मोदी और शाह दोनों चिंतित
भारतीय चुनाव अक्सर लोकतंत्र का बहुत बारीक पाठ है। यह अक्सर जटिल संदेश देता है लेकिन इसबार गुजरात का चुनाव परिणाम का संदेश बेहद जटिल कहा जा सकता है। गुजरात में भाजपा विगत 22 वर्षों से जीतती आ रही है इस बार भी वह विजयी हुई। गुजरात में यह उसकी छठी विजय थी। पिश्चम बंगाल के अलावा ऐसा देश में कहीं नहीं हुआ और कबी नहीं हुआ। इस विजय पर भाजपा के तीखे आलोचक भी उसे सलाम करेंगे। परंतु महज तीन साल पहले जिस गुजरात ने देश का अत्यंत महान नेता थ्ल्लिी को दिया उसी गुजरात ने इस बार चेतावनी का साइरन भी बजा दिया। 182 सीट वाली गुजरात विधान सभा में सरकार बनाने के लिये भाजपा को 92 सीटें चहिये थीं और लगातार रैलियों के रूप में नरेंद्र मोदी की ' धुआंधार गोलीबारी ' के बावजूद भाजपा को महज 99 सीटें मिली जो पिछली बार से 16 सीटें कम हैं और भाजपा के 150 पर अनवरत ताल ठोंकने के स्तर से 51 सीटें कम। यहां तक कि आत्मसंतोष के लिये शतक पूरे करने से भी एक कम। अतएव गुजरात चुनाव को अत्यंत महत्वपबूर्ण कहा जा सकता है। महत्वपूर्ण इस लिये भी कि यह सीधे प्रधानमंत्री के गढ़ का नतीजा है। दूसरे रूप में कहा जा सकता है कि इस परिणाम एक बेहद दिलचस्प निष्पत्ति भी प्राप्त होती है। परिणाम घोषित होने के पहले कुछ दिनों से वोटों की संख्या, निकटतम प्रतिद्वंद्वी को प्राप्त होने वाले मतों की संख्या, हार जीत के अंतर को लेंकर बड़े - बड़े सिद्धांत पेश किये जा रहे थे। बातें चाहे जो हों पर यह तो तय है कि गुजरात मॉडल का चक्का बेआवाज पंक्चर हो गया और पंक्चर चक्के को चलाने की कोशिश के करण वह फट गया। 73 प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्र और पाटीदारों के गढ़ के रूप में मशहूर सौराष्ट्र तो लगातार ओर स्पष्ट कह रहा था कि गुजरात मॉडल से किसानों को कोई लाभ नहीं मिल रहा है। गुजरात में पिछले कई सालों से कृषि विकास के क्षेत्र में दहाई के अंक फा रहा था। लेकिन यह विकास बढ़ी हुई लागत, गिरते हुये उत्पादन मूल्य, पीस देने वाले कर्ज से किसानों को निजात नहीं दिला पा रहा था। " सबका साथ - सबका विकास " उनके लिये व्यर्थ हो चुका था। मजे की बाद हे कि मोदी जी के जमाने में गुजरात का ढांचागत सुधार, उद्योग ओर शहरी विकास पर फोकस की मिसालें दी जातीं थीं। अब तो उदार नजर ही नहीं उठतीं। वहां सामाजिक - मानव विकास की स्थिति बेहद खराब हो गयी। हालात यहां तक पहुंच गयी कि पिछली सरकार में भाजपा के 6 मंत्री इसबार चुनाव हार गये हें। ये जिन विभागों के मंत्री थे वे थेकृषि, सामाजिक न्याय, जल, जन जातीय मामले, और बाल विकास। यह हालात बहुत बड़ी बात कह रही है। गुजरात से हासिल होने वाला कोई बी संदेश सरल नहीं है। सौराष्ट्र से प्राप्त हो रहें संदेश हार्दिक पटेल के लिये सकारात्मक संकेत दे रहा है तो सूरत के पाटीदार समुदाय ने बता दिया कि वे शिनाख्त के आधार पर वोट नहीं डालते और ना ही भेड़ियाध्सान मतदान करते हैं। यह चुनाव और भी कई मामलों में महत्वपूर्ण है। गुजरात के साथ साथ हिमाचल प्रदेश में भी भाजपा की विजय इस बात का संकेत है कि मोदी और शाह के रथ को रोकना सरल नहीं है। विकास के उनके नजरिये पर अभी भी लोग भरोसा करते हैं। यह प्रशंसनीय है। लेकिन सुशासन के इस बड़बोलेपन के पीछे बेचैन करने वाले संकेत भी हैं। मसलन, हिंदुत्व का अजेंडा किसी से छिपा नहीं है। उत्तर प्रदेश से गुजरात तक इसके कई रूप देखने को मिले। गुजरात में तो इसका बदसूरत चेहरा स्पष्ट तौर पर सामने आ गया। पाकिस्तान के साथ मिलकर साजिश, कूटनीतिक भोज इत्यादि कई ऐसी बाते हुईं जो गंभीर राष्ट्रीय खतरे की तरह दिखने लगा। ऐसा लगने लगा कि राष्ट्रीयफता भाजपा के लिये केवल दिखाने की चीज है। जब थोडी विकट िस्थति में फंसे तो नफरत की राजनीति को हवा दे दिया। गुजरात चुनाच के वर्णपट के दूसरे सिरे पर एक नया रंग दिखा। वह है एक नये राहुल गांदाी के उदय का रंग और यों कहें कि एक मजबूत विपक्ष का रंग दिखा जो लोकतांत्रिक राजनीति में एक बुनियादी जरूरत है। अब राहुल और कांग्रेस को इक सबल विपक्ष के तौर पर ना केवल कायम रहना होगा बल्कि भ्पाजपा ने जो हिंदुत्व स्पेस उससे छीन लिया है असे भी वापस लेना होगा और उसे ज्यादा उदार, मानवीय तथा बहुलवादी बनाना होगा। हालांकि केवल मंदिर जाकर माथा टेकनेे वाला जो हिंदुत्व है वह ढलान पर जमी काई की तरह है, जरा संतुलन बिगड़ा कि गये। राहुल को धर्मनिरपेक्षता की पुनव्याख्या करनी होगी। अंत में अर्थ व्यवस्था भी है। लाकतंत्र में समझदार नागरिकों की जरूरत होती है और आलोचना पर्याप्त नहीं है। जरूरत है कि लोग समझें कि फलां को वोट क्यों दें ओर अगर नहीं दें तो क्यों नहीं दें। लोगों को यह समझना होगा कि कांग्रेस को क्यों वोट दें और भाजपा को क्यों नहीं दें। गरीबों से, नौजवानों से, व्यापारियों से या अमीरों से, बूढ़ों से, किसानों से कैसे बात करें।वे कैसे सामाजिक न्याय और धड़कती आकांक्षाओं से कैसे पिटें। अ र्थ व्यवस्था को कैसे बदलें। इस बार का गुजरात का चुनाव खास तौर पर बेहद मोहक है इसने दो राष्ट्रीय दलों को आधाखाली और आदाा भरा हुआ गिलास का विकल्प दिया है। यह चुनाव इसलिये भी मजेदार है कि जो जीता वह तो जीता ही पर जो हारा वह भी जीता है। इसी नयी िस्थति के कारण मोदी और शाह दोनों चिंतित हैं।
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