2019 में कौन जीतेगा?
अरसे बाद उत्तर प्रदेश में विपक्षी दलों को जश्न मनाने का मौका मिला है। गोरखपुर और फूलपुर में भाजपा को पराजित कर सपा- बसपा अभी भी उत्साह के मूड में है। इस उत्साह को और बढ़ा रही है यह बात कि गोरखपुर सीट पहले मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की थी और फूलपुर सीट उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य की थी। यानी, दोनों हाई प्रोफाइल सीट से भाजपा हार गई। दोनों सीटें फिलहाल समाजवादी पार्टी के हाथ में है। गोरखपुर से समाजवादी पार्टी ने प्रवीण निषाद को खड़ा किया था और फूलपुर से नरेंद्र प्रताप सिंह पटेल को। जश्न इतना ज्यादा मनाया जा रहा है कि देखकर यह पूछना पड़ता है कि क्या यह दोनों सीटें जीतने के बाद इतना जश्न सही है? गैर भाजपाई दल तो यह कह रहे हैं कि गोरखपुर और फूलपुर तो बस ट्रेलर हैं कि 2019 में लोकसभा चुनाव में क्या होने वाला है! पत्रकार, राजनीतिक टिप्पणीकार और विश्लेषक यह मानते हैं कि इन दोनों उपचुनावों के परिणाम जनता के असंतोष और व्यवस्था के विरोध में अभिव्यक्ति है। यह केंद्र तथा राज्य दोनों में बराबर है। क्योंकि, गोरखपुर सीट लगभग दो दशकों से ज्यादा अवधि से भाजपा के कब्जे में थी। यहां से योगी आदित्यनाथ 5 बार चुनाव जीते हैं। चुनाव के पहले तक सपा - बसपा गठबंधन यह सोच भी नहीं सकती थी कि वे इन दोनों सीटों को जीत जायेंगे और इतने बड़े अंतर से जीतेंगे। यह तो उम्मीद से ज्यादा है। पार्टी को उम्मीद से ज्यादा मिल गया । लेकिन, विजय के बाद कोई इसे कबूल थोड़े ही करता है। उल्टे वे तो इस बात पर अड़े थे यह होना ही था।
यूपी के अलावा बिहार में उपचुनाव के परिणाम भी लोगों को अचरज में डाल देने वाले हैं। भाजपा केवल भभुआ सीट जीत सकी जबकि राजद ने अररिया लोकसभा सीट और जहानाबाद सीट जीत ली। अब कह सकते हैं विजय का स्कोर लोकसभा सीट में भाजपा के 3- 0 था जबकि विधानसभा सीट के लिए 1-1 था।
अब सवाल उठता है कि क्या इन क्षेत्रीय दलों की विजय का 2019 के लोकसभा चुनाव में कोई महत्व है? उत्तर दोनों हैं, हां और ना।
" हां " ,इसलिए कि भाजपा की उपचुनाव में हार यह बताती है की पार्टी अपराजेय नहीं है । अगर विपक्ष अपना पत्ता ठीक से खेले और सही गठबंधन तैयार करे जैसा कि सपा बसपा ने किया था, बिहार में । जैसा, बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान राजद - जदयू ने किया था, तो उम्मीद बन सकती है। " ना" इसलिए की 2019 के चुनाव में अभी 1 वर्ष बाकी है। इस बीच कई बदलाव हो सकते हैं।
यही नहीं उपचुनाव के नतीजे भाजपा विरोधी लहर की पहचान नहीं हो सकते। एक बात दिमाग में रखनी होगी कि पार्टी कहीं भी विधानसभा चुनाव में पराजित नहीं हुई । जहां वह शासन में थी और अभी हाल में जहां चुनाव हुए थे उनमें से भाजपा पंजाब और बिहार में पराजित हुई लेकिन इन दोनों राज्यों में यह गठबंधन में जूनियर पार्टनर थी। बिहार में जदयू के साथ इसका तालमेल था और पंजाब में शिरोमणि अकाली दल के साथ। क्या भाजपा ऐसे किसी राज्य में पराजित हुई है जहां वह अकेले शासन में थी? अगर ऐसा हुआ होता तो उसकी सफलता की कथा में एक गंभीर मोड़ होता। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। भाजपा जहां अकेले सत्ता मे थी वहां कायम रही। अगर सचमुच ऐसी बात है तो उसका असर मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में दिखेगा। इनमें राजस्थान ही एकमात्र ऐसा राज्य है जहां हर 5 साल के बाद पुरानी पार्टी का शासन नहीं रहता । जबकि मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में भाजपा लगभग 15 वर्षों से सत्ता में है। शिवराज सिंह चौहान और रमन सिंह अपने-अपने राज्यों में बहुत ताकतवर राजनीतिक नेता हैं। उनकी लोकप्रियता भी बहुत ज्यादा है । अगर भाजपा यहां हारती है तो हैरत होगी और यह भाजपा के पराभव की पहचान भी होगी । यही नहीं ,राजस्थान ,मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ इसलिए भी महत्वपूर्ण हैं कि यह हिंदी भाषी क्षेत्र हैं और यहां से 2014 में लोकसभा चुनाव में भाजपा को भारी बहुमत से विजय मिली थी जिससे वह सत्ता में आ गई थी। अब इन राज्यों को 2019 के चुनाव के लिए नमूने के रूप में देखा जा सकता है। कर्नाटक के चुनाव को इस सूची में शामिल नहीं किया जा सकता। क्योंकि , यहां कांग्रेस सत्ता में है । अगर , कांग्रेस विजयी हो जाती है तो कहा जाएगा कि वहां पुरानी सरकार कायम रही और यदि भाजपा जीत जाती है तो यही कहा जा सकता है कि यह व्यवस्था विरोधी रुझान के कारण हुआ है। तर्क दिए जा सकते हैं कि विपक्षी दलों ने भाजपा को उत्तर प्रदेश में , जहां यह सत्ता में है , हराकर बहुत बड़ी विजय हासिल की है। इसे कम करके नहीं आंका जा सकता। इसका उत्तर सिर्फ यही है कि यह उपचुनाव है । एक राज्य में चुनाव जीतना एक बात है और आम चुनाव में जीतना पूरी तरह अलग चुनौती है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि भाजपा हारी है तब भी यह विपक्ष के लिए जश्न मनाने का समय नहीं है। क्योंकि , जिन राज्यों में वह सत्ता में है वहां विपक्ष उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता है। अगला एक साल विपक्ष के लिए लिटमस टेस्ट होगा और अगर वह इस अवधि में कुछ नहीं कर सका तो तय है कि उसके बाद का वक्त विपक्ष के लिए बहुत बुरा होगा।
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