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Tuesday, July 31, 2018

कृषि को नियंत्रण मुक्त किया जाए

कृषि को नियंत्रण मुक्त किया जाए
अभी हाल में सरकार ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में धान, कपास और अन्य खरीफ फसलों के उगाही मूल्य बढ़ाने की घोषणा की। उस प्रेस कॉन्फ्रेंस में गृहमंत्री राजनाथ सिंह भी मौजूद थे और आत्मप्रशंसा के मूड में दिख रहे थे। उन्होंने कहा कि, सरकार ने  किसानों को उनके उत्पादन मूल्य से 50% ज्यादा कीमत देने का अपना वादा पूरा कर दिया। अब क्या सचमुच स्वामीनाथन आयोग की अनुशंसा के मुताबिक मूल्य वृद्धि 50% है या नहीं यह बहस का विषय है। इस बहस को थोड़ी देर के लिए छोड़ दीजिए । यह देखा जाए कि  यह उगाही एक धोखा है या वास्तविकता। विख्यात कृषि अर्थशास्त्री डॉ अशोक गुलाटी के अनुसार " यह घोषणा एक बड़ी मूर्खता है और सरकार को कृषि अर्थव्यवस्था की जानकारी नहीं है। कृषि अर्थव्यवस्था तो छोड़िए मामूली अर्थव्यवस्था की भी जानकारी नहीं है। क्योंकि यह बहुत साधारण बात है कि बाजार की कीमतें मांग और आपूर्ति की जरूरतों के आधार पर तय होती है इसे तुमको उत्पादन मूल्य के आधार पर तय नहीं किया जा सकता।"
  जो खेती करते हैं वह इसका सच जानते हैं। उदाहरण के लिए बादाम ही लें । इसका उगाही मूल्य 4,500 रुपए प्रति क्विंटल है। जबकि यह बाजार में 3500 रुपए प्रति क्विंटल बिक रहा है। कारण बिल्कुल साधारण है कि मूल्य बाजार तय करता है। सरकार ने कपास के मूल्य में 26% की वृद्धि की है और यही मौजूदा कीमत है । अब इसका असर  होगा कि  कपास का निर्यात शून्य हो जाएगा क्योंकि घरेलू मूल्य और निर्यात मूल्य में महज 10% का अंतर है। सिर्फ 26% के कारण हम अंतरराष्ट्रीय बाजार से बाहर हो जाएंगे। इधर कॉटन कारपोरेशन को 70 लाख टन कपास की उगाही करनी होगी वर्ना घरेलू बाजार समाप्त हो जाएगा । अब इस 26% का कपड़ा उद्योग पर क्या असर पड़ेगा यह तो अलग बात है, वैसे खबर है कि कपड़े की कीमत में 10% तत्काल वृद्धि हो जाएगी । बुनियादी तथ्य है कि सरकार जो उगाही करेगी वह कुल उत्पादन का 10 से 15% ही होगा और उसके बाद किसान कपास के ढेर पर चुपचाप बैठा अपनी किस्मत को रोता रहेगा । सरकार के भंडार में वैसे ही 40 लाख टन  दाल और कई लाख टन चावल तथा गेहूं पड़ा हुआ है । इस भंडार का अनाज राशन की दुकानों के माध्यम से  बेचा जाएगा या घाटा बर्दाश्त कर निर्यात कर दिया जाएगा अथवा पड़ा-पड़ा सड़ जाएगा। 2017 में  खाद्यान्न का सब्सिडी बिल 1 लाख 69 हजार करोड़ था और इस साल इसमें और भी ज्यादा वृद्धि होगी।  वैसे व्यवहारिक बुद्धि तो यह बताती है की स्वामीनाथन द्वारा अनुशंसित मूल्य सरकार द्वारा देना संभव नहीं है ,क्योंकि इससे भारी घाटा होगा और इस तरह से जो कीमतें तय होती हैं उनका बाजार से कोई संबंध नहीं है।
