जाना जाता था। चुनिंदा बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के हाथों में अत्यधिक शक्ति के केंद्रीकरण के खतरो के बारे में लगभग 100 साल पहले एक अमरीकी जज ने भांपा था। लेकिन सरकार ने उसे मानने से इंकार कर दिया था। तत्कालीन वित्तमंत्री मनमोहन सिंह अब देश के प्रधानमंत्री हैं। बीच में वे सरकार में नहीं थे, किंतु जो सरकारें आई, उन्होंने भी कमोबेश इन्हीं नीतियों को जारी रखा। देश के जागरुक लेाग, संगठन और जनआंदोलन इन नीतियों का विरोध करते रहे और इनके खतरनाक परिणामों की चेतावनी देते रहे। दूसरी ओर इन नीतियों के समर्थक कहते रहे कि देश की प्रगति और विकास के लिए यही एक रास्ता है। प्रगति के फायदे नीचे तक रिस कर जाएंगे और गरीब जनता की भी गरीबी दूर होगी। उनकी दलील यह भी है कि वैश्वीकरण के जमाने में हम दुनिया से अलग नहीं रह सकते और इसका कोई विकल्प नहीं है।
प्रारंभ में यह बहस सैद्धांतिक और अनुमानात्मक रही। दोनों पक्ष दलील देते रहे कि इनसे ऐसा होगा या वैसा होगा। हद से हद, दूसरे देशों के अनुभवों को बताया जाता रहा। किंतु अब तो भारत में इन नीतियों को दो दशक से ज्यादा हो चले है। एम पूरी पीढ़ी बीत चली है। किन्हीं नीतियों के या विकास के किसी रास्ते के, मूल्यांकन के लिए इतना वक्त काफी होता है। इन नीतियों वैश्वीकरण, भूमंडलीकरण, उदारीकरण, निजीकरण, मुक्त बाजार, आर्थिक सुधार, बाजारवाद, नवउदारवाद आदि विविध और कुछ हर तक भ्रामक नामों से पुकारा जाता है। वास्तव में यह वैश्विक पूंजीवाद का एक नया, ज्यादा आक्रामक और ज्यादा विध्वंसकारी दौर है। अब अब संदर्भ में इवांका ट्रम्प के दौरे पर सोचें। प्रचारित किया गया है कि वे ग्लोबल उद्यमी सम्मेलन में भाग लेने आयीं हैं। प्रचारित किया जा रहा है कि वे महिला आर्थिक सशक्तिकरण की विेशेषज्ञ हैं।वे भारत में इसे लागू करेंगी ओर यफहां की म्हिलाओं को आर्थिक तौर परल ताकतवर बनायेंगी। पर जब उनसे उनके ही फैशन ब्रांड के बारे में मीडिया ने असहज सवाल किये तो उन्होंने उसे टाल दिया। अब समय आ गया है कि हमें थोड़ा ठहर कर सोचना चाहिये कि कैसे विकास में हमारा भला होगा। वरना हमारी सांस्कृतिक विरासतें नष्ट हो जायेंगी।
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