5भागवत के कथन का मतलब?
लोकसभा चुनाव जब 2013 में हुए थे तो भाजपा ने एक नारा दिया था “कांग्रेस मुक्त भारत “ और तब से यह पार्टी का मुख्य चुनावी नारा बना रहा । यह नारा ही उसकी रणनीति का आधार भी था । लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को इस नारे से खुद को अलग करने हैं लगभग 5 बरस लग गए। संघ प्रमुख मोहन भागवत का कहना है कि यह एक राजनीतिक नारा है और संघ को इससे कोई लेना-देना नहीं है। लेकिन मोहन भागवत का कथन अपने आप में बहुत से अर्थ समेटे हुए है। उन्होंने स्पष्ट किया यह नारा राजनीतिक राजनीतिक भेदभाव प्रदर्शित करता है और संघ भेदभाव की भाषा का उपयोग कभी नहीं करता है । भागवत का यह कथन बहुतों को हैरत में डाल रहा है । संघ परिवार के लोग भी हैरत में है । 2013 में प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने “कांग्रेस मुक्त भारत” का नारा दिया था ।उन्होंने छाती चौड़ी करके कहा था कि सारी बुराइयों की जड़ है कांग्रेस है और यह समय की मांग है कांग्रेस को उखाड़ फेंका जाए ।उन्होंने जुलाई 2013 में पुणे में अपना पहला भाषण दिया था। इसके बाद तो मोदी लगातार कई भाषणों में इस नारे का उपयोग करते रहे। बाद में यह भाजपा की शब्दावली में शामिल हो गया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सबसे अंतिम बार इस नारे का उपयोग संसद में फरवरी में किया था । अब संघ प्रमुख मोहन भागवत खुद को इससे अलग कर रहे हैं। यह एक महत्वपूर्ण मोड़ है । सबसे पहले तो यह लगता है कि महत्वपूर्ण राजनीतिक समरनीति में भाजपा और संघ में तालमेल नहीं है या इन दिनों बिगड़ चुका है । नारे सदा राजनीतिक नेता ही लगाते हैं और विश्लेषक इसका उपयोग करते हैं ।भारतीय राजनीति का मैदान बड़ा जुझारू होता है । लगभग तीन दर्जन पार्टियां लोकसभा चुनाव के लिए जोर आजमाती हैं। इनमें कई पार्टियों स्थानीय स्तर पर रहती हैं और कई चुनाव आयोग द्वारा निबंधित होती हैं । अपना स्थान और अपनी मान्यता बनाए रखने की लड़ती हैं। पार्टियां एक दूसरे की आलोचना करती हैं और हमेशा इस कोशिश में रहती हैं कि सामने वाले दल का चुनाव अभियान फीका पड़ जाए। वह तो यहां तक चाहती हैं प्रतियोगिता समाप्त ही हो जाए, पर शायद ही ऐसा हो पाता है। बहुत सी पार्टियां स्वीकार करती हैं कि अन्य पार्टियों के रहने से अपना वजूद मजबूत होता है और फैलता है । कांग्रेस का विरोध तो शुरु से चल रहा है यह एक बहुत पुरानी अवधारणा है लेकिन कांग्रेस को खत्म करने की बात कभी नहीं आई। कांग्रेस ने भी कभी किसी पार्टी को समाप्त करने की इच्छा नहीं जाहिर की। यह पहला अवसर है जब इस तरह के या कहें कि किसी पार्टी को खत्म करने का अभियान शुरू हुआ । संघ ने अब तक इस में कोई दखलंदाजी नहीं की । अब जबकि पार्टी के कमजोर होने के लक्षण दिखाई पड़ने लगे हैं और 2014 से यह लगने लगा है कि राष्ट्रीय चेतना पर मोदी की पकड़ ढीली हो रही है तो संघ ने नया पैंतरा बदला है । भाजपा ने तीन लोकसभा उपचुनाव में पराजय का मुंह देखा। एन डी ए ने अभी हाल ही में अपना सबसे पुराना घटक दल तेलुगू देशम पार्टी खो दिया एक और पार्टी शिवसेना बाहर निकलने का अवसर खोज रही है। दो दल- लोक जनशक्ति पार्टी तथा राष्ट्रीय लोक समता पार्टी- तो खुल्लम खुल्ला विपक्षियों के साथ उठ बैठ रहे हैं । अनुसूचित जाति और जनजाति कानून की समीक्षा की समयानुकूल अपील में असफलता के कारण देशभर में दलित संगठनों ने कामकाज ठप कर दिया । कई जगह हिंसक घटनाएं हुईं ,कई लोग मारे गए । दिल्ली में बंद से जुड़े एक आयोजन में एक दलित सांसद को बोलने नहीं दिया गया और उसे स्टेज पर से भगा दिया गया। ऐसे मौके पर भाजपा पर एक और दबाव बढ़ाने का कारण क्या हो सकता है? क्या संघ को ऐसा लग रहा है कि मोदी के नेतृत्व में भाजपा के बुरे दिन आ रहे हैं और वह मोदी के बाद नए नेतृत्व की तैयारी कर रहा है? यह तो केवल भागवत ही बता सकते हैं के वास्तविकता क्या है?
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