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Wednesday, December 13, 2017

नम्बरों में सवा सौ करोड़ की आबादी

नम्बरों  में सवा सौ करोड़ की आबादी

आज मोबाइल फोन पर या अखबारों के जरिये हर खास ओ आम को हिदायत दी जा रही है कि वह अपने बैंक अकाउंट से लेकर राशन कार्ड तक आधार कार्ड से संलग्न करवा लें। भारत की सवा सौ करोड़ की आबादी की चिंता फकत यही है। हम अचानक 12 अंकों के खास नम्बरों में तब्दील हों गये। हमें अब भविष्य में सरकार या शासन द्वारा दिये गये उसी नमबर से परिभाषित किया जायेगा। जीवन के हर क्षेत्र में आधार को उपयोगी बनाया जा रहा है। हम उससे बच नहीं सकते हैं। भारत का हर आदमी नम्बरों का कैदी बनता जा रहा है। सरकार ने चाहे जिस नियत से इसे शुरू किया हो या यों कहें यह व्यवस्था की हो पर गरीबों और बुजुर्गों के लिये इसके परिणाम काफी परेशानी पैदा करने वाले होते जा रहे हैं। राशन कार्ड के आधार से जुड़ने के बाद राशन उठाने या राशन की दुकान से खाद्यान्न खरीदने के लिये बायोमीट्रिक अभिप्रमाणन ( ए बी बी ए) की जरूरत हो रही है। अब यह बाध्यता गरीब परिवारों के लिये सस्ती दर पर खाद्यान्न मिलकने की राह में कई मुश्किलें पैदा कर रही हैं और भविष्य में और ज्यादा करेगी। सबसे पहली बाधा तो राशन कार्ड में जिन लोगों के नाम दर्ज हैं उनमें से कम से कम एक आदमी का आधार  उस कार्ड से जोड़े जाने की बाध्यता है। इसे आाधार सीडिंग कहते हैं।  कई लोग विभिनन मजबूरियों के कारण आधार कार्ड नहीं जोड़ पाते। उधर , शत प्रतिशत आधार सीडिंग की वाह वाही लेने के लोलुप अधिकारी सही राशन कार्ड को भी फर्जी बता कर रद्द कर देते हैं। इस तरह उस रद्द राशन कार्ड समूह के लिये खर्च होने वाले करोड़ो रुपये सरकार के खजाने में बच गये। लेकिन यहां यह जरूरी है कि वे सारे राशन कार्ड फर्जी नहीं हैं जिन्हें रद्द किया गया है। यहीं नही सार्वजनिक वितरण प्रणाली से गरीबों या हाशिये पर पड़े लोगों को बार कर राशन के पैसे बचा लेना कुछ ऐसा ही लगता है कि गरीब की थाली रोटी खींच ली जाय। ऐसा भी पाया गया है कि लोग आधार के लिये जरूरी बातों और ब्योरों को लोग जानतते ही नहीं हैं या यह काम करने वाले दलालों ने गलत ब्योरा दर्ज करवा दिया है। यहां यह माना जा सकता है कि यह सीडिंग केवल फर्जी नामों की पहचान में कारगर हुई है लेकिन व्यापक धोखाधड़ी रोकने में कारगर नहीं है। साथ ही वस्तुओं की खरीद बिक्री में यह कारगर नहीं है। बुजुर्ग ओर दूसरों पर आश्रित एवं अशक्त लोगों के लिये सीडिंग कराना बेहद कठिन काम है। इतने बड़े पैमाने पर किये जाने वाले काम में थोड़ी संवेदनशीलता जरूर होनी चाहिये। यही नहीं, आधार नम्बर दर्ज कराने के बाद भी दिक्कते पेश आती हैं। राशन खरीदने के समय बायोमीट्रिक पहचान के लिये इंटरनेट का कनेक्शन, उंगली के निशान की का मिलान होना चाहिये। ग्रामीण क्षेत्रों में बिजली की सही आपूर्ति नहीं होने से इंटरनेट कनेक्टीविटी की समस्या होती है। साथ ही मेहनत मजदूरी करने वालों की उंगलियों के निशान में भी गड़बड़ी हो जाती है। गरीबों की थाली से रोटी खींचने के लिये यह प्रक्रिया इतनी जटिल बनायी गयी है। इसे भोजन का अधिकार छीनना भी कहा जा सकता है। शिक्षित भारतीयों के लिये इंटरनेट जरूरी है पर गरीब ओर कम पड़े लिखे लोगों के लिय इंटरनेट के नाम पर उनके बोजन के अधिकार में कटौती पर क्यों हीं आंदोलन होता रह  समझ में नहीं आती। डोल्फ ले लिन्तेलो ने भोजन के अधिकार को लेकर बनायी गयी अवधारणा मानवाधिकार के ढांचे से बिल्कुल अलग है। अब इसके लिये सरकार को ​िज्चममेदार टहराये जाने के पहले नागरिकों में इसके प्रति जागरुकता जरूरी है। अपने देश में या भारत जैसे किसी भी देश में भोजन के अधिकार के प्रति जागरुकता नहीं है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली से मिलने वाले खाद्यान्न पर निर्बर लोगों की अवधारणा बिल्कुल भिन्न है। आाधार से जुड़े न होने के कारण राशन कार्ड को रद्द कर देने वाले वाहवाही के भूखे अफसर भोजन के अधिकार को किस तरह से समझते हैं यह मालूम नहीं। उनकी थाह लेनी भी जरूरी है। यहां आधार और उसे राशन कार्ड्स से सीडिंग कराने की बहस में  भोजन के अधिकार को बी शामिल किया जाना चाहिये।अगर ऐसा नहीं होता है तो हम सब वास्तव में केवल नम्बर रह जायेंगे।  

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