     यही हाल गन्ना और दूध को लेकर भी है। गन्ना मिलें और डेयरी उद्योग के पास भारी स्टॉक पड़ा हुआ है जो बिक ही नहीं रहा है और सरकार अनाप-शनाप कीमतें तय करती है। अब इसका नतीजा यह होता है गन्ना किसानों और दूध की आपूर्ति करने वाले किसानों के लिए कीमत तो बढ़ गई लेकिन बाजार का मूल्य नहीं बढ़ा और स्टॉक यूं ही पड़ा रहता है। पाउडर दूध की कीमत बहुत बढ़ गई लेकिन उसका निर्यात  मूल्य तेजी से गिर गया ।अक्टूबर से आशंका है कि इन दोनों वस्तुओं में भारी संकट आएगा।
         वास्तविक समस्या तो यह है कि हम जितना उत्पादन करते हैं उतनी खपत नहीं है। अब अगर बाजार कीमतों को तय करता है तो कीमतें गिर जाएंगी ,किसानों को हानि होगी। अब कम कीमतों के कारण सरकारी गोदाम कृषि उत्पादन से भरे हुए हैं और  सड़ रहे हैं अथवा कम कीमत पर बेचे जा रहा है । यह चक्र हर साल चलता है और गरीब किसान उसी फसल को बढ़ती उम्मीदों के साथ पैदा करता रहता है ,जो कभी पूरी नहीं होती।
   समाधान थोड़ा पीड़ादायक है और उसे लागू करने में थोड़ा समय भी लगेगा । जाहिर है कि अगर किसान उत्पादन की कीमत घटाने के काबिल हो जाए ताकि बाजार का मूल्य लाभदायक हो सके ऐसा तभी हो सकता है जब बेहतर जानकारी और अच्छी टेक्नोलॉजी के जरिए वह सस्ते में अपना उत्पादन बढ़ा सकें। दूसरा कि वह सीधे बाजार में अपना माल बेच सके। सरकार को कृषि पर से अपना नियंत्रण थोड़ा ढीला करना होगा। समय आ गया है कि कृषि उत्पादन को आवश्यक वस्तु अधिनियम के दायरे से मुक्त किया जाए। भारतीय किसान राष्ट्र का पेट भरने की क्षमता रखता है । उसे विदेशी बाजारों में भी सामान बेचने की अनुमति मिलनी चाहिए ताकि वह ज्यादा सक्षम बन सके । कोई कारण नहीं है कि भारतीय किसान चुनौतियों का सामना नहीं कर सकता है ।1991 के बाद से भारतीय उद्योग ने बहुत कुछ कर दिखाया है ,अब किसानों की बारी है उन्हें भी अवसर दिया जाए।
      ऐसा करने से कुछ दिनों तक दिक्कतें आएंगी। हो सकता है कि कृषि कार्य में थोड़ी मुश्किलें आएं और कीमतें भी बढ़े लेकिन यह तो सुधार तथा परिवर्तन की पीड़ा है। शहरी क्षेत्र इस पीड़ा को बर्दाश्त करने को तैयार है। अगर हम नहीं बदलते हैं तो अपने किसान भाइयों के साथ भारी अन्याय करेंगे। परिवर्तन से अलावा कोई विकल्प नहीं है।

