2 जी घेटाले में फैसला
बहुचर्चित 2 जी घोटाला मामले में गुरूवार को सी बी आई की विशेष अदालत ने सभी अभियुक्तों को रिहा कर दिया। इनमें पूर्व दूरसंचारमंत्री ए राजा और द्रमुक सांसद कानिमोई भी शामिल हैं। इस फेसले से कई सवाल उठते हैं जिनमें सबसे प्रमुख हैं कि क्या सचमुच 2 जी निलामी के दौरान 1.7 लाख करोड़ का घोटाला हुआ था और दूसरा कि 1.7 लाख करोड़ की राष्ट्रीय 2ाति की बात गड़ी हुई कहानी थी। इसमें अन्य अबियुक्त थे राजा के पूर्व निजी सचिव आर के चंडोलिया और अन्य। सी बी आई जज ओ पी सैनी ने सबूतों के अभाव में सभी अभियुक्तों को निर्दोष करार देते हुये रिहा कर दिया। जज ने अपने फेसले में सी बी आई की साख पर भी सवाल किया है ओर कहा है कि चार्जशीट तथ्यात्मक तौर पर गलत थी। जज ने कहा कि " मैं सात सालों तक इंतजार करता रहा। काम के हर दिन, गर्मियों की छुट्टियों में भी। मैं हर दिन सुबह 10 से शाम 5 बजे तक इस अदालत में बैठकर इंतज़ार करता रहा कि कोई कानूनी रूप से स्वीकार्य सबूत लेकर आए। लेकिन कोई भी नहीं आया. इससे ये संकेत मिलता है कि सभी लोग पब्लिक पर्सेप्शन से चल रहे थे जो अफवाहों, गपबाजी और अटकलबाजियों से बनी थी। बहरहाल अदालती कार्यवाही में पब्लिक पर्सेप्शन कोई मायने नहीं रखती। शुरुआत में अभियोजन ने बहुत उत्साह दिखाया लेकिन जैसे-जैसे केस आगे बढ़ा, ये समझना मुश्किल हो गया कि आखिर वो साबित क्या करना चाहता है। और आख़िर में अभियोजन का स्तर इस हद तक गिर गया कि वो दिशाहीन और शक्की बन गया। अभियोजन की तरफ से कई आवेदन और जवाब दाखिल किए गए। हालांकि बाद में और ट्रायल के आख़िरी चरण में कोई वरिष्ठ अधिकारी या अभियोजक इन आवेदनों और जवाबों पर दस्तखत करने के लिए तैयार नहीं था। अदालत में मौजूद एक जूनियर अधिकारी ने इन पर दस्तखत किए। इससे पता चलता है कि न तो कोई जांच अधिकारी और न ही कोई अभियोजक इस बात की जिम्मेदारी लेना चाहता था कि अदालत में क्या कहा जा रहा है या क्या दाखिल किया जा रहा है।सबसे ज्यादा तकलीफदेह बात ये रही कि स्पेशल पब्लिक प्रॉसिक्यूटर उस दस्तावेज पर दस्तखत करने के लिए तैयार नहीं थे जो वो खुद कोर्ट में पेश कर रहे थे। ऐसे दस्तावेज का कोर्ट के लिए क्या इस्तेमाल है जिस पर किसी के दस्तखत नहीं हों।"
अलग-अलग महकमों (टेलीकॉम विभाग, क़ानून मंत्रालय, वित्त मंत्रालय और प्रधानमंत्री कार्यालय) के अधिकारियों ने जो किया और जो नहीं किया, की जांच से ये पता चलता है कि स्पेक्ट्रम आवंटन के मुद्दे से जुड़ा विवाद कुछ अधिकारियों के गैरजरूरी सवालों और आपत्तियों और अन्य लोगों की ओर से आगे बढ़ाए गए अवांछित सुझावों की वजह से उठा। इनमें से किसी सुझाव का कोई तार्किक निष्कर्ष नहीं निकला और वे बीच में ही बिना कोई खोज खबर लिए छोड़ दिए गए। दूसरे लोगों ने इनका इस्तेमाल गैरजरूरी विवाद खड़ा करने के लिए किया। नीतियों और गाइडलाइंस में स्पष्टता की कमी से भी कन्फ्यूजन बढ़ा। ये गाइडलाइंस ऐसी तकनीकी भाषा में ड्राफ्ट किए गए थे कि इनके मतलब टेलीकॉम विभाग के अधिकारियों को भी नहीं पता थे। जब विभाग के अधिकारी ही विभागीय दिशानिर्देशों और उनकी शब्दावली को समझ नहीं पा रहे थे तो वे कंपनियों और दूसरे लोगों को इनके उल्लंघन के लिए किस तरह से जिम्मेदार ठहरा सकते हैं।
