गरीबों की रोटी पर अमीरों की कबड्डी
बैंकों से क़र्ज़ लेकर नहीं चुकाने वाले लोगों कि तादाद बढती जा रही है. यह तो कई साल से चल रहा है लेकिन अब इस बात को दबाने के लिए सरकार ने कदम उठाया है. लेकिन इससे जो बैंकों के दिवालिएपन का ख़तरा बढ़ रहा है उससे लग रहा है कि यह समस्या सुलझेगी नहीं. बैंकों में सरकार द्वारा धन दिया जाना सुधार तो है नहीं. यह संस्थाओं कि नाकामयाबी पर करदाताओं पैसे से पर्दा डालने का प्रयास है. ऐसा फिर ना हो इसके लिए सुधार करना होगा. समस्या का मूल है नहीं चुकाये जाने वाले क़र्ज़. अगर कोई एक बैंक गलत तरीके से कारोबार करता है और अगर समस्या को छिपाता है तो उसे दोषी बताया जा सकता है और उसके प्रबंधन को दण्डित किया जा सकता है. जैसा सत्यम के मामले में हुआ था और रामलिंगा राजू के मामले में हुआ था. अगर ऐसा केवल सरकारी बैंकों के मामले में होता तो उसके प्रशासन में सुधार किया जा सकता है. प्राइवेट बैंक अपनी परिसंपति सरकार से छिपाते हैं. लेकिन नहीं चुकाए जाने वाले क़र्ज़ केवल इस समस्या का कारण नहीं है. केंद्र सरकार द्वारा 1.35 लाख करोड़ रूपए मूल्य के रूप में सरकारी बांड्स के रूप में रुपया डालने का साफ़ अर्थ है कि सरकार गरीब करदाताओं के धन से अमीर कर्जदारों के ऐश का बंदोबस्त कर रही है. सरकार बैंकों को अतिरिक्त पूँजी के लिए 1.35 लाख करोड़ रुपयों के बांड जारी करेगी. यह कार्पोरेट कर्जों के कारण डूबते सरकारी बैंकों को उबारने के लिए किया जा रहा है. देश के लगभग 50 बड़े कार्पोरेट्स बैंकों से बड़े बड़े क़र्ज़ लेकर लौटा नहीं रहे हैं जिसके चलते बैंक दिवालिया हो रहे हैं. अब इन कार्पोरेट्स से पैसा वसूलने के लिए कड़े क़ानून बनाने की बजाय सरकार उन बैंकों में पूँजी डाल रही है. सरकार का कहना है कि पूँजी डालने कि क्रिया से राजकोषीय घाटा नहीं बढेगा क्योंकि इस पूरी प्रक्रिया में धन निकाला नहीं जा सकता है. लेकिन जो बांड्स जारी हो रहे हैं उसपर सरकार को ज्यादा व्याज चुकाना होगा और यह छकाया जाना ही राजकोषीय घटा बढ़ा देगा. सरकार कि योजना है कि इस बांड से सरकारी उधार बढ़ जाएगा और निजी क्षेत्र कारोबार से बहार निकल जाएगा. लेकिन एक सहज बुद्धि का मसला है कि जी क्षेत्रों को कर्ज देने से बैब्कों कि आज यह दुर्दशा हुई है वह क्षेत्र तो बाज़ार में सक्रिय रहेंगे ही और नीतिगत तौर पर उन्हें कर्ज देने से रोका नहीं जा सकेगा. इसके अलावा अगर बैंक इक्वीटी पूँजी के बदले सरकारी प्रतिभूतियां रखते हैं और बैंकों से मिले लाभांश के मुकाबले सरकार द्वारा बांड्स पर चुकायी गयी व्याज की राशि कम हो. इसके लिए बैंकों को ज्यादा मुनाफ़ा कमाना होगा और सरकार ज्यादा लाभांश देना होगा. अगर ऐसा नहीं है तो यह फैसला उचित नहीं कहा जा सकेगा. अपनी खस्ताहाली के कारण बैंकों ने निजी क्षेत्रों को कर्ज देना बंद कर दिया था क्योंकि इसके लिए उसके पास पूँजी नहीं थी. अब बैंकों को पूँजी देना ज़रूरी हो गया. सरकार के इस कदम से यह साफ़ नहीं हो सका कि कर्जदारों से वसूली के लिए कडाई होगी या नहीं या बड़ी उधारियों का क्या होगा? कर्जदारों के बार में जो पता चला है उसके अनुसार इन लोगों ने जिस मकसद से पैसे लिए थे उन्हें उस काम में खर्च नहीं किया गया. इससे साबित हुआ कि उन्होंने गलत इरादे से क़र्ज़ लिया और क़र्ज़ नहीं चुकाना भी उनके इन्हीं गलत इरादों से ज़ाहिर होता ही कि वे इरादतन क़र्ज़ नहीं चुका रहे हैं. बैंकों में जितना एन पी ए और स्ट्रेस्ड असेट्स है उसमें कुल 80 प्रतिशत इन्ही 50 कार्पोरेट समूहों का है और यह राशी करीब 14 लाख करोड़ के बराबर है. ये राजनितिक तौर पर पावरफुल लोग हैं इस्लियेर अब देखना है कि सरकार जो यह 1.30 लाख करोड़ लगा रही है उसकी पहली किश्त किन बैंकों को मिलेगी लेकिन सरकार यह नहीं बताएगी कि यह रकम कि बैंकों को दी गयी है. सरकार बैंकों कि इन स्थितियों के लिए पिछली सरकार पर दोष मढ़ रही है पर यह एक चालाकी है. क्योकि हालात को सुधारने के लिए इसने कदम उठाने मेंन तीन वर्ष लगाए इस बीच बैंकों कि हालत और खराब हो गयी. नोट बंदी के समय यह उम्मीद की गयी थी काला धन ख़त्म होगा और बैंकों में बड़ी पूँजी आ जायेगी पर वैसा नहीं हो सका. अब यह कदम उठाया जा रहा है. यह स्पष्ट है कि करदाताओं के पैसे से अमीर कार्पोरेट समूहों को उबारा जा रहा है और ये चुनिन्दा अमीर बैंकों कि खिल्ली उड़ा रहे है.
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