कांग्रेस के लिये "अच्छे दिन आने वाले हैं "
2014 के चुनाव प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नारा लगायाल भ्रष्टाचार मुक्त भारत , कांग्रेस मुक्त भारत।नारा चल गया और भाजपा भारी बहुम से जीत कर सत्ता में आ गयी। उसके बाद भी बात चलती रही। लेकिन गुजरात के चुनाव के नतीजे से लगने लगा कि " कांग्रेस मुक्त भारत " के नारे की हवा निकल गयी। गुजरात के चुनाव के बाद लगने लगा कि कहीं भाजपाा कशे ही पुराने दिन ना लौट आये। कांग्रेस के लिये अच्छे दिन आने वाले हैं और इसके पीछ चार कारक दिखायी पड़ रहे हैं और यही कारक कांग्रेस के देश भर में वापसी का इंजन बनेंगे। इसका पहला कारक है राहुल गांधी के नेतृत्व के प्रति नििश्चंतता। इसके पहले वे कभी इतने नििश्चंत और आत्मविश्वास नहीं दिखा। अर्से से भाजपा उनका मजाक उड़ाती थी। लेकिन जब उन्होंने गुजरात की यात्रा की और लगभग 30 रैलियों को सम्बोधित किया विपक्ष की बोलती बंद हो गयी। अब विपक्ष की ओर से आवाज आयी कि "लिखा हुआ भाषण पढ़ रहे हैं राहुल।" लेकिन इस बार जो सबसे खास बात दिखी वह थी राहुल की लोगों की बात सुनने और समझने की मंशा। वे लोगों की बात सुनने के लिये हमेशा तैयार दिखते थे। दूसरा कारक था उनका आत्म विलोपन। इसके चलते अन्य प्तियोगी राज्नीतिक इगो जैसे हार्दिक पटेल, अल्पेशगकोर , जिग्नेश मेवानी जैसे लोग उनके साथ आ गये। यह सामाजिक गठबंधन का बेहतरीन उदाहरण था क्योंकि वह जाति के समीकरण पर नहीं टिका था बल्कि रोजगार, शिक्षा के अवसर, अनुचित टैक्स, जमीन के अधिकार और किसानों की पीड़ा जैसे मसलों पर टिके थे। इसका तीसरा कारक था कि संगठन का ताना बाना आम आदमी के बीच दिख रहा था। कांग्रेस ने पाटीदार आंदोलन जैसे आंदोलनों को बड़ी सफाई से जोड़ लिया। यही कारण था कि सूरत जैसा शहर भाजपा विरोधी रूख का मुख्य केंंद्र बन गया। लेकिन हार्दिक पटेल के भाषण में उमड़ी भीड़ वोट में नहीं बदल सकी। कांग्रेस यहां प्रबंधन और धन के मामले में पिट गयी। सूरत में विरोधी रुख के बावजूद भाजपा को 16 में से 15 सीटें मिलीं। अगर राहुल गांधी पार्टी के मध्य स्तरीय ओर निम्न स्तरीय संगठन को दुरुस्त नहीं पाये तो अगले चुनावों में भी राहुल फिनोिमिना दोहराता हुआ दिख सकता है। चौथा जो सबसे महत्वपूर्ण कारक है वह है कांग्रेस को विकल्प की सियासत गड़नी पड़ेगी। एक ऐसी सियासतजिो विश्वसनीय हो , कल्पनाशील हो ओर लोगों को जोड़ सके। यहीं गांधी सबको हैरत में डाल देते हैं। अध्यक्ष बनने के बाद वे अपने भाषणों से की स्पष्ट तस्वीर खींचते हुये दिख रहे थे।
अब राहुल गांधी ओर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी में अंतर कया है? दोनों में स्पष्ट अंतर है। नरेंद्र मोदी सबसे अलग हैं। पद, करिश्मा लोकप्रियता और उपलिब्ध के मामले में मोदी राहुल से बहुत आगे हैं।यही नहीं मोदी भीषण किसम के जुझारू नेता हैं जबकि राहुल उतने मुखर नहीं हैं। इसी चुनाव के दोरान देखें मणिशंकर अय्यर ने मोदी को "नीच किस्म का आदमी" कह दिया और उन्हें पार्टी से निकाल दिया गया। लेकिन जब मोदी जी ने यह कहा कि " यह कांग्रेस की परम्परा है" तो राहुल ने पलट कर जवाब नहीं दिया। उनके पास कई मिसालें थीं पर उन्होंने खुद को इससे अलग कर लिया ओर अय्यर से कहा कि मोदी जी से माफी मांग लें। कई विश्लेषकों ने कहा कि यह राहुल की भद्रता है लेकिन सियासत में ऐसी भद्रता नहीं चलती। इससे यह भी पता चलता है कि राहुल जझारू नहीं हैं। यही नहीं उन्होंने अपने सिपाहियों को जंग में बचाया नहीं। राजनीति जंग का मैदान है ," इट इज ब्लडी बैटल फील्ड, जहां जान देकर फैसला िकिया जाता है या जान लेकर।" उल्टे राहुल ने तो वही आचरण किया कि पहली गोली की आवाज सुने ओर मैदान छोड़ कर भाग निकले। चुनाव के दौरान राहुल गांधी में जुझारू तेवर नहीं देखा गया।
उलटे मोदी ने अय्यर की बात को ही उठा लिया ओर हर भाषण में लगे दोहराने। यहां तक कि अनहोंने यह भी आरोप लगा दिया कि उनकी हत्या के लिये पाकिस्तान को सुपारी दी गयी है। उनहोंने केवल इसलिये ऐसा कहा कि कांग्रेस ने अय्यर को निकाल कर खुद को परदे के पीछे छिपा लिया। वह विरोध नहीं करेगी। नतीजा यह हुआ कि सारी शालीनता छोड़ कर वे मैदान में कूद पडे जबकि राहुल ओर उने साथी किनारे खड़े हो कर देखते रहे। राहुल का मंदिरों में जाना हिंदुत्व का प्रदर्शन नहीं है बल्कि यह बहुत ही बारीक किस्म की धर्मनिरपेक्षता है। गुजरात चुनाव ने राहुल गांधी को कुछ दिया या नहीं लेकिन नेता के तौर पर स्थापित कर दिया। भारतीय लोकतंत्र का फैसला यहां के जनगण के दिलोदिमाग में मुहब्बत और डर के बीच चलने वाली रस्साकसी से तय होती है।
0 comments:
Post a Comment