आरोप था कि 2 जी स्पेक्ट्रम को 2001 के भाव में बेच दिया गया जबकि 2008 में उसकी कीमत बहुत ज्यादा थी। महालेखा परीक्षक ने जांच के बाद कहा था कि इनिीलामी से 1.7 लाख करोड़ रुपये की क्षति हुई है जो राष्ट्रीय क्षति है। अखबारों की सुर्खियों में छा गयी इस खबर का दबाव इतना पड़ा कि सुप्रीम कोर्ट ने नीलामी को ही रद्द कर दिया और फिर से नीलामी हुई 2012 में।कांग्रेस नेता और विख्यात वकील कपिल सिब्बल लगातार कहते रहे कि ये आंकड़े गड़बड़ हैं। लेकिन बात इतनी बढ़ी कि यू पी ए चुनाव हार गयी ओर नरेंद्र मोदी भ्रष्टाचार मिटाने के नाम पर सत्ता में आ गये। बात तो यहां तक बढ़ी थी कि मनमोहन सिंह पर भी छींटे पड़ने लगे थे। इस फैसले के बाद ने कहा कि " मैं खुश हूं कि अदालत ने स्पष्ट फैसला दिया है। यू पी ए के खिलाफ व्यापक दुष्प्रचार बेबुनियाद था। " कांग्रेस के प्रवक्ता रणदीप सिंह सुरजेवाला ने कहा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, वित्तमंत्री अरुण जेटली और भाजपा के तमाम नेताओं सहित जो लोग इस मामले को सीढ़ी बनाकर सत्ता तक पहुंचे क्या वे अब देश से माफी मांगेंगे। उनहोंने कहा कि झूठ बोलना और षड़यंत्र करना भाजपा का असली चाल , चरित्र और चेहरा है।
इस फैसले ने राष्ट्रीय क्षति के रहस्य का पर्दाफाश कर दिया। इस पूरे मामले पर विचार करें तो इसमें निहित साजिश की बू साफ महसूस होगी। 2008 के शुरुआती दिनों में नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थ शास्त्री पॉल क्रुगमन ने न्यूयार्क टाइम्स में अपने लेख में लिखा था कि " भारत में दूरसंचार व्यवस्था बहुत तेजी से विकसित हो रही है और यह विकास बारत को बहुत तेजी आर्थिक महाशक्ति बना सकता है। " अभी क्रुगमन के लेख की स्यही भी नहीं मंद पड़ी थी कि यह घोटाला प्रचारित हो गया ओर दूरसंचार व्यवस्था इतनी पिछड़ी कि आज तक सुधर नहीं पायी। डिजीटल इंडिया की तरफ भारत के तेजी से बढ़ते कदम और मोबाइल फोन का प्रसार पूर्ववर्ती यूपीए सरकार के युग की देन है जिसे विनोद राय की रिपोर्ट आधार पर सवालों के घेरे में खड़ा कर दिया गया। अब इस फैसले की रोशनी में यह सवाल स्पष्ट दिखने लगा है कि इस फैसले को यदि ऊपर की अदालत में चुनौती दी भी गयी तब भी महालेखा परीक्षक विनोद राय की भूमिका को कैसे देखेंगे? सवाल है कि हमें इन शक्तिशाली संस्थानों पर आंख मूंद कर भरोसा करतें रहेंगे? अब इससे अलग एक और बात सामने आ रही है कि क्या घोटाला हुआ ही नहीं? क्या शातिर कारपोरेशंस पकड़ से बाहर हैं? क्या जांच करने वाली संस्थाएं, न्याय सुनििश्चत करने वाले तंत्र इत्यादि सब "पिजड़े का तोता" हैं? अगर सीबीआई की चार्जशीट ही गलत हे तो अदालत केसे फैसला सुनायेगी? इस मामले में पूछा जा सकता है कि क्या 2 जी स्पेक्ट्रम मामला " कल्पित भ्रष्टाचार" का मामला था? इसके अलावा मीडिया सहित कई और संस्थाएं हैं जिन्हें आत्मनिरीक्षण करने की जरूरत है। अदालत ने जिन शब्दों का प्रयोग किया वे इस संदर्भ में सी बी आई जैसी संस्था के लिये विचारणीय है। यहां यह भूलना नहीं चाहिये कि गलत अध्ययन, कम अध्ययन और जानबूझ कर मामले को बिगाड़ना आजकल सामान्य बात हो गयी है। इसमें सुधार की जरूरत है।
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