मृत्यु संदेश का इतिहास
वक्त के आइने में मृत्युसंदेश
भारत में मृत्यु संदेश का इतिहास का अललेख महाभारत काल से मिलता है जब युधिष्ठिर ने संदेश दिया था - " अश्वत्थामा हतो नरो वा कुंजरो वा। " इसके बाद विभिनन संसकृतियों में यह विभिनन तरीके से दिया जाता रहा है। आधुनिक काल में इसकी कड़ी अंग्रेजों से जुड़ी हे। अंग्रेजी में इसके लिये प्रचलित शब्द है ओबिच्यूअरी और इसकी शुरुआत 18 सदी से बतायी जाती है। हालांकि अमरीका में मृत्यु संदेश के चलन की शुरूआत 16 वीं सदी से मानी जाती है। यानी ब्रिटिशों के दावे से 300 साल पहले से यह चलन में है।
आरंभ में यह सैनिकों, अफसरों ओर समेंतों की मृत्यु पर लिखा जाता था और उसका प्रकाशन समाचार पत्रें में होता था। इतिहासकार मिशेल स्टीवेंस के अनुसार जो लोग समाज में मशहूर थे उनकी मौत के बारे में जानने को लोग इच्छुक रहा करते थे। बाद में मृत्युसंदेश लेखन में लिखने वाले के दिमाग की बनावट की पहचान होने लगी। किसी सैनिक या अफसर या गृहयुद्ध के शिकार लोग की मृत्यु के समाचार लेखन में उसके सकारात्मक पक्ष , जीवन के मूल्य का विवरण और भावुकता ज्यादा होती है। यही नहीं मृत्यु संदेश के माध्यम से जमाने के िस्थति की भी झलक मिलती थी जैसे युद्ध के जमाने में सैनिकों की मौत की खबरों में भावुकता ओर धार्मिकता ज्यादा होती है। औद्योगिक क्रांति के बाद मृत्युसंदेश में दौलत की चमक दिखने लगी या अफसरों के कार्यकाल इत्यादि का वर्णन मिलने लगा।मृत्यु संदेशों के चलन का प्रसार अखबारों की छपाई ओर वितरण में व्यापक तकनीकी सुधार आने कारण बढ़ने लगा। प्रोफेसर जेनिस ह्यूम ने अपनी मशहूर पुस्तक "ओबिच्यूअरी इन अमरीकन कल्चर " मे कहा है कि अमरीकी अखबारों ने मृत्यु संदेश का स्तर तय किया और इसलिये मृत्युसंदेशों के प्रणालीबद्ध विश्लेषण से उस काल के बदलते मूल्यों को समझा जा सकता है। यही नहीं , मृत्युसंदेश पत्रकारिता के इतिहास में व्यापक अंतर्दृष्टि प्रदान करता है।
19 शताब्दी के शुरू होते - होते मृत्यु संदेश कविताओं में या छंदों में लिखने का चलन आरंभ हुआ। ओहियों के अखबार डेलावेयर गजट में छंदों में लिखा जाने वाला पहला संदेश् जो उपतलब्ध है वह 17 मार्च 1917 को स्वेन के एक सज्जन के बार में लिखा गया था।
1880 आते - आते इंगलैंड ओर अमरीका में मृत्युसंदेश या ओबिच्यूअरी का लेखन पत्रकारिता की एक विधा हो गयी और अक्सर संदेश में मृत्यु के कारणों का कारुणिक विवरण होता था। 20वीं सदी के अंत में आम आदमी के जीवन मूल्यों को महत्व दिये जाने के फैशन की शुरूआत के साथ - साथ मृत्यु संदेश में भी बड़े लोगों के साथ - साथ आम आदमी के मौत के बारे. में लिखा जाने लगा।
2001 के बाद आम आदमी के मृत्युसंदेश लेखन को एक नया मोड़ तब मिला जब अमरीका के न्यूयॉर्क टाइम्स आखबार ने "शोक का चित्र " के नाम से एक नया कॉलम आरंभ किया। इसमें न्यूयार्क के ट्वीन टावर पर आतंकी हमले में मृत लोगों के पृत्यु संदेश प्रकाशित होने लगे। 200 शब्दों तक सीमित ये संदेश बाद में एक पुस्तक की आकार में प्रकाशित हुये जो पुस्तक बेहद लोकप्रिय हुई थी। जैसे - जैसे विकास होता गया मृत्युसंदेश लाखन की शैली और उसे लागों तक पहुंचाने की विधा भी बदलती गयी। अमरीका में आम आदमी के जीवन में इंटरनेट की मौजूदगी ने मृत्यु संदेश के लिये भी इंटरनेट के प्लेटफार्म का उपयोग आरंभ हो गया। समाचार एजेंसियां पैसे लेकर ऑन लाइन साइट्स पर औबिच्यूअरी देने लगीं। यही नहीं , वेब साइट्स पर ओबिच्यूअरी पर श्रद्धांजलि देने की व्यवस्था हो गयी। यही नहीं ओबिच्यूअरी ब्लॉग्स भी बन गये।
यह तो शुरूआत थी। 2007 में न्यूयार्क टाइम्स ने " द लास्ट वर्ड " के नाम से ओबिच्यूअरी का वीडियो सिरीज आरंभ किया। इसमे सबसे पहले मृतक आता था और कुछ कहता था। इसमें अत्यंत मशहूर हैं हास्य अभिनेता आर्ट बुकवाल्ड की ओबिच्यूअरी। इसमें वह खुद सामने आता हे और घेषणा करता है- " हाय ! आई ऐम आर्ट बुकवाल्ड, आइ एम जस्ट डेड " यानी , " नमस्कार मैं आर्ट बुकवाल्ड हूं , मेरा देहांत हो चुका है। "
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