बढ़ रहा है किसानों का गुस्सा
गुजरात चुनाव के नतीजें की अगर बारीक वयाख्या की जय तो निश्कर्ष मिलेगा कि अब भारतीय राजनीति में किसाानों का गुस्सा दिखायी पड़ने लगा है। गुजरात में 22 साल से सत्ता पर काबिज भारतीय जनता पार्टी ने अपनी 50 प्रतिशत सीटें केवल ग्रामीण इलाकों के चुनाव क्षेत्रों में गवांयी हैं। ग्रामीण गुजरात की 109 सीटों में सें उसकी 66 सीटें हाथ से चली गयीं। इस नतीजे से एक और निष्कर्ष निकल सकता है या यों कहें कि कयास लगाया जा सकता है कि इस बार के बजट में सरकार किसाानों के कुछ लम्बी चौड़ी घोषणा करेगी क्योंकि अगले साल लोकसभा के चुनाव हैं ओर कहीं उसमें किसानों का रोष दिखायी पड़ा तो - सत्यानाश ! लेकिन यहां सवाल उठता है कि क्या वित्तमं1ाी अरूण जेटली दो एक सुविधायें दे कर ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सुधार सकतमे है? लेकिन इसी प्रश्न के साथ एक ओर प्रश्न जुड़ जाता है कि क्या पिछले बजटों में जेटली ने किसानों को नजरअंदाज किया है? शायद नहीं। क्योंकि अपने 2014- 15 के बजट भाषण में अरूण जेटली ने खेत और किसान शब्दों का 25 बार उच्चारण किया। जबकि 2015-16 के भाषण में उनहोंने इस शब्द को केवल 13 बार दोहराया गया और 2017-18 में यही शब्द 29 बार दोहराये गये। मजे की बात है कि बजट भाषण में किसान और खेत से ज्यादा जिस शब्द को दोहराया गया है वह शब्द है टैक्स।सरकार ने बहुत कोशिश की कि किसानों के लिये कुछ किया जाय ओर नहीं तो कम से कम कुछ करता हुआ दिखे। इस अवधि में सिंचाई के विकास के लिये कई योजनाओं की घोषणाएं हुईं।शोध और क्रेडिट की सुविधाएं भी इसी काल में हुईं। इन सबके बावजूद जबसे एन डी ए सरकार सत्तामें आयी तबसे अबतक औसतन 12000 किसानों ने आत्म हत्या की। लेकिन इसका अर्थ यह कनहीं है कि इसी सरकार के शासन काल में किसानों खुदकुशी शुरू की। लेकन यहा यह पूच जा सकता है कि सरकार ने किसानों के लिये जो उपयुक्त योजनाएं शुरू कीं उसका उनके जीवन पर क्या असर पड़ा? कुछ िस्थतियों पर गौर करें तो परिदृश्य की एक झलक मिल सकतमी है। पहली कि नोटबंदी का सबसे ज्यादा असर किसानों पर पड़ा। रिजर्व बैंक ने सहकारिता बैकों को नोट बदलने की अनुमति नहीं दी। अधिकांश किसान खेती के कर्जे के लिये सहकारी बैंकों पर ही निर्भर रहते हैं। इससे किसानों की मुश्किलें बढ़ गयीं। लेकन यह एक उदाहरण है। खेती की मुश्किलों भारत में पहले से भी कायम थीं। नोटबंदी ने इसे थोड़ा बढ़ा दिया। विख्यात अर्थ शास्त्री प्रणब सेन के मुताबिक किसानों की विपदा को बड़ाने के लिये मूलत: देश की मौद्रिक नीति जिम्मेदार है। मसलन देश के उपभोक्ता मूल्य सूचकांक में खाद्य और पेय पदार्थों का भाग 54.18 प्रतिशत है। इन खद्य और पेय पदार्थों में 12 तरह की वस्तुएं शामिल हैं मसलन, अनाज, मांस , मछली, दूध आॡ् दूदा के उत्पादन , सब्जी तथा दालें इत्यादि। 2011 से 2013 के बीच खुदरा मुद्रास्फीति 9.69 प्रतिशत थी जबकि 2014 से अक्टूबर 2017 के बीच खुदरा मुद्रास्फीति की दर 5.03 प्रतिशत हो गयी।इस अवधि में दाल , सब्जी और खाद्यान की कीमतें गिरीं। नतीजतन कृषि आय में घाटा हो गया। सबसे दुखद तो यह है कि जब खेती अच्ची होती है तब भी कीमतें गिरतीं हैं और जब फसल मारी जाती हैं तब भी कीमतें गिरतीं हैं। 2014 से ही भारत सरकार की नीति रही है कि खाद्यानन की कीमतों को बढ़ने दिया जाय। क्रिसिल की एक रिपोर्ट के अनुसार 2009 से 2013 के बीच कृषि आय में औसत वृद्धि 19.3 प्रतिशत थी 2014 से 2017 केबीच कृषि आय घट कर 3.6 प्रतिशत हो गयी। सरकार का तर्क है कि खाद्यान्न कम कीमतें गरीबों के लिये मुफीद होती हैं। बेशक जिस देश में 21.9 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा से नीचे रहते हैं वहां बढ़ी हुयीं कीमतें आतंक पैदा कर देती हैं। मोदी जी ने अपने चुनाव प्रचार के दौरान खाद्यानन की महंगायी को बड़ा मुद्दा बनाया था और जब वे सत्ता में आये तो उनकी कीमतों पर नियंत्रण रखा। पर इससे किसान दुखी अवस्था में आ गया। यह साफ है कि बजट में दो एक बार नाम लेने से हालात नहीं बदलेंगे।
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