Monday, July 30, 2018

चुनाव पूर्व गठबंधन से विपक्ष को शायद ही लाभ हो

चुनाव पूर्व गठबंधन से विपक्ष को शायद ही लाभ हो
2019 के लोकसभा चुनाव में विपक्ष को  बहुमत मिलने की बहुत कम संभावना है । विपक्ष के लिए विभाजित महागठबंधन फेडरल मोर्चा की  समर नीति आवश्यक है , राष्ट्रव्यापी गठबंधन नहीं। ऐसे गठबंधन व्यर्थ साबित हो सकते हैं।  कांग्रेस के लिए ज्यादा अच्छा होगा कि  वह चुनाव पूर्व दो  राष्ट्रीय गठबंधन या फेडरल मोर्चा  तैयार करे। पहला हो, यूपीए मोर्चा जिसमें वामपंथी दल ,एनसीपी ,द्रमुक, जनता दल( एस), राजद, नेशनल कांफ्रेंस और अन्य छोटे दल शामिल हों। इस गठबंधन वाले  यूपीए के पास आज  लोक सभा में   75 सीटें हैं । दूसरा गठबंधन या मोर्चा हो  क्षेत्रीय दलों का।  जिसमें में सपा, बसपा टीएमसी , पीडीपी और अन्य छोटे-छोटे दाल होंगे ।   इनके पास वर्तमान  लोकसभा में  65 सीटें हैं।  दोनों को मिलाकर लोकसभा में इन दलों के  सांसदों की संख्या 140 हो जाती है ,जो बहुमत से बहुत पीछे है।
    अब अब अगर ये  दोनों घटक चुनाव के पहले ममता बनर्जी , अखिलेश यादव , लालू प्रसाद यादव का विशाल  परिवार ,मायावती, के. चंद्रशेखर राव , चंद्रबाबू नायडू, सीताराम येचुरी और शरद पवार जैसे मजबूत इच्छाशक्ति वाले नेताओं के साथ एक मंच पर आते हैं तो विस्फोट को रोका नहीं जा सकता। हालांकि , दोनों  अलग अलग चुनाव लडें और आपस में   सीटों का  तालमेल रहे और यह तय रहे कि चुनाव के बाद यदि मौका लगता है तो वह साथ आ आएंगे।  
       अब  जरा गणित पर गौर करें। कांग्रेस  2019 में  अपने बल पर 100  से ज्यादा सीटें  नहीं ला सकती है और यूपीए 130 पर जाते - जाते चुक जाएगी। इस बीच फेडरल मोर्चा जो सपा, बसपा और तृणमूल जैसे प्रदेशों में मज़बूत पकड़ रखने वाले दाल  वाह  सीटें आसानी से ला सकते  हैं ।  यानी,  दोनों मिलकर 250 हो गये । यह भी   272 सीटों से थोड़ा पीछे रह गए ।  अब अगर यही ग्रुप एकजुट होकर 2019 का चुनाव लड़ते हैं तो अपने संभावनाओं को समाप्त कर देंगे,  क्योंकि वोटर  इन्हें मोदी बनाम अन्य के रूप में  देखेंगे और भाजपा इसका लाभ उठाएगी। यही नहीं,  उत्तर प्रदेश को छोड़कर अन्य महत्वपूर्ण राज्यों में महागठबंधन के सदस्य एक दूसरे के वोटों  को काटेंगे।   संयुक्त रुप से उनकी संख्या बहुत होगी तो  100 से कम ही होगी ।   इसमें बहुत कम संदेह है कि  भाजपा उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ इत्यादि में थोड़ा नुकसान पाएगी इसके अलावा हरियाणा, पंजाब और दिल्ली भी इसमें शामिल हो सकते हैं ।