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Wednesday, June 1, 2011

जरूरी है काम करता हुआ दिखना



हरिराम पाण्डेय
26.05.2011
पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव संपन्न हो गये और नयी सरकारों ने अपना काम करना भी शुरू कर दिया। अब सरकारों के भविष्य पर तरह- तरह के कयास लगाये जा रहे हैं। जहां तक राजनीति का सवाल है वह एक बायोलॉजिकल फिनोमिना है और उसके प्रभाव देश तथा काल सापेक्ष होते हैं। यहां इरादा इस नयी सियासी स्थिति के विश्लेषण का नहीं है बल्कि कार्य और कारण सम्बंधों को जानने का प्रयास है। पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु में सरकारें गिरीं और विपक्ष बहुमत के साथ सत्ता में आया। क्या 2जी घोटाला डीएमके के पतन का कारण था या उनकी उपहार बांटने की योजना कारगर नहीं हुई? शायद हम ठीक-ठीक कारण कभी न जान पाएं। इसी तरह शायद हम यह भी कभी न जान पाएं कि पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की शानदार जीत की वजह सिंगुर थी या वाम सरकारों का दुष्प्रबंधन या मतदाताओं में बदलाव की चाह। लेकिन एक बात साफ है कि देश में लगातार दृढ़ और आक्रामक राजनेताओं का उदय हो रहा है। शानदार जीत के बाद सत्ता में आने वाले कई मुख्यमंत्री हैं, जैसे नरेंद्र मोदी, नीतीश कुमार , जय ललिता, मायावती, ममता बनर्जी इत्यादि। इन राजनेताओं का अपना दृष्टिकोण है और अपना दर्शन है।
ये नए नेता परंपरागत घिसे-पिटे नेताओं से अलग हैं।, ये अक्सर चुप रहते थे और जब बोलते थे उसके कई कूटनीतिक, राजनीतिक मायने होते थे। इससे कई बार मूल मुद्दा ही गायब हो जाता था। यह परिपाटी कांग्रेस से शुरू हुई थी, वह अब भी निभा रही है। लेकिन आज का नेता बेबाक होना चाहिये। यही भारतीय मतदाताओं की आकांक्षा है। इन नये नेताओं का बेबाकपन ही उनकी विजय का कारण है।
मौनी बाबा नेताओं में पीवी नरसिंहराव बेजोड़ उदाहरण हैं। हालांकि उन्होंने बड़े नाजुक दौर में देश को चलाया पर उनके कार्यकाल में उनकी आवाज कभी कभार ही सुनाई दी थी। किसी को उनकी आवाज तक याद नहीं है। उनके बाद सोनिया गांधी ने भी चुप रहकर और संजीदगी के साथ प्रधानमंत्री पद ठुकराकर अपनी एक खास छवि निर्मित की। राहुल गांधी भी कम ही बोलते हैं। प्रधानमंत्री जी के बारे में! तो कुछ कहना ही नहीं। न बोलो, न रियेक्ट करो, न सफाई दो। यानी ऐसा कुछ भी ना करो जिससे लगे कि उनका अपना कोई सोच भी है। हो सकता है या कहें कि यकीनन यह नीति कारगर थी पर अब नहीं है।
पाठकों ने देखा होगा इस बार जितने भी नेता जीत कर आये किसी ने कोई डिप्लोमेसी नहीं की, चिकनी-चुपड़ी बातें नहीं की , नर्भ-नाजुक बयान नहीं दिये। लोग यह रवैया पसंद करते हैं, खासतौर पर हमारी नौजवान पीढ़ी। ममता जी ने अपनी जीत को बंगाल की दूसरी आजादी बताया। जया ने जीतने पर कहा कि डीएमके ने तमिलनाडु को पूरी तरह बरबाद कर डाला था। अन्ना हजारे ने भी जब दृढ़ता से यह कहा था कि 'मेरे मंच पर राजनेताओं के लिए कोई जगह नहीं हैÓ तो करोड़ों लोग उनके प्रशंसक हो गये थे।
यह 2011 का भारत है। अब खामोशी को गरिमा या ऊंचे ओहदे का प्रतीक नहीं माना जाता। इसका कारण है आज राजनेताओं की विश्वसनीयता में गिरावट का आना। उनकी खामोशी को लोग नाकारापन या टालमटोल का मान लेते हैं। लोग सरकारों की अविश्वसनीयता से तंग आ चुके हैं। लोग दबंग, आक्रामक और आत्मविश्वास से भरपूर नेताओं को पसंद करने लगे हैं। इस तरह के बदलाव होते हैं। भारतीय किसी बेबाक राजनेता को मौका देना पसंद करते हैं। यह सामाजिक परिवर्तन राजनीतिक दलों के लिए एक सबक है। सबसे जरूरी बात यह कि उसे विभिन्न मसलों पर लोगों से बात करने के लिए तत्पर रहना चाहिए। वे भले ही बेबुनियाद खबरों पर टिप्पणी न करें, लेकिन आमजन के जीवन से जुड़े अहम मसलों पर उनकी सक्रियता दिखनी चाहिए। ममता जी का खुली सड़क पर पैदल आना, अस्पताल में जाकर रोगियों से मिलना और ट्राफिक को अपने काफिले के चलते रोकने नहीं देना भले ही आज अजीब लग रहा है पर इससे आमजन को लगता है कि उनकी सरकार उनके बीच की है। अब इस तरह के बयानों से काम नहीं चलेगा कि 'हम मामले की जांच कर रहे हैं और जल्द से जल्द उचित कार्रवाई करेंगे।Ó दोटूक बात करें, मुद्दे की बात करें, आप क्या कर सकते हैं और क्या नहीं कर सकते, इसे लेकर एक ईमानदारीपूर्ण रवैया अख्तियार करें आज जरूरत इसी की है। देश के लोग अब आक्रामक नेता चाहते हैं।

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