शिक्षा और शिक्षण में बढ़ती समस्याएं
एक जमाना था जब शिक्षण संस्थान और शिक्षकों के नाम से छात्र पहचाने जाते थे और छात्र भी बड़े फख्र से कहते थे " फलां कालेज का पास आउट हूं और फलां हमारे शिक्षक हुआ करते थे। " यह छात्रों की योग्यता की पहचान थी। शिक्षा की दुनिया की एक छवि मन में बसी रहती थी। वह एक सहज और सृजनशील जगह थी जिसमें जिज्ञासा और प्रयोग एक बड़ा स्पेस था, बहुत बड़ी गुंजाइश थी। आज शिक्षण संस्थान व्यवसाय की जगह बन गये हैं और छात्र उस व्यवसाय के वाहक। माता पिता काम काज करते रहते हैं और अपना पीछा छुड़ाने के लिये बच्चों को स्कूल भेज देते हैं। ... और स्कूल भी कैसे कैसे कि सुन कर अचरज होती है। बच्चों के लिये स्कूल के नाम पर क्रेच है यानी पालना, पलेस्कूल है और के जी है। तर्क है कि इन वर्गों से शुरू होने पर दिमाग विकसित होता है और छात्र किसी भी विषय को जव्दी सीखता हे। यह सीखना ही तो खराबी का सबसे बड़ा कारक है। मनोशास्त्री ओलिवर जेम्स के अनुसार " नर्सरी या उससे नीचे के विद्यालय बाल वहशियों की पीड़ी तैयार कर रहे हैं। बच्चों में ये स्कूल आक्रमकता बढ़ाते हैं और जीवन पर उसका लम्बा समय तक असर रहता है। " जेम्स के आंकड़े बताते हैं कि जब नर्सरी स्कूलों की संख्या बढ़ी ओर उसका चलन बढ़ा उसी अवधि में विद्यालय परिसरों में हिंसा की घटनाएं भी बढ़ीं। मनोविज्ञाान का मानना हडै कि हर बच्चा हिंसक पैदा होता है और प्रेम तथा पालन पोसन के जरिये अनमें दया, मानवता और मानवीय सद्गुणों का विकास होता है। विख्यात पत्रिका इकोनॉमिस्ट के अनुसार जो ब्च्चा जितना ज्याद समय प्ले हाउस और नर्सरी कक्ष्ॡाओं में स्कूल में गुजारता है उतना ही ज्यादा आक्रामक होता है वह। अभी हाल में भारत के एक पबॅश स्कनूल में इक बच्चे अपने सहपाठी की केवल इसलिये हत्या कर दी कि वह परीक्षा की तारिख टलवाना चाहता था। आई पी सी के अनुसार यह एक बाल अपराध हे। लेकिन कभी किसी ने यह सोचा है कि जिस बच्चे ने यह कांड किया उसके लिये परीक्षा का इतना भय क्यों था? कनैसे पनपी उस बच्चे के मन में यह बात कि हत्या कर देने से परीक्षा टल जायेगी। यह घटना शिक्षा व्यवस्था से सवाल पूछ रही है। यही नहीं हर साल अखबारों में खबरें प्रकाशित होती हैं कि रिजल्ट के बाद कितने लड़के ओर लड़कियों ने आत्म हत्या कर ली। शिक्षण संस्थानों में बढ़ रही हिंसा के सम्बंध में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र के प्रोफ़ेसर आनंद कुमार मानते हैं कि ''हम इंतज़ार करते रहते हैं किसी घटना का। इंतज़ार करते रहने के बजाय चौतरफा आंदोलन इस हिंसात्मक सच्चाई को पलटने के लिए ज़रूरी है।’’यहां पूरी व्यवस्था से सवाल है कि इसी कीमत पर शिक्षित बनाने का अभियान चलाया रहा है। विद्यालय में मिलने वाला ज्ञान तो जीवन को इस तरयह के विचारों से मुक्त करा आनंदोत्सव मनाने वाला बनाता है।इसके विपरीत इन दिनों एक विलक्षण मानसिक बंधन तैयार हो रहा है जिसमें अतीत का क्रोध और हिंसा भविष्य के हर कदम पर दिखती है। परीक्षा जीवन मरण का प्रश्न बनती जा रही है। परीक्षाएं दरअसल छात्रह के मनसिक विकास और प्रतिबद्धाओं के मूल्यांकन का तंत्र बन गयी है। यह अच्छे अंक पाने तक सिमट जा रही है। इसमें चिंतन और सृजनशील होने की बहुत कम जगह बचती है। आज अच्छा अध्यापक वही होगा जो ज्यादा से ज्यादा बच्चों को पास करा सकेगा। अध्यापक स्वयं इस पद्धति से ही तैयार हुये रहते हैं। इस माहौल में ज्ञान और व्यवहार की श्रेष्ठता की दिशा में विकास की कल्पना ही बेकार लगती है। भारत के लिये यह ओर भी जरूरी है। यह देश आज नौजवानों का देश बन चुका है। 65 प्रतिशत आबादी 35 साल से नीचे की उम्र के नोजवानों की है। ऐसे देश में अगर हिंसा की मानसिकता बड़ती है तो क्या होगा इसका अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। विख्यात शिक्षा शास्त्री जगमोहन सिंह राजपूत का मानना है कि " आज शिक्षा केंद्रों में जो समस्याएं लगातार उभरती रहती हैं उनके मूल में शिक्षा के शाश्वत आदर्शों से भटकाव, अध्यापक और शिष्य के संबंधों से आत्मीयता की अनुपस्थिति और उत्तरदायित्व, श्रद्धा और पारस्परिक आदर भाव की कमी ही मुख्य कारक के रूप में पहचाने जा सकते हैं। यह समाज और सरकार का सम्मिलित उत्तरदायित्व है कि ज्ञानार्जन में रुचि लेने वाले, छात्रों के प्रति स्नेह संबंध बनाने को उत्सुक, अध्यापन को दूसरों का जीवन संवारने का अवसर मानने वाले, चरित्र और व्यक्तित्व के प्रति सदा सजग और सावधान रहने वाले उत्साही व्यक्ति ही अध्यापक बनने के योग्य माने जाएं। इसी तरह हर शिष्य हर प्रकार की शिक्षा के योग्य नहीं हो सकता है, उसकी अपनी रुचि के क्षेत्र में ही उसे अवसर दिए जाएं। यह दोनों पक्ष इस समय पूरी तरह से व्यावहारिक परिदृश्य से ओझल हो गए हैं या यों कहें कि परिस्थितियों ने उन्हें पीछे धकेल दिया है। " भारतीय शिक्षण संस्थाओं को रट्टू छात्रों का स्थल बनाने के बजाय जिज्ञासु व्यक्तियों का जमावड़ा बनाया जाना चाहिये। हमें उच्च शिक्षा संस्थानों में रचनात्मक विचारशीलता, नवोन्वेष और वैज्ञानिक प्रवृत्ति को बढ़ावा देना होगा। इसके लिए विचार-विमर्श, वाद-विवाद तथा विश्लेषण के तार्किक इस्तेमाल की जरूरत है। वरना हम शिक्षा के नाम पर एक हिंसक समाज गढ़ते जायेंगे।
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