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Thursday, April 5, 2018

बिहार में बिछ रही है नई बिसात

बिहार में बिछ रही है नई बिसात

फेडरल मोर्चे के गठन ने क्षेत्रीय दलों को एक बार फिर सामने ला दिया है। उप चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की मामूली पराजय और मोदी की लोकप्रियता के ग्राफ के गिरने  और एनडीए के सहयोगी दलों असंतोष ने क्षेत्रीय दलों के आत्मविश्वास को बढ़ा दिया है । एक मौका था कि ऐसे संगठनों का नेतृत्व करने के लिए नीतीश कुमार सबसे मुफीद नेता माने जाते थे पर जब से वह  बार पलटी मार गए तो उनकी इस दिशा में संभावनाएं समाप्त हो गईं। अब नए हालात में जरूर अपने फैसले पर पछता रहे होंगे । इधर, नीतीश कुमार को पिछले कई मौकों पर मोदी - शाह जोड़ी ने जमकर लताड़ा है और अब  जबकि बिहार में भारी सांप्रदायिक तनाव हो गया है तो नितीश कुमार का संबंध केंद्रीय दल से और भी तनावपूर्ण हो गया है। अररिया और जहानाबाद के नतीजों ने संकेत दिया है कि महादलित और मुस्लिम मतदाताओं का नीतीश पर से विश्वास हट गया है या उन पर  नीतीश की पकड़ कमजोर हो गई है ।

कभी यह समझा जाने लगा था कि भाजपा और जदयू का गठबंधन अपराजेय है । लेकिन अब ऐसा लगता है कि गठबंधन गांठें ढीली पड़ती   जा रही है ।

मोदी जी ने पिछले साल मंत्रिमंडल में फेरबदल किया लेकिन इसमें जदयू के किसी सदस्य को शामिल नहीं किया गया। मंत्रिमंडल में नौ सदस्य शामिल किए गए जिनमें दो बिहार से थे लेकिन जदयू का कोई नहीं था । पटना विश्वविद्यालय की  शतवार्षिकी समारोह में नीतीश कुमार ने प्रधानमंत्री से अनुरोध किया था कि इसे केंद्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा दिया जाए लेकिन मोदीजी ने इसे नजरअंदाज कर दिया । तेलुगू देशम पार्टी ने आंध्र प्रदेश को विशेष दर्जा देने की मांग को लेकर एन डी ए से अलग हो गई।  नीतीश ने भी एक बार बिहार को विशेष दर्जा देने की मांग की थी और विशेष सहायता देने का भी अनुरोध किया था ताकि बिहार तेजी से तरक्की कर सके । लेकिन अब तक इस विषय में कोई आश्वासन नहीं मिल पाया है , और वे कुछ करने का साहस नहीं जुटा पा रहे हैं।

 जदयू की सबसे बड़ी चिंता सीट को लेकर है कि 2019 में लोकसभा चुनाव के दौरान सीटों का बंटवारा कैसे होगा?  जदयू को मिलाकर एन डी ए में बिहार में चार पार्टियां हैं । इनमें भाजपा भी है । राज्य से भाजपा के 22 संसद है , लोक जनशक्ति पार्टी के सात, राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के दो और जदयू के दो सांसद हैं ।  बिहार के 40 सांसदों में से जदयू को छोड़कर एन डी ए में 31 सांसद हैं। जदयू को बँटवारे के सम्मानजनक प्रस्ताव म की उम्मीद है । जिसमें उन्हें 50% सीटें मिलें। लेकिन ऐसा होगा नहीं लगता है । भाजपा पदेन सांसदों को कैसे टिकट देने से मना कर सकती है ?

