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Monday, April 16, 2018

कठुआ - उन्नाव और न्याय का सवाल

कठुआ - उन्नाव और न्याय का सवाल
संत इज़्किल ने  कहा है कि " एक धार्मिक आदमी का मार्ग चारों तरफ से स्वार्थी, अन्यायी और बुरे लोगों से घिरा होता है। इसमें धार्मिक वही है जो अपनी अच्छाइयों को कायम रखे हुए इन बुराइयों से बाहर निकल आता है। वही अपने भाइयों -साथियों और नीरीह  बच्चों का रक्षक होता है।"
      जम्मू के कठुआ में आठ साल की बच्ची की हत्या और उन्नाव में एक दूसरी किशोरी के बाप की हवालात में मौत, इन दिनों सोशल मीडिया  बड़ी चर्चा का विषय है। इस संदर्भ में जरा संत इज़्किल के उपरोक्त उद्धरण को देखें। इस पूरे मामले के चारों ओर अन्याय और उस  अन्याय  के औचित्य के लिए तरह - तरह की दलीलें लिपटी हुई हैं। अब इस से कैसे बाहर निकला जाए ?  दूसरी सदी के रोमन सम्राट मार्कस औरेलिस की बात याद आती है कि  " जीवन का उद्देश्य बहुमत के साथ रहना नहीं है अच्छाई और बहादुरी अपनी राह चुनने में है।" अब दोनों उद्धरणों को मिला दें तो ऐसा लगता है की बुराइयों के बीच से निकलने एक मात्र तरीका है हम उनके साथ ना रहें जिन से हम सहमत होना चाहते हैं ,बल्कि अपने सिद्धांत खुद गढ़ें और उस पर अड़े रहें अगर आप अपने हित के प्रतिकूल भी आ जाते हैं तो वहीं खड़े रहिए धर्म के लिए यह कीमत चुकानी पड़ेगी।
    उपरोक्त सिद्धांतों के अनुरूप हम एक समाज के रूप में उन लोगों की निंदा करते हैं जिन्होंने ऐसा किया और साथ ही उनकी भी, जो उन्हें बचाने में जुटे हैं । यह एक ऐसा अपराध है जिसे रफा-दफा नहीं किया जा सकता है । वह भी किसी इतिहास और किसी आदर्श के आधार पर।  आठ  साल की बच्ची के साथ जो कुछ भी हुआ उस पर गुस्सा और न्याय की मांग जायज है।  उसके लिए किसी धर्म की जरूरत नहीं है । जरूरी है कि आप एक अच्छे इंसान बने रहें। 
चार-पांच दिनों से इस मामले को राजनीतिक रंग दिए जाने की कोशिश चल रही है । ऐसे में यह जरूरी है उनका विश्लेषण किया जाए जो ऐसा करते हैं।  साथ ही इस मामले के प्रति उनके रुख का विश्लेषण जरूरी है। जैसे ही इस मामले को राजनीतिक रंग दिया जाने लगा वैसे ही नरमपंथी समूह को रास्ते से जबरन हटा दिए गया और पक्षपाती लोग उनकी जगह पर आ कर जम गए । अगर सोशल मीडिया की मानें  तो देश का हर आदमी इस घटना पर क्रोधित है लेकिन वे कब तक अपनी जगह पर अड़े रहेंगे जब उन्हें पता चलेगा उनका उपयोग राजनीतिक समर्थन के लिए किया जा रहा है तो वह बगले झांकने लगेंगे।  एक ऐसा भी समुदाय है जो चीख - चीख कर कह रहा है कि जब तक दोष प्रमाणित ना हो जाए तब तक कुछ नहीं किया जाए।  जब भी कोई बर्बर घटना घटती है जैसा कि कठुआ में हुआ तो आपराधिक न्याय का यह जुमला उछाला जाने लगता है । इसके बहुत ही गंभीर परिणाम हो रहे हैं  और  गरीब मारे जा रहे हैं।  ऐसे लोगों के मामले में जो किसी दल में नहीं हैं किसी बलात्कार के मामले में " निर्दोष - दोषी"  समीकरण को बदलने की कोशिश करने वाले जो लोग हैं वह वस्तुतः मामले की आपराधिक ता के बारे में बहुत कम जानते हैं या नहीं जानते हैं।  वह महज किसी धर्म या जमात के करीब आना चाहते हैं या आने का बहाना चाहते हैं। जो हो, वे जो  आपराधिक न्याय के सिद्धांतों के बारे में कुछ नहीं जानते हैं , आगे बढ़ कर बोलते हैं । 
