एक साथ चुनाव कराने का विचार चिंताजनक
देशभर में चुनाव में एकरूपता लाने के लिए नरेंद्र मोदी सरकार कुछ दिनों से विधानसभाओं और संसद के चुनाव एक साथ कराने की सोच रही है । हालांकि इस पर बहुत कम बात हुई है। इस चुनाव का भारत के राजनीतिक भविष्य पर गंभीर प्रभाव पड़ेगा इस बात पर भी कोई बहस नहीं हुई है। भारत सरकार ने इस मामले में चुनाव आयोग से विचार मांगे हैं कि अगले साल से लागू किया जा सकता है या नहीं। विधि आयोग इस मामले में इस महीने के आखिर में अपनी रिपोर्ट सौंप देगा। अब जब की बात यहां तक पहुंच गई है तो इस पर ध्यान जाना जरूरी है। इस बारे में सरकार का सबसे पहला कथन है कि विधानसभाओं और संसद का चुनाव एक साथ कराने से खर्चे बचेंगे, क्योंकि चुनाव बहुत खर्चीला मामला है। साथ ही कहीं ना कहीं हमेशा चुनाव होता रहता है तो इससे सरकार के नीतिगत कामों में बहुत बाधा पहुंचती है। यह बात सुनने में जितना दिलचस्प और संगति पूर्ण लगती है उससे कहीं ज्यादा इस तरह के बदलाव करना आसान है। क्योंकि संविधान में किसी भी सरकार के लिए कोई निश्चित अवधि तय नहीं है। एक सरकार तब तक गद्दी पर रह सकती है जब तक उसे संबद्ध सदन का विश्वास हासिल हो। अब ऐसा करने के लिए सरकार को एक संशोधन लाना होगा जिसमें सरकार की अवधि तय करनी होगी। लेकिन इसके लिए सहमति बहुत कठिन होगी। फ़र्ज़ करें हमारे देश में 29 राज्य है। कोई राज्य सरकार 2016 में बनती है तो नियमत: उसे 2021 तक चलनी चाहिए। विधानसभा के चुनाव एक साथ कराने के लिए , अब मान लें कि 2019 में चुनाव कराने हैं ऐसी सूरत इसकी अवधि 2 साल कम करनी पड़ेगी। दूसरी दिक्कत होगी किसी राज्य में कानून और व्यवस्था खराब हो जाने के कारण राष्ट्रपति शासन लगाना पड़ा हो, ऐसी स्थिति में उस विशेष राज्य में बाकी अवधि के लिए राष्ट्रपति शासन लगा रहेगा। अगर ऐसा होता है तो इससे केंद्र सरकार को मामूली बातों पर भी राष्ट्रपति शासन लगाने के लिए मसाला मिल जाएगा। खास करके ऐसी स्थिति में जब उस राज्य में विरोधी दलों का शासन हो। यह देश के फेडरल स्ट्रक्चर के विरोध में होगा। सरकार अविश्वास प्रस्ताव के तर्ज पर विश्वास प्रस्ताव के बारे में भी सोच रही है। इसका अर्थ होगा अगर कोई सरकार अविश्वास मत के आधार पर गिरा दी जाती है तो विपक्ष को प्रमाणित करना होगा कि उसके पास सरकार गठन के लिए अपेक्षित संख्या है। वस्तुतः यह व्यवस्था किसी भी सत्तारूढ़ सरकार के खिलाफ उंगली उठाने के अवसरों को खत्म कर देगी। यह बहुत खराब व्यवस्था है। क्योंकि लोकतंत्र में जवाबदेही का तत्व अनिवार्य है । उदाहरण के तौर पर देखें 2014 के चुनाव प्रचार के दौरान श्री नरेंद्र मोदी ने वादा किया था कि वह आंध्र प्रदेश को विशेष दर्जा देंगे लेकिन जैसे ही सत्ता मिली उन्होंने इस बात को यह कह कर टाल दिया कि इस में कानूनी दिक्कतें हैं। अगर किसी सरकार की अवधि तय होगी तो इसकी तरफ उंगली कैसे उठाई जा सकती है। विधानसभा और संसद के चुनाव एक साथ कराने व्यवस्था क्षेत्रीय पार्टियों के विरोध में होगी,यह भी लोकतंत्र के उद्देश्य के विपरीत है क्योंकि यह जनता की इच्छा का सम्मान नहीं है।
बेशक चुनाव महंगे हैं और एक साथ चुनाव इस समस्या का समाधान कर सकते हैं लेकिन इसे राष्ट्रीय कोष के नजरिए से नहीं देखा जाना चाहिए क्योंकि लोकतंत्र के लिए यह जरूरी है। अगर सदन में विश्वास होने का खतरा खत्म हो जाएगा तो सरकार अधिनायकवादी हो जाएगी और हो सकता है धनबल तथा बाहुबल का उपयोग और बढ़ जाए । यह भी लोकतंत्र के लिए खतरनाक है। अब एक ऐसी सरकार जिसने पिछले कई सालों से लोकतांत्रिक उद्देश्य का तिरस्कार करती रही है वैसे सरकार की ओर से जब इस तरह के सुझाव आते हैं तो उसे सावधानी से परखा जाना चाहिए। यह जरूर देखा जाना चाहिए किस में यही सरकार का दूरगामी हित तो नहीं है, या कोई गुप्त इरादा तो नहीं है।
यह एक ऐसी सरकार है जिसने रातों रात नोटबंदी लागू कर दी बिना कुछ सोचे समझे। सरकार ने यहां तक नहीं सोचा कि 2000 और500 के नए नोट को ए टी एम् से देने के लिए उसमें नई व्यवस्था करनी होगी। ऐसी सरकार की ओर से जब विधानसभा और संसद के चुनाव एक साथ कराने की बात आती है तो गंभीरता से सोचा जाना जरूरी है।
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