भारत के प्रधान न्यायाधीश पर महाभियोग
भारत के प्रधान न्यायाधीश के विरुद्ध महाभियोग का प्रस्ताव यद्यपि स्वीकार नहीं हुआ लेकिन जनता की संसद में यह लग चुका उसका परिणाम हुआ कि न्यायपालिका की साख और प्रतिष्ठा लोगों के मन से खत्म हो गई। सुप्रीम कोर्ट करोड़ों लोगों के विश्वास और आस्था पर काम करता है तथा उस से उम्मीद की जाती है कि न्याय दे। यह संविधान का रक्षक है और विधि के शासन को कायम रखने वाली सर्वोच्च संस्था है। जन धारणाओं को भी अदालत में हल्के से नहीं लिया जाता बल्कि अदालत की कोशिश होती है न्याय होता हुआ सा प्रतीत हो। जन धारणा अक्सर जजों के व्यक्तिगत आचरण पर तैयार होती है। जजों की नैतिकता नागरिकों को यह सोचने का आधार देती है कि न्याय निष्पक्ष है। लेकिन सीजेआई पर महाभियोग जनता के भरोसे पर महाभियोग है और इस पर फैसला हो चुका है। जनता के विश्वास भंग का मुख्य कारण है कि सुप्रीम कोर्ट समय पर खुद को बदल नहीं सका और यह बात पब्लिक मैं खुल गई। अब लोकसभा के अगले चुनाव में क्या होगा यह अभी से दिखने लगा है। इस अंधी दौड़ में वह सब बर्बाद हो जाएगा जो लोकतंत्र की पूँजी है। इस बर्बादी में संसद के साथ-साथ उच्च न्यायपालिका की साख क्षरण भी शामिल है । कांग्रेस सहित अन्य विपक्षी दलों ने भारत के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा पर महाभियोग का जो कदम उठाया है वह हमारी राजनीति के हाथों संस्थानों को पतित किये जाने का लक्षण है। संस्थानों की मर्यादा का क्षरण - विशेष रूप से संसद और सुप्रीम कोर्ट की साख का लोकतंत्र के लिए घातक है। यह प्रस्ताव न्यायपालिका या प्रधान न्यायाधीश के प्रति "दुर्व्यवहार" का नतीजा नहीं है, यह संसद के गलियारों में खेले जा रहे राजनीतिक खेल का एक परिणाम है।
महाभियोग की नोटिस संस्थानिक गरिमा का अधोविंदु है क्योंकि सीजेआई के साथ ऐसा करने के लिए पर्याप्त सांसदों की संख्या का अभाव बताता है कि इसके पीछे गुप्त राजनीतिक एजेंडा है। कोई भी समझ सकता है कि सात पार्टियां - कांग्रेस, एनसीपी, सीपीआई, सीपीआई (एम), एसपी, बीएसपी और मुस्लिम लीग के पास पर्याप्त संख्या नहीं थी तो उन्होंने ऐसा क्यों किया लेकिन यह मामला नहीं है। दरअसल , सत्तारूढ़ बीजेपी सरकार के तहत संस्थाओं की मर्यादा के भंग होने की प्रक्रिया इतनी तीव्र हो गयी कि प्रधान न्यायाधीश के विरूद्ध महाभियोग उचित लगने लगा।
प्रशांत भूषण जैसे विपक्षी नेताओं और कुछ न्यायविदों ने सर्वोच्च न्यायालय में गिरावट को रोकने के लिए संविधान के प्रावधानों के तहत अंतिम उपाय के रूप में इस कदम को उचित ठहराया है।यह आपातकाल के बाद न्यायपालिका, संसद के साथ-साथ देश के लिए सबसे बुरे क्षणों में से एक है। इसके लिए, प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार कम जिम्मेदार नहीं है। न्यायपालिका की विश्वसनीयता पर हमला किया जा रहा है। सुप्रीम कोर्ट में न्यायाधीश बंट गए हैं और वे प्रधान न्यायाधीश आचरण पर निराशा व्यक्त कर रहे हैं। अभी कुछ दिन पहले चार वरिष्ठ न्यायाधीशों - जस्टिस जे चेल्मेश्वर, रंजन गोगोई, कुरियन जोसेफ और मदन लोकुर – ने प्रेस कन्फरेन्स बुला कर सार्वजनिक रूप से सीजेआई मिश्रा के खिलाफ अपनी शिकायतों को व्यक्त करने के अभूतपूर्व कदम उठाए। सुप्रीम कोर्ट के मामलों से दूरी बनाए रखने की बजाय, राजनीतिक दल बहते पानी में मछली पकड़ने के अभियान पर हैं।
दूसरी तरफ, सरकार - विशेष रूप से मोदी ने विपक्ष के साथ संवाद के सभी चैनल बंद कर दिए हैं जिसके परिणाम स्वरूप संसद ठप्प हो गयी है। संसद में लॉगजाम, चर्चा के बिना वार्षिक बजट पारित करना , अविश्वास प्रस्ताव और ऐसे कई उदाहरण संसद की भारी गिरावट के संकेतक हैं।
देश के एकाधिक भागों में घृणित घटनाएं और बीजेपी द्वारा सांप्रदायिक रेखाओं के साथ राजनीतिकरण और आरोपी के बचाव के प्रयास सार्वजनिक जीवन में अराजकता और व्यवस्था में गिरावट लक्षण हैं। मोदी सरकार उच्चतम संस्थानों - संसद और न्यायपालिका और आम लोगों- के विश्वास को कायम करने के लिए कम से कम काम कर रही है। मोदी के खिलाफ एकता की मांग करते हुए विपक्षी भी विभाजित है।
यह साबित करता है कि प्रधान न्यायाधीश मिश्रा को हटाने की योजना कांग्रेस और विपक्ष के एक वर्ग ने उन्हें शर्मिंदा करने के स्पष्ट इरादे से बनाई है। सी जे आई पर हमला संविधान और लोकतंत्र पर असर डालेगा। इसे राजनीतिज्ञों से बचाकर रखना होगा। अदालत ने आजादी के बाद से यह भूमिका निभाई है। और जब वह असफल हो जाता है हम कहते हैं यह आपातकाल है।
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