      कुछ दिन पहले गुड़गांव के एक स्कूल में बच्चे का खून हो गया था पहले तो टालमटोल होती रही ।  बाद में जब दबाव पड़ा  तो पुलिस ने एक गरीब को बलि का बकरा बना दिया।  पुलिस की यह प्रवृत्ति है कि   बकरे के रूप में गरीबों का इस्तेमाल करती है। पूरी दुनिया में माना जाता है की गरीबी और जबरदस्ती अपराधी बनाए जाने की संभाव्यता में सह संबंध है । कई बार ऐसे लोग ,जो अपना बचाव नहीं कर सकते उन्हें पुलिस जैसी संस्थाएं और राजनीतिज्ञ  अपना निशाना बना बना लेते हैं। विशेषकर , ऐसे मौके पर जब किसी मामले को खत्म करने के लिए दबाव पड़ने लगता है। ऐसे कई  बहुत  लोग हैं जो खुद को या अपने परिवार को बर्बाद होने से बचाने के लिए तर्क देते हैं कि जब तक अपराध ना प्रमाणित हो तब तक वह निर्दोष है लेकिन इस तर्क की कोई सुनवाई नहीं होती।  पुलिस ऐसा नहीं करती। पुलिस जांच में सुस्ती बरतती है और अंत में किसी गरीब के सिर पर थोप कर उसे हवालात में डाल देती है।  मीडिया भी चुप रह जाती है। जिस अपराध की बात हो रही है उसमें एक एंगल हिंदूवाद का भी है और मीडिया का एक वर्ग भी इसके साथ शामिल है।  इसके दो कारण हैं, पहला हिंदुओं ने ही घिनौना अपराध किया है और उनका इरादा दूसरी बिरादरी के लोगों को वहां से भगाना है दूसरा कारण है हिंदू संगठन और नेता बलात्कारी  का समर्थन कर रहे हैं इन दोनों तर्कों पर झूठ का मुलम्मा चढ़ा हुआ है और अगर उनकी बारीक जांच की जाए तो यह टिक नहीं पाएगा।
     अब सवाल उठता है कि जब इतना कुछ है ही तो हम न्याय की मांग क्यों कर रहे हैं? जब कि पूरी संभावना है कि इस घटना  को राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। राजनीतिक नेताओं द्वारा बलात्कारियों का बचाव कोई नई बात नहीं है। 1984 के सिख दंगे में बहुत सी महिलाओं के साथ बलात्कार हुए थे लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री जी ने यह कह दिया कि " जब बहुत बड़ा वृक्ष गिरता है तो धरती कांपती है।"   हाल में मीडिया का एक वर्ग तरुण तेजपाल को छुड़ाने के लिए लामबंद हो गया था उनका कहना था तेजपाल हिंदुत्व फासीवाद के शिकार हुए हैं।
  यही नहीं कश्मीर में एक आतंकवादी जो फौज की गोली का शिकार हुआ था , की अंत्येष्टि में हजारों लोग शामिल हुए थे। यानी,  दोषी को बचाना और अपराध को राजनीतिक रंग देना इन दिनों आम बात हो गई है। यही नहीं घटना के बाद मीडिया में बहस  दौरान एक नए किस्म का तर्क सुना  जा रहा है इसमें लोग एक दूसरे समुदाय पर दोष मढ़ने के लिए आमादा रहते हैं और उदाहरण के तौर पर पीछे कभी किए गए अपराध की मिसाल देते हैं। इस तरह के तर्क शातिर किस्म के कायर लोग देते हैं। क्योंकि जब बलात्कार का शिकार एक हिंदू लड़की होती है तो क्यों नहीं बलात्कारियों के धर्म को उछाला जाता है इस दमनकारी व्यवस्था के साथ अगर हम हैं तो समझ लीजिए हम एक-दूसरे के खिलाफ हैं क्योंकि जो बात घर के लिए खराब होती है वह घरवालों के लिए अच्छी नहीं होती । इसका ध्यान रखना जरूरी है।

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