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Monday, April 9, 2018

फेक न्यूज़ हमेशा से रहा है

फेक न्यूज़ हमेशा से रहा है

फेक न्यूज़ यानी भ्रामक समाचार कोई नया नहीं है । इस जमाने में लोगों को यह भ्रम है कि इसी दौर की बात है। लेकिन नहीं, जबसे समाचारों का इतिहास मिलता है तब से अलग-अलग स्वरुप में भ्रामक समाचार पाए जाते हैं । याद होगा महाभारत के युद्ध का वह दृश्य जब युधिष्ठिर घोषणा करते हैं “ अश्वत्थामा हतो नरो वा कुंजरो वा ” और कृष्ण जोर से शंख बजा देते हैं । समाचार के ग्राहक गुरु द्रोणाचार्य तक यह  संदेश जाता है कि उनका पुत्र अश्वत्थामा मारा गया , जबकि इस नाम का एक हाथी मारा गया था और द्रोण की मृत्यु हो जाती है । इससे पहले का भ्रामक समाचार का उदाहरण शायद कहीं नहीं उपलब्ध है।

   वर्तमान दौर में जब समाचारों के संजाल में भ्रामक समाचार, सत्योत्तर समाचार और वैकल्पिक समाचार पर चर्चा होती है तो ऐसा लगता है यह इसी युग की बात है और सिर्फ हम ही इसमें शामिल हैं। जबकि हकीकत यह है कि पूरी दुनिया में इंटरनेट के संजाल  में ऐसी खबरें अलग अलग स्वरूप में घूमती रहती हैं । भ्रामक खबरों के भ्रम में पिछले हफ्ते भारत के सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने एक निर्देश जारी किया इरादा था इस पर रोक लगाना। वह लागू नहीं हो सका क्योंकि समाचार संप्रेषण के सिद्धांतों को देखते हुए इसे समझ पाना बड़ा मुश्किल है। इतिहास देखेंगे तो ऐसा लगेगा कि जब से  समाचारों का अस्तित्व है तब से भ्रामक समाचार भी कायम हैं। 18 वीं सदी में फ्रांस के अखबार कनार्डस ने अपने पाठकों को यह विश्वास दिला दिया कि चिली से दैत्य स्पेन भेजे जा रहे हैं । चारों तरफ गुस्सा फैल गया। फ्रांसीसी क्रांति के कुछ साल पहले एक अंग्रेजी अखबार ने हवा उड़ाई फ्रांस की महारानी मेरी इंग्लैंड का पक्ष ले रही हैं और मामला अदालत में चला गया । पत्रकार शुरू से अर्धसत्य के लिए बदनाम हैं , लेकिन यह बहुत सच नहीं है। क्योंकि संचार के अर्थ और उनके बिंब ग्राहकों की समझ पर आधारित होते हैं। सच और कथा में बहुत बारीक अन्तर होता है। यह फर्क बीसवीं सदी में दिखना शुरू हुआ  लेकिन दोनों का अस्तित्व कायम रहा। याद होगा और ओर्सन वेल्स का रेडियो ड्रामा “ वार ऑफ द वर्ल्डस” जिसके माध्यम से आतंक फैलाया गया कि हमला होने ही वाला है। आतंक इतना ज्यादा हो गया था कि हिटलर ( डिकडंस …. ऑफ डेमोक्रेसी ) तक को सोचना पड़ा।

