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Monday, June 13, 2011

कोई भाजपा से पूछे तो जरा



12 जून 2011
गत महीने भर से देश का सियासी माहौल गरमा रहा है। कभी हजारे के अनशन के पीछे हजारों नारे तो कभी बाबा के आंदोलन को रोकने के लिये आवभगत से लेकर बल प्रयोग तक। साथ ही गांधी जी की समाधि पर ठुमके और जिले जिले में नारे। सबका निशाना संप्रग सरकार, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और संप्रग की चेयरपर्सन सोनिया गांधी हैं। इन सबमें सबसे प्रगल्भ भारतीय जनता पार्टी है तथा लेफ्ट वाले भी कहीं कहीं जोर लगाते नजर आ रहे हैं। वैसे यह सही है कि घोटालों के कारण केंद्र सरकार की विश्वसनीयता को काफी आघात लगा है। विपक्ष जनता को यह बताने में लगा है कि मौजूदा सरकार एकदम नकारा है। इसे बदल दिया जाना चाहिये। वह सरकार में इतने खोट गिना रहा है कि यदि वश चले तो जनता अभी उसे बदल दे। पर विपक्ष के शोरशराबे में यह पूछना लोग भूल जाते हैं या यों कहें कि तेजी आ रही आरोपों की बाढ़ में जनता को यह पूछने का मौका ही नहीं मिलता कि 'विपक्ष की दशा क्या है। यदि सत्ता में वे लोग आते हैं तो प्रधानमंत्री कौन होगा?Ó सबसे बड़ा विपक्षी दल होने के नाते भाजपा को ही यूपीए सरकार का स्वाभाविक विकल्प प्रस्तुत करना चाहिए, लेकिन भाजपा अब भी अपने लिए अगली पीढ़ी का नेता तलाशने की जद्दोजहद कर रही है। शायद यही कारण है कि लालकृष्ण आडवाणी अब भी भाजपा संसदीय दल के अध्यक्ष बने हुए हैं, जबकि वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव में शिकस्त के बाद उन्होंने सक्रिय राजनीति से संन्यास लेने का संकेत दिया था। इस नवंबर में आडवाणी 84 वर्ष के हो जाएंगे और आम चुनाव अब भी तीन वर्ष दूर हैं। केरल चुनाव में वीएस अ'युतानंद के उल्लेखनीय प्रदर्शन ने भले ही वयोवृद्ध राजनेताओं के लिए आस जगायी हो, लेकिन इस तरह की कामयाबी लोकसभा चुनाव में भी दोहरायी जा सकती है, यह निश्चित नहीं है।
राजनीतिक वापसी के आडवाणी के संजीदा प्रयासों के बावजूद अयोध्या मामले की छाया उनकी सर्वमान्यता को हमेशा चुनौती देती रहेगी। लेकिन अगर आडवाणी नहीं तो कौन? कैडर आधारित संगठन के रूप में आरएसएस संगठित नेतृत्व की धारणा पर जोर देता रहा और राजनीतिक वंशवाद और मतवाद की परिपाटी से दूरी बनाए रहा।
लेकिन समय के साथ संघ को वाजपेयी की लार्जर दैन लाइफ छवि को स्वीकारने के लिए विवश होना पड़ा। अब जब आडवाणी-वाजपेयी युग समाप्त हो गया है तो संघ भी अपनी इस पुरानी आस्था की ओर लौट गया है कि संगठन व्यक्ति से ऊपर होता है। अब नितिन गडकरी जैसे 'लो प्रोफाइलÓ व्यक्ति की भाजपा अध्यक्ष के रूप में नियुक्ति संघ नेतृत्व की ओर से भाजपा को यह संकेत था कि उसने किसी भी अपेक्षाकृत युवा नेता को समकक्षों में प्रथम नहीं पाया है। संदेश स्पष्ट था, नेता के रूप में किसी के नाम पर तभी विचार किया जाएगा जब वह अहंकार व गुटबाजी से ऊपर उठ जाए।
भाजपा के लिए दुर्भाग्यपूर्ण यह रहा कि अतीत की दुश्मनी के घाव अब भी नहीं भरे हैं। सुषमा स्वराज ,वसुंधरा राजे और उमा भारती करिश्माई 'वोट कैचरÓ नेता हैं, लेकिन संघ के पुरुष प्रधान परिवेश में उनकी स्वीकार्यता संदिग्ध है। हाल के उदाहरण भी यही बताते हैं कि भगवा भ्रातृत्व के दायरे में एक महिला नेता को किस तरह के प्रतिरोधों का सामना करना पड़ सकता है। अरुण जेटली भाजपा के शहरी, सुसंस्कृत नेता के रूप में हैं। लेकिन जो लोग टीवी के एसएमएस पोल में वोट देते हैं, वे आमतौर पर चुनाव में वोट डालने नहीं जाते। अब बचे नरेंद्र मोदी। बेशक वे अग्रपंक्ति के नेता हैं पर इन दिनों एकल पाटीं के शासन का समय लद चुका है और वे गठबंधन की सरकार में कितने मुफीद होंगे यह बताने की जरूरत नहीं है। तो 2014 के आम चुनाव में विपक्ष की ओर से प्रधानमंत्री पद का दावेदार कौन होगा? साफ है कि विपक्ष को ऐसा नेता चाहिए, जिसका अपना जनाधार हो, जो निष्णात रणनीतिकार हो, जिसकी साफ छवि हो और सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि उसे एक गठबंधन निर्माता के रूप में देखा जाता हो। क्या भाजपा के पास कोई ऐसा नेता है? आंदोलनों को हवा देने वाले विपक्ष से यह पूछना जरूरी है।

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