दलित मसला भाजपा की राह में रोड़ा बन सकता है
भाजपा बिहार में बिना किसी समर्थन के सरकार बनाने की सोच नहीं सकती है। यही नहीं उसने लगातार दो गलतियां कर डाली हैं । उसकी पहली गलती 2015 में मोहन भागवत द्वारा दिए गए बयान पर रहस्यमय चुप्पी थी। उस समय बिहार में विधानसभा चुनाव चल रहे थे। यदि उस समय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सफाई दे देते मामला वहीँ खत्म हो जाता। बिहार महागठबंधन में नहीं पड़ता। यह दूसरी बात है कि 20 महीने के बाद भाजपा ने वहां सत्तापर कब्जा कर लिया।
अब बिहार में नया मसला है कि भाजपा के नेतृत्व वाली एनडी ए सरकार 20 मार्च के सुप्रीम कोर्ट के आदेशपर या तो चुप रही या बहुत देर से चेती । इससे आने वाले दिनों में पार्टीको भयानक राजनीतिक आघात लग सकता है लोक। सभाचुनाव में लगभग 1 वर्ष बचेहैं । अभी से चुनाव के मसले तैयार किए जा रहेहैं । गोटियाँ बिछाई जा रहीं हैं । कहा जा रहा है कि सरकार पहले ही सक्रिय हो सकती थी लेकिन चुप रही ।जब उसने देखा है कि दलित उग्र हो उठे हैंतब उसने अदालत का दरवाजा खटखटाया। यहां तक कि भाजपा के सहयोगी दलों ने भी इस को गंभीर मसलाबताया था और सबने इस पर चिंता व्यक्त की थी। लोजपा के संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष चिराग पासवान ने कहा कि “ दलित और जनजातीय समुदाय में निराशा है। भारत बंद और सड़कों पर प्रदर्शन का तो पहले सेही अंदाजा लगाया जा सकता था। यही नहीं, भाजपा के एक अन्य सहयोगी दल जदयू ने सांसदों-विधायकों का प्रतिनिधिमंडल लेकर राज्यपाल के पास पहुंचा थाऔर अनुरोध किया था अनुसूचित जाति जनजाति के संबंध में सर्वोच्च न्यायालय के आदेशको रद्द किया जाए। इन दोनों दलों , यानी लो ज पा और जदयू का वोट बैंक तो दलित समुदाय ही है। इसके नेता रामविलास पासवान और नीतीश कुमार हैं । जदयू ने भी हाल में महादलित आयोग का गठन करदलितों को पटाने की कोशिश की है। भारत बंदके दौरान उनके गुस्से को देख कर एन डी ए के घटक दलोंमें भी चिंता है। यदि केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट में मामले को बहुत जोरदार ढंग से नहीं उठाया तो एनडी ए की लुटिया डूब सकती है । 2011 की जनगणना के मुताबिक बिहार के लगभग10.4 करोड़ कीआबादी में करीब 16% दलित हैं । यह उनकी राजनीतिक शक्ति को साफ-साफ बताता है। इस गंभीर मसले के प्रति भाजपा की नरमी इसके दोमहत्वपूर्ण घटक दलों को अलग होने के लिए मजबूर कर देगी। क्योंकि , यह दोनों दल अपना राजनीतिक भविष्यदांव पर नहीं लगाएंगे।
जो हालात दिख रहे हैं, उससे तो लगता है कि भाजपा को अगले चुनाव में भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। भाजपा ने देखाभी है 2015 के विधानसभा चुनाव में आरक्षण मामले पर उसके स्पष्टीकरण नहींदेने पर या कहें समय पर नहीं देने पर क्याहुआ था? पार्टी बिहार में चुनाव हार गई थी। जब तक संघ प्रमुख ने रिजर्वेशन लिस्ट की समीक्षाकी बात नहीं की थी तब तक सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था। जैसे ही उन्होंने मुंह खोला लालू प्रसाद यादव नेइस टिप्पणी को लपक लिया और एक मसला बनादिया। उन्होंने दलित और पिछड़े समुदाय को यह समझाया भाजपा आरक्षण हटाने के लिएसाजिश रच रही है। इस मसले पर महादलित, पिछड़ा वर्ग और अति पिछड़ावर्ग एकजुट हो गया। जो इससे पहले कई हिस्सों में बंटे थे। एनडी ए का बंटाधार हो गया। उसे बिहार विधानसभा की 243 सीटों में से फकत 58 सीटें मिलीं । बिहार में वैसे भी एन डी ए के लिए सब कुछ ठीक-ठाक नहीं है। 6 दलितों की हत्या के मामले में सभीको छोड़ देने की घटना इस से जुड़ गई। यह 2009 की घटना है जब नारायणपुर मेंरणवीर सेना के लोगों ने 11 दलितों कोगोलियों से भून डाला था। इस मामले में 10 लोग पकड़े गए थे सारे के सारे छूट गए । यही नहीं अप्रैल 2012में बथानी टोला हत्याकांड सभी 23 लोग सबूतों के अभाव में छूट गए। इस घटना में 23 लोग मारे गए थे। 2015 में सभी लोग छूट गए थे। क्या विडंबना है इसबीच नीतीश कुमार की सरकार थी। उस समय बिहार की घटनाएं यह संदेश दे रही थी कि नीतीश कुमार दलितों की हत्या करने वालों के पैरोकार हैं । यह भाजपा के लिए खराब संदेश है।
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