हमारी राजनीति का भविष्य
कहते हैं कि जनता की याद्दाश्त बहुत ही कम होती है और हमारे राजनेता इसीका फायदा उठाते हैं। अब किसी ने चर वर्ष पहले चुनाव प्रचार में कुछ कनह दिया ओर पब्लिाक उसपर दीवानी हो दनादन वोट दे दी। अब बाद में वह वायदा जुमला निकला तो क्या जनता को अग्काले चुनाव तक यह याद ही नहीं कि नेताजी ने क्या कहा। इस बार गुजरात के चुनाव का ही वाकया लें। नेताओं के भाषणों, जुमलेबाजियों और तंजों में दो बातें सुनने को नहीं मिल रहीं वे हैं गुजरात के दंगों पर पब्तियां और धर्म निरपेक्षता। अब नेताजी के भगत यह कह सकते हैं कि फाइल बंद हो चुकी है और हमारे चमत्कारिक नेताजी को सारे इल्जामात से बाइज्जत बरी कर दिया गया है। वे गंगा के धोये से सामने आ चुके हैं। लेकिन यहां एक आदमी के दोष की बात नहीं है बात है एक घटना की और ऐसी घटनाएं कैसे हमारे मन में या कहें दिलो दिमाग में बेट जाती हैं ओर हमारे आचरणों को प्रभावित करती हैं। सआदत हसन मंटो की की मशहूर कहानी "टोबा टेकसिंह" या "खोल दो" घटनाओं के आचरण में बदलने की मिसाल है। गुजरात में जो दंगे हुये 2002 में उनकी खबरों ने देश को दहला दिया। वैसे अगर समाजविज्ञान की नजर से देखें तो यह दंगा भी बिल्कुल अलग किसम का था। इस दंगे से आम आदमी ज्यादा प्रभावित हुये थे और एक तरह से अहमदाबाद की साइकी प्रभावित गयी थी। यह एक महाविपत्ति थी ओर जिसके बारे में बातें करनी राजनीतिक तौर पर सही नहीं कही जायेगी। गुजरात दंगे के बाद इकॉनोमिस्ट पत्रिका ने लिखा कि " यहां के लोगों की सोच और आपसी बात चीत में मुहावरे बदल गये हैं।शायद ही अहमदाबाद की साइकी सामान्य िस्थति में लौट पायेगी। " लेकिन आज जो दिख रहा है वह एक सामान्यीकरण की बनावटी प्रक्रिया है और उस दंगे के शिकार लोगों को जबरन अपनी स्मृति में से उन बेहद दर्दनाक क्षणों को निकालने के लिये बाध्य किया जा रहा है। इस दंगे सबसे खतरनाक बात यह थी कि इसमें ए क जातीय समूह को दबाने की नहीं समाप्त कर देने की कोशिश की गयी थी। अब इस घटना के शिकार और गवाह दोनों को अपने कथन बदल देने के लिये बाध्य किया जा रहा है।
यहां कहने का मतलब यह नहीं है कि इसे भूला नहीं जाना चाहिये था बल्कि यहां तात्पर्य यह है कि इसे जबरन नजरअंदाज किया जा रहा है जो धीरे - धीरे दिमाग के अचेतन में जमा हो जायेगा और यह प्रक्रिया खतरनाक है क्योंकि इससे एक समाज किसी हिंसा के लाजिक और प्रसंग तत्काल स्वीकार कर लेगा। यही नहीं लोगों के मन में एक भय बोध यह भी पैदा हो रहा है कि भारतीय जनता पार्टी बेहद ताकतवर है और विरोधी उसके सामने कुछ नहीं हैं। लेकिन , अभी भी भाजपा साम्प्रदायिक कार्ड को भूलेगी नहीं , खास कर जब विकास के वायदे पूरे नहीं हो सके। यहां राहुल गांधी बीस पड़ रहे हैं क्योंकि स्थनीय राजनीतिज्ञों के पास उपयोग करने करने लायक मुद्दे हैं। अब ऐसे में संभव है भाजपा पुराना खेल चालू कर दे। गुजरात में इस समय कई मुा्रद्दे हैं जैसे दलित मुद्दा , पाटिदार मुद्दा वगैरह वगैरह पर भाजपा अर्से से मंदिर और मंडल को चल रही हे। मंडल की चमक खत्म हो गयी अब हो सका है बाजपा फिर पुराने रंग में आ जाय। आज वहां का हर आदमी दो तरह से भयभीत है वह है कि आम आदमी ना खून खराबे के बारे में बात करना चाहता है और दूसरी तरफ हिंसा से डरा हुआ है। अब ऐसे में अगर सियासत बदलती है और वर्तमान गतिरोध खत्म होता है तो भाजपा पुराने हथकंडों को अपनाने के लिये बाध्य हो जायेगी।
दूसरी तरफ एक और भयानक नाकामयाबी दिख रही है। वह है धर्मनिरपेक्ष शब्द की अनुपयोगिता। इनदिनों यह भारतीय राजनीति के लिये निषिद्ध शब्द बन गया हे। यहां तक कि कांग्रेस के लिये भी जो अब तक इसी के सहारे बढ़ी है। गुजरात तो 2019 के चुनाव का एक नमूना है। आज राजनीति में जो भय और चुप्पी दिख रही है उससे स्पष्ट हो रहा है कि 2019 में भाजपा को रोका नहीं जा सकता है। अल्पसंख्यक और मतविरोधी समूह भय जाहिर कर सकता है पर बहुत ही दबे अंदाज में और यही डर है कि यह दबा अंदाज हमारी राजनीति का भविष्य तय करेगा।
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