उधर,  बीजद, पीआरएस, एआईडीएमके और  एन डी ए इस  संख्या को थोड़ा बढ़ा सकते हैं लेकिन, बहुत ज्यादा नहीं। यदि फेडरल मोर्चा  230 से 250 सीटें ले  आता है तो निर्दलीय बाकी  25 सीटों की कमी को  संतुलित कर देंगे और भाजपा के पास फ़क़त 250 सीटें बच जाएंगी। अब एक अजीब सी स्थिति पैदा होगी पक्ष और विपक्ष के पास संसद में लगभग बराबर सांसद रहेंगे। बस, बहुमत के लिए कुछ दर्जन सांसदों की जरूरत होगी। अब इसमें एक पार्टी से दूसरी पार्टी में  जाने या हार्स ट्रेडिंग की गुंजाइश बढ़ेगी और इसका शिकार एन डी ए ,  तेलंगाना में टीआरएस  तथा  आंध्र प्रदेश में  वाईएसआर कांग्रेस हो सकती है। वे  20- 25 सीटें   पा सकती है और भाजपा के साथ उनकी कार्यप्रणाली नरम हो सकती है ।
     अब इस समीकरण का राहुल के लिए क्या मतलब है? एनसीपी के शरद पवार जैसे यूपीए के वरिष्ठ नेता शीर्ष पद के लिए खुद को दावेदार मान सकते हैं और वे  राहुल को प्रधानमंत्री बनाने मैं बहुत उत्साही नहीं होंगे । लेकिन उन्हें  मनाया  जा सकता है। राहुल गांधी के लिए फेडरल मोर्चा  में  सबसे बड़ी बाधा है बसपा। उसके   साथ  राहुल के ठंडे - गर्म रिश्ते हैं । मायावती ने तो उनके लिए  अपने दल  के उपाध्यक्ष जयप्रकाश सिंह तक को बर्खास्त कर दिया था। लेकिन यहां सोनिया गांधी भी  एक बाधा है जिसे वह विदेशी समझती  हैं और इसी कारण मायावती ने यहां तक कह दिया था राहुल गांधी भारतीय राजनीति में कभी सफल नहीं होंगे।  राजस्थान में सचिन पायलट अकेले जीतने की पूरी उम्मीद लगाए बैठे हैं । मध्य प्रदेश  और छत्तीसगढ़ में दलित वोट के लिए कांग्रेस और बसपा में सीटों का तालमेल हो सकता है। अब अगर यूपी में कांग्रेस और सपा से गठबंधन के बाद बसपा 20 के आसपास सीट ले आती है तो महत्वपूर्ण पद के लिए वह राहुल का समर्थन कर सकती हैं। इसे   देखते हुए राहुल गांधी 2019 में किसी को भी प्रधानमंत्री पद देने पर  विचार कर सकते हैं चाहे वह ममता हो या मायावती।
    भाजपा को यह मालूम है कि वह 2019 में 50 से 70 सीटें खोएगी। उसे उम्मीद है कि  उड़ीसा, पूर्वोत्तर भारत और पश्चिम बंगाल से यह कमी पूरी हो जाएगी । अब अगर भाजपा 272 सीटों से बहुत पीछे रह जाती है( जिसकी उम्मीद बहुत कम है ) तो मोदी विपक्ष में बैठने की बात भी  कर सकते हैं। अब फेडरल मोर्चा  250 के आसपास सीट  लेकर प्रधानमंत्री पद के लिए आपस में लड़ना शुरू करेगा।  ऐसा होगा यह उम्मीद बहुत कम है   लेकिन इसकी संभावना से इनकार भी नहीं किया जा सकता है।

