धर्म , अध्यात्म और पत्रकारिता
हरिराम पाण्डेय
धर्म , अध्यात्म और पत्रकारिता अंतस्सम्बंद्धों का विश्लेषण और व्याख्या के पूर्व हमें इन तीनों के अर्थ समझने होंगे। आज के हमारे साइबर युग में ऐसे रुढ़िगत शब्दों की परिभाषा उद्दश्य से विचलित हो जाती है। आगे बढ़ने से पूर्व हम इन तीनों इकाइयों को समझ लें। सबसे पहले धर्म। अलग- अलग संस्कृतियों में धर्म अलग अलग स्वरूपों तथा मिथकों से परिभाषित हुआ है। अरस्तु से लेकर अबतक के लगभग सभी दार्शनिकों ने धर्म की अलग परिभाषा की पड़ताल करने की कोशिश की है। जहां तक सनातन धर्म की बात है तो उसकी परिभाषा अंतर्मुखी है और एक धामिैक आदमी संस्थानों से पृथक होने के बाद भी आत्मरिक्त नहीं होता। जबकि पश्चिम का एक आदमी संस्थानों से मुक्त हो कर भीतर से खाली हो जाता है। इसलिये हमारी संस्कृति में हर कार्य में धर्म है या कहें कर्म ही धर्म है। यहां कर्म के साथ आत्म का जुड़ाव नहीं है , फल की लिप्सा नहीं है। जहां तक बात संवाद कर्म की है यानी पत्रकारिता की है तो यह भी धर्म से पृथक नहीं है। यहां बात थोड़ी समझनी जरूरी है। हमारे देश में आधुनिक पत्रकारिताग् पर यूरोप का प्रभाव है खास कर औद्योगिक क्रांति के बाद के पश्चिमी जगत पर। यह वह समय था जब पश्चिम दो दो महायुद्ध झेल चुका था और विकास के लिये एक दीवानगी पैदा हो गयी थी। इसलिये संवाद कर्म भी धर्म से ना जुड़ कर मिशन से जुड़ गया, एक जुनून से जुड़ गया। चूंकि पश्चिम की पत्रकारिता औद्योगिक क्रांति की जद्दोजहद की पैदाइश है इसलिये माध्यम की मोहताज है और इतिहासविहीन है। जबकि भारतीय पत्रकारिता का इतिहास पौराणिक काल के देवर्षि नारद से जुड़ा है। सनातन संस्कृति के अनुसार देवार्षि नारद को सृष्टि का प्रथम पत्रकार माना जाता है। पत्रकारिता धर्म समझने के लिए देवार्षि नारद को समझना होगा। इस धर्म के निर्वाह में स्वार्थ और मोह का कोई स्थान नहीं है। समाज को आइना दिखाने के लिए जरूरी है कि पत्रकार का हृदय स्वच्छ व निर्मल हो। धर्म एवं पत्रकारिता के बीच संबंध शाश्वत रहा है। नारद से लेकर तुलसी- कबीर तक धर्म के उच्चतम प्रतीक हैं और संवाद सम्प्रेषण के भी। यहां पत्रकारिता के संदर्भ में नारद को समझना होगा। पत्रकारिता की तीन प्रमुख भूमिकाएं हैं- सूचना देना, शिक्षित करना और मनोरंजन करना। इसके अलावा लोगों की भावनाएं जानना और उन्हें जाहिर करना, लोगों में जरूरी भावनाएं पैदा करना, यदि लोगों में दोष है तो किसी भी कीमत पर बेधड़क होकर उनको बताना , दिखाना। भारतीय परम्पराओं में भरोसा करने वाले विद्वान मानते हैं कि देवर्षि नारद की पत्रकारिता ऐसी ही थी। देवर्षि नारद सम्पूर्ण और आदर्श पत्रकारिता के संवाहक थे। वे महज सूचनाएं देने का ही कार्य नहीं बल्कि सार्थक संवाद का सृजन करते थे। देवताओं, दानवों और मनुष्यों, सबकी भावनाएं जानने का उपक्रम किया करते थे। जिन भावनाओं से लोकमंगल होता हो, ऐसी ही भावनाओं को जगजाहिर किया करते थे। इससे भी आगे बढ़कर देवर्षि नारद घोर उदासीन वातावरण में भी लोगों को सद्कार्य के लिए उत्प्रेरित करने वाली भावनाएं जागृत करने का अनूठा कार्य किया करते थे। 