     इस समय तो हालत यह है की भ्रामक समाचारों के बारे में भी समाचार  भ्रामक होते देखे जा सकते हैं। आतंक के संबंध में खबरें बढ़ा-चढ़ाकर दी जाती हैं। भ्रामक समाचार पत्रकारिता के अंधेरे पक्ष में हमेशा कायम रहे हैं। क्योंकि इस पेशे में अफवाह , रहस्य और कही -सुनी ( गॉसिप)  बातें भी मिलकर खबरें बनाती हैं। डोरतों ने लिखा है की 18 वीं सदी के फ्रांस में कथावाचक वर्ग (नोवुलिस्ट्स ) वर्ग सामंत वर्गीय समाज के बारे में गॉसिप लिखा करता था और कागज के उस टुकड़े को एक दूसरे से बदलकर बाद में पार्कों में फेंक देता था। वह कागज़ के टुकड़े बाद में सामंती समाज के बारे में खबरों का आधार बनते थे। इसी नोवुलिस्ट   शब्द से नावेल बना। 18 वीं सदी के ब्रिटिश अखबार रिपोर्टरों के साथ-साथ” पैराग्राफ मैन” हुआ करते थे जो कॉफी हाउस के गॉसिप के अंश भेजा करते थे। क्योंकि ब्रिटिश कॉफी हाउस वहां की राजनीतिक विचारधारा का केंद्र हुआ करता था और दिन भर राजनीति पर तरह-तरह की चर्चाएं होती थीं। बाद में उन्हीं चर्चाओं के आधार पर ख़बरें बनती थीं और अखबारों में जाती थीं। यही नहीं यूरोपीय प्रेस के शुरुआती दिनों में अखबारों के साथ पर्चे भी छपते थे । खबरें प्रोपगंडा से बनती थी चर्चे का मसाला बन जाती थीं।

समाज में गॉसिप खबरों का प्राथमिक स्रोत होता था। आज जो खबरें आती हैं और उनकी जांच होती है फिर उन्हें “क्रॉस  चेक” किया जाता है फिर किसी स्रोत को उसके लिए जिम्मेदार बनाया जाता है। यह सब 18वीं शताब्दी की ही देन है।

    सड़कों पर उड़ती अफवाहें जब अखबारों में पहुंचती है तो एक नई ताकत बन जाती है। कई बार इन अफवाहों ने खबरों के रूप में जनता को झकझोर दिया है । आरंभिक दिनों से ही प्रेस का एक भाग सत्ताधारियों के हित साधन में लगा रहता था। यदि यदि डोनाल्ड ट्रंप किसी ऐसी  खबर पर गुस्सा होते हैं, जो उनकी आलोचना करता है , उसे भ्रामक समाचार बताते हैं और उस रिपोर्टर पर पाबंदियों की बात करते हैं तो यह कोई नई बात नहीं है । ऐसा 17 वीं शताब्दी में ब्रिटिश सम्राट ने भी किया था उस समय गॉसिप खबरें बनने लगी थीं और सम्राट को काफी असुविधा होने लगी थी तो  आदेश हुआ की खबरें वहीं छपेंगी जो सम्राट की ओर से मंजूरी प्राप्त होंगी। खबरों पर सेंसर का दौर इमरजेंसी के समय भारत में भी हुआ था शायद पाठकों को ज्ञात होगा कि ऐसी किसी भी कोशिश का विपरीत प्रभाव पड़ा है। इस तरह के सेंसर करने वाले ब्रिटिश सम्राट चार्ल्स प्रथम को 1649 में दंड भोगना पड़ा था। इमरजेंसी के बाद इंदिरा जी की सरकार गिर गई थी।

    विगत 4 वर्षों से ऐसा लग रहा है कि सत्ता पक्ष द्वारा रचे गए  प्रचार संजाल के बीच हम जी रहे हैं। देश के बहुत बड़े भाग को महसूस हो रहा है कि हम “ उदारता की साजिश के चंगुल” में फंस गए हैं । लोग बेबस हैं। कुछ कर नहीं पा रहे हैं। आज भ्रामक समाचार का भ्रष्ट प्रभाव और आतंक के दुष्प्रचार के बीच सरकार चाहती है  कि प्रेस की जुबान बंद कर दी जाए। लेकिन अगर ऐसा होता है इसका परिणाम बहुत खराब होगा । इतिहास इसका गवाह है।

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