Sunday, July 29, 2018

भूख और कुपोषण का असर

भूख और कुपोषण का असर

सब्र की एक हद होती है तवज्जो दीजिए
गर्म रखें कब तलक नारों से दस्तरखान को

कुछ दिन पहले झारखंड में एक महिला की मौत भूख के कारण हो गई । अभी 2 दिन पहले दिल्ली में 3 बच्चियों की भूख के कारण मौत हो गई। उन का बाप रिक्शा चलाता था और मकान भाड़ा नहीं दे सका इसलिए घर खाली करने के लिए मकान मालिक ने जोर दिया और बाप घर छोड़कर लापता हो गया। घर में बेटियां भूख से तड़प-तड़प कर मर गईं। यह समझ में नहीं आता भारत जैसे महान देश में लोगों को भूख से से मरने को मजबूर क्यों किया जाता है। बहुत पहले एक सर्वे रिपोर्ट आई थी कि इस दुनिया में हर एक सेकंड में एक आदमी भूख से मर जाता है। यानी, 3,600 लोग हर घंटे भूख से मरते हैं। अगर इस आंकड़े को थोड़ा और फैलाएं तो दुनिया भर में हर साल 31 लाख 53 हजार 6 सौ लोग भूख से मर जाते हैं।  विकास का डंका बजाने वाली इस दुनिया में  93.5 करोड़ लोग कुपोषण और भूख के शिकंजे में हैं। कहीं ना कहीं हर 6 सेकंड में कोई बच्चा भूख से मर जाता है। एक रिसर्च के मुताबिक 84 भूखे देशों की फेहरिस्त में भारत का स्थान 67वां है। विकास की तेज रफ्तार का ढोल पीटने  वाली सरकार भूख से मरने वालों की रफ्तार कम करने में कहीं सक्रिय नहीं दिखाई पड़ रही है। वरना ,सत्ता के गलियारे से थोड़ी ही दूर पर दिल्ली के एक कोने में 3 बच्चियां भूख से तड़प कर नहीं मरी होतीं। कैसी अजीब बात है, यह देश जहां अभी हाल में यह खबर आई है कि हम बहुत तेजी से बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था हैं और हमने कई देशों को पीछे छोड़ दिया है, ऐसे देश में लोग भूख से मर रहे हैं । एक ऐसा देश जहां आनाज चूहे खा जाते हैं इस पर कोई बहस नहीं है । भारत दुनिया का सबसे ज्यादा कुपोषित लोगों का देश है । हर तीसरा बच्चा कुपोषित है और इसका एकमात्र कारण है उन्हें लगातार लंबी अवधि तक भरपेट खाना नहीं मिला । यूनिसेफ की एक ताजा रिपोर्ट में कहा गया है कि 5 वर्ष कम उम्र के बच्चों में मरने वालों में आधे बच्चे भुखमरी और भूख से मरते हैं । हालांकि मरने का अंतिम कारण भुखमरी नहीं माना जाता है। बीमारी मानी जाती है, जैसे पेचिश- निमोनिया इत्यादि । लेकिन, मरने वाला बच्चा इसलिए बीमार पड़ा कि वह भूख के कारण बहुत कमजोर हो चुका था और बीमारियों ने  उस पर हमला कर दिया । दूसरे शब्दों में कहें तो बच्चा भूख से मरा है। हाल में एक आकलन के अनुसार हमारे भारत देश में 15 लाख बच्चे हर साल यानी लगभग साढ़े 4 हजार बच्चे रोज भूख से मर जाते हैं। इनमें से कम से कम एक तिहाई बच्चों को सोने के पहले कुछ खाना मिल जाता वह मरते नहीं। कुछ बच्चे जो मरने से बच जाते हैं उनका जीवन हमेशा गरीबी में झूलता रहता है । भूख केवल शरीर को ही नहीं कुपोषित करती है यह दिमाग पर भी असर डालती है। कुल मिलाकर नतीजा यह निकलता है पूरी पीढ़ी जो गरीबी में पैदा होती है उसका बौद्धिक विकास  अवरुद्ध होता है । वह अपना जीवन भी उसी गरीबी में गुजारते हैं , जिसमें उनका जन्म हुआ था। वे गरीब बच्चे अपने साथ के उन बच्चों से पहले मर जाते हैं जिन्होंने रात में खाना खाकर सोया था। यानी अकाल मौत उनके मुकद्दर में लिखी होती है। 
    यहां इस से मतलब नहीं है कि हमारी अर्थव्यवस्था कितनी तेजी से बढ़ रही है।  मतलब है कि हमारे देश के लाखों बच्चे अपने परिवार के साथ भूखे सो जाते हैं । आजादी के 70 साल के बाद भी जब सरकारी अनाज के भंडार भरे रहते हैं वैसे में  बच्चों का भूख से मरना एक राष्ट्रीय शर्म की बात है।
       जी में आता है कि आईने को जला डालूं
         भूख से जब मेरी बच्ची उदास होती है

