बढ़ते अपराध और पुलिस
शहर के बड़े स्कूल में एक बच्ची से बलात्कार की घटना को यदि पुलिस प्रशासन के निगाह से देखें तो लगता है कि पुलस व्यापक तौर पर अपराध की रोकथाम की मानसिकता पैदा करने में असफल रही है लिहाजा , अपराधी व्यापक रूप में कानून के भय से मुक्त होते जा रहे हैं। मुक्ति का यह भाव कुछ ऐसा हो चुका है कि कुछ भी करने से अब डरते नहीं हैं। बच्ची से कुकर्म वाली घटना तो महज अभिव्यक्ति है समाज के संवेदनशील वर्ग में भी अपराध के प्रति नजरिया बदलने की। इसी कड़ी में देखें एक पॉश और निजी अस्पताल में जीवित बच्चे को मृत कह कर उसे पलास्टिक के थैले में लपेट कर अभिभावकों सौंप देने की, बैंक से कर्ज लेकर विदेश भाग जाने की, संसद की बैठक लगातार टलते जानें की, पुलिस सुधार को राजनीति का शिकार बनाया जाना। ऐसी कई घटनाएं हैं। सभी घटनाओं के चरित्र अलग- अलग हैं पर सबका भाव एक ही है कि उच्च वर्ग में विहित नियमों के प्रति असम्मान, नियमों की अवहेलना। इसका कारण है कि बदलते जमाने के साथ हमारी सरकारें आपराधिक प्रशासन का पुनर्गठन नहीं कर सकीं। हाल में जारी हुये एन सी आर बी के 2016 के आंकड़े बताते हैं कि देश में महज 47 प्रतिशत अपराधों में ही सच्जा हो की है। यानी अपराधों की निष्पत्ति और निष्कर्ष में व्यवस्था नाकाम हो ऱ्ही है। हर बात में सियासत को दोषी बना देना इन दिनों एक फैशन सा हो गया है। हां, सियासत भी एक कारण जरूर है पर वही एकमात्र कारण नहीं है। इसके लिये एक बड़ा दिलचस्प उदाहरण दिल्ली का है। दिल्ली में पुलिस प्रशासन में सियासत की व्यवहारिक दखलंदाजी नहीं के बराबर है। क्योंकि वहां पुलिस कमिश्नर लेफ्टीनेंट गवर्नर को रिपोर्ट करते हैं क्योंकि मुख्यमंत्री नहीं होते हैं। आबादी में मुम्बई से छोटे इस शहर में मुम्बई से दोगुनी पुलिस है। अब गत वर्ष 1 लाख 90 हजार 876 लोगों पर आरोप लगे और उनहें अदालत में पेश किया गया सुनवाई के लिये। जबकि आलोच्य वर्ष में आई पी सी के तहत 9837 लोगों को ही सजा सुनायी जा सकी। दिल्ली में इन गिरफ्तार लोगों में से 58 पतिशत मामलों में ही चार्जशीट दाखिल किये जा सके। दिल्ली में इस अवधि में महिलाओं के खिलाफ 13,803 अपराध दर्ज किये गये जिसमें 4371 मामलों में चर्जशीट नहीं लगी। मुम्बई में इसी अवधि में महिलाओं के खिलाफ 5128 मामले दर्ज हुये जिनें 15 प्रतिशत मामलों में ही फाइनल रिपोर्ट लगी। पुलिस के कामकाज करने की प्रमुख पहचान अपराध दर्ज करते समय सही रिपोर्टिंग ही नहीं है बल्कि यह भी है कितने मामलों में चार्जशीट भी गयी। इसका भी असर आपराधिक आचरण पर पड़ता है। आधुनिक अपराध अन्वेषण में डी एन ए परीक्षा और अन्य फोरेंसिक जांच अन्वेषण में मदद पहुच्चते हैं पर इसके लिये कोई आग्रह नहीं दिखता। दिल्ली में इतने अपराध दर्ज हो रहे हैं ओर केवल एक फोरेंसिक जांच लेबोरेटरी है जहां 9 हजार नमूने पेंडिंग पड़े हैं। 5000 डी एन ए नमूने पड़े हैं। महत्वपूर्ण सबूतों के निष्पादन में विलम्ब के कारण एक तरफ न्याया प्रक्रिया अपना काम नहीं कर सकती दूसरी तरफ सबूतों के नमूने नष्ट होते जाते हैं। यही कारण है कि दिलली में अपहरण, बलात्कार और हत्या की घटनाओं में क्रमश: 21, 24 और 30 प्रतिशत ही फैसले हो पाये हैं। दिलली पुलिस की वेबसाइट के मुताबिक यह दीनया की सबसे बड़ी मेट्रोपोलिटन पुलिस है और उसके पास बेहतरीन स्पष्टीकरण है कि अपराधी बाहर के लोग हैं इसलिये जांच मुकम्मल नहीं हो पाती। दिलली में मुम्बई से 5 गुना ज्यादा अपराध होते हैं। अपराधों की रोकथाम के लिये दंड निर्णय जरूरी है ओर दूसरी सबसे जरूरी चीज है पुलिस का परस्पर तालमेल। यहां सबसे ज्यादा जरूरी है कि पुलिस व्यवस्था में जवाबदेही और कामकाजी जिम्मेदारी में फर्क करने की। मसलन , लंदन के मेयर तय करते हैं कि पुलिस प्राथमिकता क्या हो और इसे लागू करने के लिये पुलिस कमिशनर जवाबदेह होते हैं। अपने देश में भी ऑपरेशनल निर्णय का काम पुलिस कमिशनर कों सौंपा जाना चाहिये। यही नहीं हमारी पुलिस व्यवस्था में रोजमर्रा के काम के लिये और जांच के लिये अलग विभाग नहीं हैं। यहां एक समस्या है कि जांच् के हुनर पर आधारित एक कामकाजी व्यवस्था है पुलिस या एक ऐसा बल है जो अपनी सकि1यता का असर दिखाता है। एक और विवाद है कि किस तरह के आचरण को आपराधिक कानून के नियंत्रित किया जाय। पुलिस प्रशासन का मुख्य उद्देश्य अपराध नियंत्रण होना चाहिये। पुलिस को सामाजिक परिवर्तन का कारक नहीं होना चाहिये।
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