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Sunday, December 10, 2017

चुप्पी खतरनाक है

चुप्पी खतरनाक है

हमारे प्रधानमंत्री जी बेहद क्षुब्ध हो गये जब विपक्ष के एक नेता ने उनके संदर्भ में "नीच " शब्द का प्रयोग किया। कांग्रेस पार्टी खास कर राहुल गांधी साहब क्षुब्ध हो गये कि उनकी पार्टी के एक नेता ने प्रधानमंत्री के लिये नीच का सम्बोधन किया। प्रधानमंत्री जी ढोल प​ीट - पीट कर नीच शब्द का मतलब समझात चल रहे हैं। कांग्रेस पार्टी ने उस नेता को पार्टी से ​निलंबित कर दिया कि नीच शब्द का उपयोग बर्दाेत के काबिल नहीं है। देश के सारे चैनल और प्राइम टाइम टी वी  के जुझारू एंकर इस लिये दुखी हैं कि प्रधानमंत्री शालीनता को भंग करने की कोशिश की गयी। मनुष्यता और नैतिकता कह खून समझा गया इस शब्द के उपयोग को। हम बड़े संवेदनशील लोग हैं। कवि केदारनाथ सिंह ने कहा है कि " वो क्यों चुप हैं जिन्हें आती है भाषा।" बेशक एशिया के सबसे बड़े हिंदी के कवि को मौन की चीख  सुन पाने का मौका नहीं मिला होगा। संवेदनशीलता की इस शस्य श्यामला भूमि पर असंवेदनशीलता की चीख कोई सुन नहीं पा रहा है।  हॉरर फिल्मों की मानिंद एक  आदमी को सरे राह  जिंदा जला दिया गया और उसके जलाये जाने को कैमरे फिल्माया गया। यह घटना उस संवेदनशील राज्य की है जहां पद्रमावति की कल्पित कथा में मामूली हेर फेर से जियाले राजपूतों की संवेदनशीलता को आाघत लगा और वे लोग फिल्म के रिलीज रोकवाने पर तुले हैं। लेकिन उस समय कोई आहत नहीं हुआ जब धार्मिक कट्टरवाद शब्द का प्रयोग राजस्थान में दित दहाड़े हत्या का औचित्य बताने के लिये किया गया। यह हत्यारा कौन है ? हमने इसे कई बार देखा है ओर हरबार नजरअंदाज कर दिया है। क्यों कि हमने यह सोचा यह हमारे साथ नहीं होने वाला। हमने इस पर सोचना , इसपर चिंतित होना, हसमें दखल देना या इसे रोकना इसी लिये छोड़ दिया। हमने इसे उस वक्त देखा है जब कांवड़िये के रूप में बसो पर हमले किये। हमने उस वक्त देखा जब दूध बेचने वालों पर हमले हुये। हमने इसे गौ रक्षकों के रूप में देखा है, दलितों कपिीटनेवाले रूप में देखा है , हमने बिना हेलमेट के हाथ में तिरंगा लिये हमने इसे ट्रेनों में ईद की खरीदारी करने वालों सेतेज मोटर सायकिल चलाते हुये महिलाओं को छेड़ने वाले के रूप में देखा है।  हमने इसे ईद की खरीदारी कर  ट्रेनों में सवार लोगों से मारपीट करने वालों के रूप में देखा है। हमने उसे अभक्ष्य खाने वाले को मारने वालों के रूप में देखा है। 

हम भारत के लोग आदर्श और धर्म के नाम पर हिंसा को पाल पोस रहे हैं। यह एक दंगे से ज्यादा खतरनाक और खराब है। दंगा सुनियोजित होता है और दंगाई भीड़ में शामिल होते हैं। इससे पूरी भीड़ को कोई लाभ नहीं है , लाभ वही उठाते हैं जिनहोंने इसकी योजना बनायी है। भावना और आस्था भीड़ को पागल बना देती है। गौ रक्षकों के  अपराध  और अभी हाल में राजस्थान के राजसमंद में जो कुछ हुआ वह सब एक दंगे से ज्यादा खतरनाक हैं। क्याोंकि यह एक समूह द्वारा अंजाम दिया जाता है औष्र वह समूह इसमें शामिल नहीं होता और ना हिंसा की जिम्मेदारी लेता है। ये ज्यादा खतरनाक हैं क्योंकि जो हुआ वह कहीं हो सकता है क्याोंकि इसके खिलाफ आवाज के मौके उन्होंने छोड़े नहीं हैं। हिंसा का औचित्य इसके शिकार और इसके वगेधियों के डर के रूप में शामिल होता है। यह ज्यादा खतरनाक हैं क्योंकि इसके स्वरूपको बदलना आसाान नहीं है।ऐसी ​िस्थति में इक राष्ट्र के तौर पर हमारे पास कोई ऐसी संस्था नहीं है जो इसके खिलाफ खड़ी होकर हमारे बुनियादी सामाजिक ताने बाने को बचा सके। इंसानी खून से नहाने वाली भीड़ राष्ट्रवाग्द और बहुलता वाद की धारा में अपने गुनाह धो देती है। राष्ट्रवाद और हिंदूवाद का कवच उनकी हिंसा को ढंक देता है। इसमें निहित स्वार्थ ही सक्रिय है और समाज मुंह के बल गिरा है। राजसमंद की घटना बहुत गंम्भीर है। इसपर जनता , राजनीतिज्ञों और सरकार की  चुप्पी और गंभीर है। यह चुप्पी चीख रही है और यह चीख कह रही है -  

जो आाज इसे मारने आये थे,

 कल तुम्हारे लिये आयेंगे, 

तुम्हारी बेटियों के लिये आायेंगे 

और तब भी तुम चुप रहोगे।

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