Thursday, July 26, 2018

मॉब लिंचिंग आतंकवाद का एक रुप है

मॉब लिंचिंग आतंकवाद का एक रुप है

लगभग 5 सदी पहले थॉमस हॉब्स ने कुदरत की एक घिनौनी स्थिति का जिक्र किया था जिसमें "जीवन बहुत ही घिनौना क्रूर और लघु था।" महाभारत के शांति पर्व में मत्स्य न्याय के एक राज्य का वर्णन है । यहां "बड़ी  मछली छोटी  मछली को खा जाती है और  अराजकता बनी रहती है ।" यह वहां का कानून है । हमें ना  हॉब्स का समाधान चाहिए और ना शांति पर्व की व्यवस्था। भारत में मॉब लिंचिंग हमें यह बताती है हमारा देश एक हिंसा प्रवण राष्ट्र है। उपेंद्र सिंह की पुस्तक प्राचीन भारत में राजनीतिक हिंसा (पोलिटिकल वायलेंस इन अंसिएंट इंडिया) में  हिंदू समुदाय की  हिंसा के उदाहरण हैं। दंगे कभी भी हत्या के बहाने नहीं बन सकते। 1984 की सिख विरोधी हिंसा लिंचिंग का एक उदाहरण है। यही नहीं गुजरात में ट्रेन में हिंदुओं की हत्या भी एक उदाहरण है। हालांकि इसको लेकर काफी विवाद है । बेस्ट बेकरी भी निर्दोष लोगों को जिंदा जला देना घटना का उदाहरण है। देश के कई हिस्सों में महिलाओं को डायन करार दे कर पीट-पीटकर मार डालने की घटना अक्सर सुनने में आती है। ग्राहम स्टेंस और उसके बच्चों को रात में सोते समय  जिंदा जला देने की घटना बहुतों को याद होगी । स्टेंस की पत्नी हत्यारों को माफ कर सकती है लेकिन क्या हम कर सकते हैं? 
    जस्टिस वाधवा की रिपोर्ट हिंदू प्रतिपक्षियों की बुराई के बारे में विस्तार से बताती है। 400 वर्ष पुराने बाबरी ढांचे को तोड़ा जाना भारत के इतिहास में एक नया मोड़ था। वर्तमान महान्यायवादी के के वेणुगोपाल ने इस घटना पर सुप्रीम कोर्ट में कहा था कि "मेरा सिर शर्म से झुक जाता है।" लेकिन 1993 की फरवरी में भाजपा के श्वेत पत्र में इस हिंसा उचित बताया गया था । खाप पंचायत और अन्य समूह विजातीय नौजवान शादीशुदा जोड़ों को फांसी पर लटका देते हैं । एक मामला ऐसा भी सुनने में आया था की एक दलित महिला को गांव में नंगा घुमाया गया था। हिंदू अपराधियों ने भंडारकर लाइब्रेरी को सिर्फ इसलिए फूंक दिया कि वहां एक विदेशी लेखक शिवाजी पर काम कर रहा था । हुसैन