'कृष्णार्जुन युद्ध' कथा पढऩे पर ज्ञात होता है कि किसी निर्दोष के खिलाफ अन्याय हो रहा हो तो फिर नारद अपने आराध्य भगवान विष्णु के अवतार श्रीकृष्ण और उनके प्रिय अर्जुन के बीच भी युद्ध की स्थिति निर्मित कराने से नहीं चूकते। उनके इस प्रयास से एक निर्दोष यक्ष के प्राण बच गए। यानी पत्रकारिता के सबसे बड़े धर्म और साहसिक कार्य, किसी भी कीमत पर समाज को सच से रू-ब-रू कराने से वे भी पीछे नहीं हटते थे। सच का साथ उन्होंने अपने आराध्य के विरुद्ध जाकर भी दिया। यही तो है सच्ची पत्रकारिता, निष्पक्ष पत्रकारिता। किसी के दबाव या प्रभाव में न आकर अपनी बात कहना। देवर्षि नारद के चरित्र का बारीकी से अध्ययन किया जाए तो ज्ञात होता है कि उनका प्रत्येक संवाद लोक कल्याण के लिए था। नारद तो धर्माचरण की स्थापना के लिए सभी लोकों में विचरण करते थे। उनसे जुड़े सभी प्रसंगों के अंत में शांति, सत्य और धर्म की स्थापना का जिक्र आता है। स्वयं के सुख और आनंद के लिए वे सूचनाओं का आदान-प्रदान नहीं करते थे, बल्कि वे तो प्राणी-मात्र के आनंद का ध्यान रखते थे।
भारतीय परम्पराओं में भरोसा नहीं करने वाले 'बुद्धिजीवी' भले ही देवर्षि नारद को प्रथम पत्रकार, संवाददाता या संचारक न मानें। लेकिन, पथ से भटक गई भारतीय पत्रकारिता के लिए आज नारद ही सही मायने में आदर्श हो सकते हैं,धर्म ही सही मायने में आधार हो सकता है। भारतीय पत्रकारिता और पत्रकारों को अपने आदर्श के रूप में नारद को देखना चाहिए, उनसे मार्गदर्शन लेना चाहिए।आयातित विचार और दर्शन के कारण पत्रकारिता मिशन बनी और मिशन से प्रोफेशन बन गयी। इसके बाद भी उसका अवघटन होता रहा। आज की पत्रकारिता और पत्रकार नारद से सीख सकते हैं कि तमाम विपरीत परिस्थितियां होने के बाद भी कैसे प्रभावी ढंग से लोक कल्याण की बात कही जाए। पत्रकारिता का एक धर्म है-निष्पक्षता। लेखनी तब ही प्रभावी हो सकती है जब आप निष्पक्ष होकर पत्रकारिता करें। पत्रकारिता में आप पक्ष नहीं बन सकते। हां, पक्ष बन सकते हो लेकिन केवल सत्य का पक्ष। भले ही नारद देवर्षि थे लेकिन वे देवताओं के पक्ष में नहीं थे। वे प्राणी मात्र की चिंता करते थे। देवताओं की तरफ से भी कभी अन्याय होता दिखता तो राक्षसों को आगाह कर देते थे। देवता होने के बाद भी नारद बड़ी चतुराई से देवताओं की अधार्मिक गतिविधियों पर कटाक्ष करते थे, उन्हें धर्म के रास्ते पर वापस लाने के लिए प्रयत्न करते थे। नारद घटनाओं का सूक्ष्म विश्लेषण करते हैं, प्रत्येक घटना को अलग-अलग दृष्टिकोण से देखते हैं, इसके बाद निष्कर्ष निकाल कर सत्य की स्थापना के लिए संवाद सृजन करते हैं। आज की पत्रकारिता में इसकी बहुत आवश्यकता है। सकारात्मक और सृजनात्मक पत्रकारिता के पुरोधा देवर्षि नारद को आज की मीडिया अपना आदर्श मान ले और उनसे प्रेरणा ले तो अनेक विपरीत परिस्थितियों के बाद भी श्रेष्ठ पत्रकारिता संभव है। आदि पत्रकार देवर्षि नारद ऐसी पत्रकारिता की राह दिखाते हैं, जिसमें समाज के सभी वर्गों का कल्याण निहित है। भारत जीवंत और विशालतम लोकतंत्र हैं। यह मात्र राजनीतिक दर्शन ही नहीं है बल्कि जीवन का एक ढंग और आगे बढने के लिए लक्ष्य हैं। इसी लोकतंत्र का त्रिनेत्र पत्रकारिता में आलोकित है। समाचार पत्र सिर्फ खबर ही नहीं देते, वे सोच को गढते हैं और दुनिया के लिए खिडकी खोलते है. सही मायनों में पत्रकारिता समाज को बदलने का साधन और आम जनता की ताकत है। लिहाजा, स्वतंत्र, निष्पक्ष और धर्मै की तरह की जाने वाली पत्रकारिता आवश्यक ही नहीं बेहद जरूरी है। धर्म को समझना और उसे आत्मसात करना ही दरअसल अध्यात्म है। धर्म को समझना और उसे आत्मसात करना ही अध्यात्म है।
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