 भाजपा नीतीश कुमार को यह कह सकती है वह कम सीटों पर लोकसभा चुनाव लडें और  विधानसभा चुनाव में ज्यादा क्षेत्रों से । यह बात शायद ही जदयू कार्यकर्ताओं के गले से उतरे ।  उम्मीद है की नीतीश कुमार मांग रखें उन्हें तथा भाजपा को 17-17 सीटें और बाकी 6 सीटें अन्य दलों में तक्सीम कर दी जाएं। इससे अन्य घटक दल नाखुश हो जाएंगे और हो सकता है की पार्टी भी छोड़ने पर आमादा हो जाएं। रामविलास पासवान की तरह सहयोगी नेता इस संभावना को भांपकर पहले से ही शोर मचाना शुरू कर दिए हैं । ताकि सौदेबाजी का दावा कायम रहे ।          भाजपा शासन को सुधारने तथा चुनावी खर्च को घटाने के लिए देशभर में एक साथ चुनाव की वकालत कर रही है । लोकसभा चुनाव 2019 के मई महीने में होने वाले हैं । इसके पहले केंद्र सरकार को राज्यों की जनता से इस अवधारणा की मंजूरी लेनी होगी। भाजपा अपनी सरकारों को यह कह सकती है कि विधानसभा चुनाव थोड़ा पहले करा दें। बिहार में 2020 के अक्टूबर में चुनाव होने कोे हैं और उसे पहले चुनाव कराने के लिए कहा जा सकता है। भाजपा इसको नीतीश कुमार को समझा  सकती है कि उनका कुछ नहीं बिगड़ने वाला है । जो भी जीतेगा वह मोदी की हवा से ही जीतेगा। अब यह सवाल है नीतीश कुमार अपना कार्यकाल डेढ़ बरस क्यों कम करेंगे और इतनी बड़ी जोखिम क्यों लेंगे? नीतीश 2005 से बिहार पर शासन कर रहे हैं बीच में कुछ दिन के लिए नहीं थे जब उन्होंने माझी को मुख्यमंत्री बनाया था। इतनी लंबी अवधि व्यवस्था विरोधी भाव पैदा करने के लिए बहुत है । क्योंकि माझी ने राजद से हाथ मिला लिया है । इसलिए हो सकता है कि महादलित वोट बैंक नीतीश से विमुख हो जाएं और भाजपा के चलते मुस्लिम वोट बैंक पहले ही कट चुके हैं।

  शुरु-शुरु में खुशफहमी थी और आर्थिक मोर्चे पर खुशहाली दिख रही थी वह दूसरी बात है । अब जबकि सियासी दांव सही नहीं लग रहे हैं औऱ बिहार का विकास रुक गया है क्योंकि इस बार के दौर में शुरू में कुछ वक्त मोदी का विरोध करने में गुजर गये फिर लालू के साथ गुटबाजी में कुछ वक्त खत्म हो गया । अब नीतीश बिहार की फिक्र छोड़ दूसरी पारी के जुगाड़ में मोदी को पटाने में लगे हैं । इस बीच बिहार का विकास अवरुद्ध हो गया है। क्रिसिल के आंकड़े में उसका स्थान नीचे गिर गया है ।  शराबबंदी पर नीतीश के आदेश की अच्छी प्रतिक्रिया हुई थी, खासकर के राज्य के महिलाओं में इसका समर्थन किया था। बिहार में अपराध तेजी से कम हो रहे थे लेकिन जब से अररिया में राजद को विजय मिली सबसे उस इलाके में सांप्रदायिक तनाव बढ़ गए। भाजपा नेता गिरिराज सिंह के बयान के बाद तनाव और बढ़ गया है। नीतीश कुमार ने इस बयान को जोरदार ढंग से खारिज कर दिया है फिर भी बात नहीं बन रही है । एक मंत्री अश्विनी चौबे के पुत्र का नाम भी एफ आई आर में है। यह घटनाएं नीतीश की छवि को धूमिल कर रहीं हैं। नीतीश कुमार भारतीय राजनीति में सबसे बड़े “पलटू “ हैं।  लालू और नीतीश कभी दोस्त हुआ करते थे । 1995 में दोनों दुश्मन हो गए। फिर 2004 में दोनों मित्र हो गए । राजद से टूटने के बाद नीतीश कुमार ने अपने और लालू के बीच कटीले तार खड़े कर दिए। अब नीतीश अपने फैसले पर पछता रहे होंगे लेकिन वह बहुत चालाक आदमी हैं। फेडरल मोर्चे में कोई न कोई जगह बना ही लेंगे । लेकिन अगर मोदी-शाह की जोड़ी इनसे नाराज हो गई तो मोदी को उन्हें छोड़ना ही पड़ेगा । इससे 2020 का चुनाव का बहाना मिल जाएगा। जुमला होगा बिहार में नीतीश थोड़ा नीचे गिरे तो ज़रूर हैं लेकिन मैदान में डटे हुए हैं । देखना है नतीजा क्या होता है ?

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