या अन्य लोगों की कलाकृति को ,जो लोगों के निजी संग्रह में थी, उन्हें बर्बाद कर दिया गया। मुंबई का दंगा सबको याद होगा जब पुलिस लोगों को मारे जाने की घटनाओं को चुपचाप देखती रही थी। बच्चा चोरी की अफवाह को लेकर लोगों को पीट-पीट कर मार डालने की घटनाएं अक्सर सुनने में आ रही हैं । यही नहीं गाय की रक्षा के नाम पर लोगों को मार दिया जा रहा है। क्या यह सब मिसाले सही हैं? या  ,सुनने में अच्छी लगती हैं ? इसके लिए सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश मिश्रा ने मीडिया को भी जिम्मेदार बताया है। अदालत ने इस पर रोकथाम लिए 9 उपाय बताएं हैं । लेकिन जब तक राजनीतिक दलों में इसके लिए नफरत नहीं होगी और सिविल सोसाइटी सामुदायिक स्तर पर इसकी निंदा नहीं करेगी तब तक यह कायम रहेगी। अविश्वास प्रस्ताव के उत्तर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दावा किया था कि वह चौकीदार है और इस सब के लिए भागीदार हैं। लेकिन हिंदू समुदाय में जब तक इसके लिए निंदा होगी और राजनीतिक दलों की चुप्पी ने सबको यहां तक कि प्रधानमंत्री और उनके मंत्रिमंडल के सदस्यों को भी इसका ठेकेदार बना दिया है। हिंदू समूह यह समझता है गौ हत्या रोकने की कोशिश उनके लिए वोट ले आएगी। राहुल गांधी का मोदी को गले लगाना भी जयंत सिन्हा का लिंचिंग में  शामिल अपराधी को माला पहनाने के तुल्य है। लिंचिंग की घटना एक तरह से आतंकवाद है । 
    देश में विविधता एक हकीकत है और इसको स्वीकार करना होगा । अगर हम यह समझते हैं कि हिंदुत्व ही राष्ट्रीयता है तो हम गलत कर रहे हैं और यह हमारे समुदाय का कर्तव्य है कि समाज को सुरक्षित तथा जीने योग्य बनाएं । क्योंकि हम बहुसंख्यक हैं और यह हमारी जिम्मेदारी है ,लोकतंत्र का भी यही तकाजा है । जरा सोचिए क्या हम अपने बच्चों को यही भारत दे कर जाएंगे जहां जीवन हिंसा से भरा हो और चारों तरफ का वातावरण भयभीत हो।
सियासत लोगों में बटवारा करती है समाज उन्हें एकजुट करता है। राम का शबरी  के जूठे बेर खाना किस को नहीं याद है । समाज इसी सौहार्द का और सौमनस्यता का पक्षधर है। उसे बांटने की कोशिश ना की जाए।

