खतरनाक होता “ पांचवां स्तम्भ ” अखबारों की ताकत देख कर पुराने समाज शास्त्रियों ने इसे लोकतन्त्र का चौथा खम्भा कहा और कहा की यह लोकतंत्र का पहरुआ है. बाद में इसी समाज में इलेक्ट्रोनिक मीडिया भी शामिल हो गया. कई मौकों पर इस चौथे खम्भे ने लोकतंत्र को बचाने में अपनी भोमिका निर्वाह भी किया है. 20 सदी के उत्तरार्द्ध के बाद से इसमें नैतिक गिरावट आने लगी, यह सामजिक और आर्थिक परिवर्तन का फल था. ब्रिटिश राजनीति विज्ञानी बर्नार्ड क्रिक ने “ इन डिफेन्स ऑफ़ पालिटिक्स में लिखा था कि ‘ दलबदल ( हार्स ट्रेडिंग ) की कला पार्टी को कमजोर करने की नहीं है उल्टे किसी सम्पन्न समाज में अलग अलग विचारधाराओं वाले लोगों के एक साथ शांतिपूर्ण ढंग से रहने का अवसर है. इस उदारवादी समाज में हर आदमी को वह नहीं मिलता जो वह चाहता है लेकिन अपने पसंद की जिंदगी जीने की उसे आज़ादी है.बिना किसी अच्छी बातचीत के भी समाज समाज डरा - धमका कर सबको एकजुट रखता है. ’ ऐसी ही सामाजिक स्थिति मेदिन वैज्ञानिक विकास होने के बाद जब संचार प्रणाली में परिवर्तन आने लगे तो एक नयी मीडिया का जन्म हुआ . उसे सोशल मीडिया का नाम दिया गया. इसकी क्षमता और पहुँच को देखते हुए इसे लोकतंत्र का पांचवां स्तम्भ कहा जाने लगा. शुरू में इस पांचवें स्तम्भ ने अपनी साख को कयाम रखा लोकतंत्र की हिफाजत में और भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग में इसकी भूमिका तारीफ़ के काबिल दिखी. 2014 के आरम्भ से ही इसकी भूमिका में बदलाव आने लगा और यह अफवाह और भ्रामक सूचनाएं फैलाने का प्रभावशाली तंत्र बन गया. प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के चुनाव के समय और उसके बाद भ्रम फैलाने में इसकी भूमिका को महसूस किया गया था पर स्पष्टता नहीं थी. लेकिन 2015 की जनवरी से इस वर्ष अगस्त तक अमरीकी चुनाव में इसकी भूमिका स्पष्ट हो गयी. खुद फेस बुक की स्वीकृति के अनुसार इस अवधि में 14 करोड़ 60 लाख लोगों रुसी दुष्प्रचार को देखा है,गूगल का कहना है कि इस दौरान रूस की तरफ से 1108 विडियो यू ट्यूब पर उपलोड किये गए और ट्विटरने 36746 अकाउंट्स खोले जाने की सूचना दी है. सुसमाचार या सही समाचार दिए जाने के बदले अब सोशल मीडिया जहर फैलाने में लगा है. रूस का यह दुष्प्रचार या कहें गड़बड़ी फैलाने वाली कार्रवाई तो फकत आगाज़ है. अगर रोज रोज की घटनाओं का विश्लेषण करें तो दक्षिण अफीका से स्पेन तक सियासत रोज ब रोज गन्दी होती जा रही है. इसका कारण है कि झूठ के प्रसार और से उत्पन्न गुस्से के फलस्वरूप मतदाताओं में भ्रम पैदा हो रहा है और पक्ष्पात्र बढ़ रहे हैं. सोशल मीडिया चिंतन और वैचारिक स्वतन्त्रता के आधार को ख़त्म कर रहा है.
सोशल मीडिया दरअसल विभाजन नहीं करता बल्कि इस विभाजन को बढ़ा देता है. 2007-08 की आर्थिक मंदी के कारण समाज में अमीरों के खिलाफ गुस्सा पैदा हुआ और सोशल मीडिया ने इसे हवा दे दिया. संस्कृति के युद्ध ने मत दाताओं को वर्ग के आधार पर नहीं पेचां के आधार पर बाँट दिया. इसके लिए केवल सोशल मीडिया दोषी नहीं है बल्कि टी वी और रेडिओ के टॉक शो भी कुछ हद तक जिम्मेदार हैं. ये तस्वीरें , व्यक्तिगत पोस्ट्स , ख़बरों को आपके सामने पेश करते हैं और इससे दौलत कमाते हैं. क्योंकि उन्हें मालूम होता रहता है कि कौन सी चीजें कितनी गहराई तक असर करती हैं. वे आकडे तैयार करते हैं कि कौन से दृश्य दर्शकों को किस हद तक आकर्षित करते हैं. बस इसी का फायदा सोशल मीडिया जुड़े कुछ लोग , जो बेहद चालाक और प्रशिक्षित हैं, उठाते हैं. लोग उसके जाल में फँस कर उसे पसंद करते हैं और फिर शेयर करते हैं. इससे विचार बनने लगता है जो आम आदमी के दुराग्रह पर आधारित होता है. यही कारन है कि जब कोई उस विचार का विरोध करता हुआ सोशल मीडिया पर कोई पोस्ट करता है तो उसे विरोध का सामना करना होता है. नतीजा होता है कि अलग अलग पक्ष अलग अलग बात समझने लग जाते हैं और सहमति का आधार ख़त्म हो जाता है. म्यांमार का ही उदाहरण लें जहां सूचना का मुख्य स्रोत फेस बुक है, इसने रोहिंग्याओं के खिलाफ नफरत को बढ़ा दिया है.अभी भी दुनिया के आधे से ज्यादा लोग अखबारों और पत्रिकाओं पर भरोसा करते है. एक सर्वे के मुताबिक़ अमरीका में केवल 37 प्रतिशत लोग ही ऐसे हैं जो सोशल मीडिया से आयी ख़बरों पर भरोसा करते हैं . अभी भी वक्त है क्योकि सोशल मीडिया का जान बूइ कर दुरूपयोग किया जा रहा है. इसे रोकना ज़रूरी है. अगर नहीं रोका गे तो विश्व लोकतंत्र को भारी ख़तरा है.
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