बढ़ती गैरबराबरी
लगी है होड़ - सी देखो अमीरी औ गरीबी में
ये गांधीवाद के ढाँचे की बुनियादी खराबी है
देश में आर्थिक विकास का ढोल लगबग हर सरकार द्वारा पीटा जाता रहा है। आजादी के बाद से अब तक देश में बनीं सारी सरकारें भारत को आर्थिक तौर पर समृद्ध होता हुआ देश बताने और उसे साबित करने जुटी रहीं हैं। लेकिन हकीकत कुछ दूसरी ही है। हालात ये रहे हैं कि अमीर लगातार अमीर होते रहे हैं और गरीब लगातार गरीब् होते हैं। दोनें की बीच गैर बराबरी बढ़ती रही है। हाल में जारी विश्व असमानता रिपोर्ट 2018 में कहा गया है कियहां 1980 के मध्य से लगातार असामनता बढ़ी है। 1980 के शुरूआती दौर में 1 प्रतिशत अमीर लोग देश की 6 प्रतिशत आय हड़प ले रहे थे। जबकि 2000 में यही एक प्रतिशत लोग देश की 6 प्रतिशत आय तथा आज 22 प्रतिशत आय हजम कर जा रहे हैं। यानी अमीर तेजी से अमीर हो रहे हैं और गरीब तेजी से गरीब होते जा रहे हैं। चूकि यह रपट विश्व भर की है तो कहा जा सकता है किन हम दूसरे देशों की भी इस संदर्भ में तुलना कर सकते र्है। हमारे देश में गरीबी के आंकडे बड़े भयावह हैं । इन आंकड़ों की असलियत और सच्चाई पर बार – बार उठने वाले सवालों के बावजूद देश की गरीबी और बदहाली को छिपाया नहीं जा सका है । सर्वेक्षणों में यह बात सामने आयी है कि 1991में तत्कालीन कांग्रेस नीत केंद्र सरकार ने जो आर्थिक उदारीकरण प्रक्रिया शुरू की थी , उसका गरीबी बढ़ानेवाला घातक परिणाम आज भी दिख रहा है , क्योंकि किसी भी सरकार ने इस पर रोक नहीं लगाई है ।
इधर एक दिन की आमदनी का औसत है चवन्नी का
उधर लाखों में गांधी जी के चेलों की कमाई है
भाजपा जब केन्द्रीय सत्ता से बाहर थी , तो उदारीकरण के विरुद्ध बोलती थी , लेकिन सत्ता पाते हीउसकी बोलती बंद ही नहीं हो गई , उसके भी कदम प्राथमिकता के साथ उदारीकरण की ओर ही बढ़े !अब तो जिस उद्देश्य के लिए उदारीकरण लागू किया था , पूंजीवाद ने उसे बख़ूबी हासिल कर लिया है । हमारा देश ग्राम प्रधान देश है , इसलिए कहा जाता है कि देश की आत्मा गांवों में बसती है । अतः देश की गरीबी का सीधा प्रभाव ग्रामीणों पर पडता है । देश की 125 करोड़ आबादी में से गांवों में रहनेवाले 70 प्रतिशत लोगों के लिए गरीबी जीवन का कटु सत्यहै । यह बात भी सच है कि ग्रामीण भारत उससे अधिक गरीब है , जितना अब तक आकलन किया गया था । झूठे सर्वेक्षणों से बार – बार ग्रामीण भारत की भी गलत तस्वीर सामने आती रही है । 2011 में एक सर्वेक्षण के अनुसार , वे लोग गरीब थे जो शहरी इलाक में रोज़ाना 17 रूपये और ग्रामीण इलाकों में 12 रुपये रोज खर्च कर रहे थे । पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज की जनहित ने एक जनहित याचिका दायर कर इसका विरोदा किया था और इस पर सुनवायी करते हुये सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि ‘ यहाँ दो भारत नहीं हो सकते ।’उसने हरेक राज्य में बीपीएल परिवारों की संख्या 36 प्रतिशत तय करने के पीछेकेयोजना आयोग के तर्को को जानना चाहा था ।सुप्रीम कोर्ट ने जानना चाहा कि 1991 की जनगणना के आंकड़ों के आधार पर 2011 के लिए यह प्रतिशत कैसे तय कर लिया गया ? वास्तव में यह सवाल बार – बार खड़ा होता है कि एक ओर देश तरक्की कर रहा है , दूसरी ओर गरीबों की संख्या काबू में क्यों नहीं आ पा रही है ? वर्तमान सदी में विकास के तमाम आयाम छूने के बाद भी गरीबी और अमीरी के बीच की खाई बढ़ी है। दुनिया के दो सबसे बड़ी आबादी वाले देशों भारत और चीन में अमीरी और गरीबी का फासला बढ़ा है। हालांकि ये उभरती हुई अर्थव्यवस्थाएं हैं। इसके बाद भी गरीबी और अमीरी का अंतर बेहद आश्चर्यजनक है ।अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत और चीन में तेज आर्थिक-प्रगति और गरीबी तेजी से घटने के साथ-साथ लोगों के बीच आर्थिक असमानता तेजी से बढ़ी है। वैसे भी देश में अमीरी-गरीबी को लेकर पहले भी कई सर्वेक्षण आते रहे हैं। इसके पहले अर्जुन सेन गुप्ता समिति की रिपोर्ट में भी इन हालात पर गंभीरचिंता जताई जा चुकी है। गुप्ता की रिपोर्ट में कहा गया था कि तेजी से हो रही आर्थिक प्रगति के बहुत से सालों के गुजरने के बाद भी देश में 77 प्रतिशत आबादी हर रोज 20रुपये से कम के खर्च में अपना गुजारा चलाने को मजबूर है। रिपोर्ट में इसका बड़ा कारण खेती का लगातार फायदेमंद साबित नहीं होना और देश के श्रमबल का 86 प्रतिशत हिस्से का अर्थव्यवस्था के असंगठित क्षेत्र में होना कहा गया था। इतना ही नहीं इसमें काम की स्थितियों से लेकर मजदूरी तक का मामले और नियोक्ता की मनमर्जी की बात को भी इस गैर आर्थिक असमानता का जिम्मेदार बताया गया। समिति ने यह भी कहा था कि गरीबों में सर्वाधिक लोग अनुसूचित जाति-जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल लोगों और मुसलमानों की है। यह रिपोर्ट जीडीपी की दर पर आधारित तेज आर्थिक विकास की पोल खोल रही थी।
रोटी कितनी महँगी है ये वो औरत बताएगी
जिसने जिस्म गिरवी रख के ये कीमत चुकायी है
इसके बाद इस रिपोर्ट पर कुछ दिनों की चर्चा के बाद भुला दिया गया। अब आलम यह है कि जीडीपी के आंकड़ों पर बनी विकास की अवधारणा को सबसे चमकदार और सभी के लिए लाभदायी कहने वाली सरकार ने2014 में कह दिया कि गरीबों की संख्या साल 2004- 05 के 40.74 करोड़ से घट कर 2011-12 में केवल 27 करोड़ रह गयी है। विश्वबैंक ने तो गरीबी की गणना की अपनी नयी व्याख्या के द्वारा इस गरीबों की संख्या और कम करनी चाही। पर इन सब के बीच यह भुला दिया गया कि भारत में गरीबी रेखा से नीचे होने के लिए जो मानक तय किये गये हैं, वे असल में भुखमरी की हालत में होने को बताते हैं।
तुम्हारी फाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है
मगर ये आंकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है
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