Wednesday, July 25, 2018

अविश्वास प्रस्ताव से विपक्ष को क्या मिला

अविश्वास प्रस्ताव से विपक्ष को क्या मिला

विगत चार वर्ष पहले बड़े-बड़े वायदे और नारों के बल पर जब एनडीए सरकार सत्ता में आई तब से अब तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक भी प्रेस कॉन्फ्रेंस नहीं बुलाई ताकि वह विधि विभिन्नता और अर्थव्यवस्था की दशा के बारे में जनता की आशंकाओं का अंदाजा लगा सकें। ना ही, उन्होंने  सिविल सोसाइटी और सही बात करने वाली मीडिया की बातों पर ध्यान दिया। वे केवल अखबारों में महंगे विज्ञापन देते रहे और मंत्रियों की ठकुरसुहाती से फूले रहे। उन्होंने यह भी नहीं देखा कि देश किन खतरों की तरफ बढ़ रहा है। आरोप और शिकायतों को दरकिनार कर दिया जाता है या प्रत्यारोप में बदल दिया जा रहा है।
      इससे उत्पन्न कुंठा तथा लंबे अरसे से पारदर्शिता एवं जवाबदेही अभाव से ऊब कर एक नई परिस्थिति का जन्म हुआ।  इसी परिस्थिति ने अविश्वास प्रस्ताव के लिए विपक्ष को मजबूर किया । वरना, विपक्षी दल इतने नादान नहीं है कि उन्हें इस बात का एहसास नहीं था कि प्रस्ताव पराजित हो जाएगा ।उन्हें अपनी संख्या और सत्तारूढ़ दल की संख्या बखूबी मालूम थी।
      अविश्वास प्रस्ताव पेश करते हुए तेलुगू देशम पार्टी के सांसद जयदेव गल्ला ने सही कहा कि यह आंध्र प्रदेश की जनता से अन्याय के खिलाफ जंग है। उन्होंने  कहा कि मोदी सरकार ने अमरावती बांध के लिए बहुत कम पैसे दिए हैं , इससे ज्यादा तो सरदार पटेल की मूर्ति बनाने के लिए दिया गया । उन्होंने बताया  कि जितनी राशि की जरूरत थी उसका महज दो तीन प्रतिशत ही मुहैया कराया गया। उन्होंने कहा कि " मोदी-शाह के काल को बिना पूरे किए गए वायदों की अवधि के रूप में गिना जाएगा।" 
   तृणमूल कांग्रेस के सांसद दिनेश त्रिवेदी ने जानबूझकर पौराणिक संदर्भ उठाते हुए कहा कि " पांडवों के पास संख्या नहीं थी लेकिन सच तो था । यही कारण था कि पांडवों ने सच का पक्ष लिया।"  यह लोकसभा में सत्तारूढ़ की विशाल संख्या पर स्पष्ट तंज था । उन्होंने मोदी सरकार को शतुरमुर्ग बताया जो संकट के समय अपना सिर बालू में छिपा लेता है और समझता है कि खतरा टल गया। सरकार को मॉब लिंचिंग का मूक दर्शक बताया गया।
     यह अविश्वास प्रस्ताव कभी भी संख्या या विजय की मंशा से संबद्ध नहीं था। यह शासन में जो गैर जिम्मेदारी है और गैर जवाबदेही व्याप्त है उसे प्रदर्शित करने के लिए और जनता के सामने रखने के इरादे से प्रस्तुत किया गया था । यह एक तरह से जनता दरबार की तरह था और सरकार को जवाब देने के लिए मजबूर करने के उद्देश्य से था। यह घोड़े को तालाब तक खींचकर लाने जैसा था इस उम्मीद में कि वह पानी पी ले।
ज़रूरत से ज्यादा  प्रचार तथा हालात के बारे में गलत सूचनाओं के भ्रमजाल जाल में उलझी जनता के समक्ष सच लाने की कोशिश की तरह था ।  यह सोचना बिल्कुल बचपना है कि सरकार हर आरोप का जवाब देगी । जितने आरोप विपक्ष ने लगाए वह पहले भी पत्रकारों और प्रेस द्वारा लगाए जा चुके हैं । उन्हें मौन या झूठे समतुलयों से उसे गलत बताया जा चुका है । भक्त मंडली किसी भी आरोप को पिछले 70 साल से जोड़कर सामने पेश करती है। राहुल गांधी ने रफाएल सौदा, रोजगार के अभाव ,डोकलाम की घटना ,मोदी जी की चीन यात्रा और उसके प्रतिफल ,एक गुट का पूंजीवाद और किसानों की पीड़ा इत्यादि को उठाया। जो भी हो जिन्होंने संसद की कार्यवाही देखी है उन्होंने यह भी देखा होगा की राहुल गांधी का आम लोग  चाहे जितना मजाक बनाएं लेकिन उनके भाषण के दौरान मोदी जी आंख तक नहीं उठा पाए थे । मोदी जी का बॉडी लैंग्वेज एक अजीब परेशानी को प्रदर्शित कर रही थी। हम जानते हैं इसके बाद क्या हुआ राहुल गांधी का गले लगना और उसके बाद उनकी आंख मारने की घटना ने बहस के प्रभाव को खत्म कर दिया ।
    बेशक अविश्वास प्रस्ताव पारित हो गया लेकिन विपक्ष ने अपना उद्देश्य प्राप्त कर लिया। उसने सरकार के बारे में जनता के सामने सब कुछ खोल कर रख दिया अब हो सकता है रफ़ाएल सौदा आगे चलकर इस सरकार के लिए बोफोर्स बन जाए । बहुतउम्मीद है कि यह प्रधानमंत्री के लिए 2019 में मुश्किलें पैदा कर दे।