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Saturday, June 4, 2011

नयी शुरुआत


हरिराम पाण्डेय
2.06.2011
ख्वाहिशात को, ख्वाबों को, अरमानों को
रोकना पड़ता है उमड़े तूफानों को
काम नहीं आते जज्बात सियासत में
जायज होती है हर बात सियासत में

बदलाव के वायदों और उन वायदों को पूरा करने के दरमियान उम्मीद की सुनहरी किरणें दिखायी पड़ रही हैं। परिवर्तन के कारक बनकर पश्चिम बंगाल की सत्ता में आयीं मुख्य मंत्री ममता बनर्जी ने अपने कार्यकाल के पहले ही कुछ दिनों में अपने मंसूबों का खुलासा कर दिया। सोमवार को उन्होंने नयी विधानसभा में जो कहा वह कई मायने में बहुत महत्वपूर्ण है। उन्होंने नये अध्यक्ष से कहा कि वे विपक्ष को सत्ता पक्ष से ज्यादा महत्व और ज्यादा मौके दें। उनकी इस बात से अब तक की परिपाटी भंग होती नजर आ रही है। उन्होंने कहा कि वे पार्टी का शासन नहीं लोकतंत्र चाहती हैं। ऐसा कह कर ममता जी ने 'हमलोगोंÓ और 'उन लोगोंÓ के मध्य की दिवार को खत्म कर दिया। इस दिवार को पिछले सत्ताधीशों ने खड़ा किया था। उनके इस कथन से विधान सभा के वातावरण में खास किस्म का सद्भाव दिखायी पडऩे लगा। इसके पहले विपक्ष तनाव से भरा था पर मुख्यमंत्री के ऐसा कहते ही सबके चेहरों पर एक खास किस्म की आश्वस्ति दिखायी पडऩे लगी। विपक्ष के कई नेता तो मुख्यमंत्री के इस कथन पर हाथ मिलाने को उत्सुक दिखायी पड़े। विपक्ष के नेता सूर्य कांत मिश्र ने अपने भाषण में तो कह ही दिया कि 'विधानसभा की गरिमा विपक्ष से होती है और दरअसल लोकतंत्र में सदन विपक्ष का ही होता है। यह उनकी पार्टी ने अपने शासनकाल में भुला दिया था। Ó इस कथन के बहुत ज्यादा बड़े मतलब नहीं निकाले जा सकते हैं। इसका स्पष्टï मतलब होता है कि विपक्ष संसदीय राजनीति का महत्वपूर्ण हिस्सा है और बिना विपक्ष के लोकतंत्र की कल्पना नहीं की जा सकती है। विपक्ष के बिना लोकतंत्र का विचार व्यर्थ है। पश्चिम बंगाल के संदर्भ में विपक्ष का अलग मतलब है। यहां विपक्ष के सदस्यों की संख्या तुलनात्मक रूप में काफी कम है पर वह मतदाताओं के एक बड़े भाग का प्रतिनिधित्व करता है। अतएव उनकी बात सुनी जानी चाहिये। लोकतंत्र में विपक्ष ही मतभिन्नता का जायज उपकरण है। यहां जायज शब्द का अर्थ है कि विपक्षी सदस्य चूंकि सदन के निर्वाचित सदस्य हैं लिहाजा वे अपने कार्यों के लिये जनता के प्रति जवाबदेह हैं। लोकतंत्र सत्ता पक्ष और विपक्ष के संवाद से ही सार्थक स्वरूप ग्रहण करता है। वाममोर्चे के शासनकाल में विपक्ष सदन के भीतर और बाहर दोनों स्थानों पर निरर्थक था। ममता जी के भाषण और सूर्यकांत मिश्र के जवाब से ऐसा लगता है कि तीन दशक से ज्यादा अवधि तक जिस प्रक्रिया में व्यतिक्रम आ गया था उसकी नयी शुरुआत होने वाली है। लेकिन इसके अपने खतरे भी हैं। ममता जी की नीयत पर अविश्वास करने का सवाल ही पैदा नहीं होता। पर सत्तापक्ष और विपक्ष में कई ऐसे ततव हैं जो अपनी कथनी और करनी से पूरी प्रक्रिया को दिशाहारा बना सकते हैं। ऐसे खतरे विपक्ष से ज्यादा प्रतीत हो रहे हैं। इसलिये सरकार को काफी संयम से कदम उठाना होगा। दूसरी बात कि सत्ता विचारों को और नीयत को भ्रष्टï करती है, यह साधारण मानवीय कमजोरी है। मेधावी लोगों के अभाव से ग्रस्त सत्तारूढ़ दल के बड़े नेताओं को अपने साथियों की इस कमजोरी के प्रति चौकस रहना होगा वरना एक छोटी सी भूल का सियासी लाभ उठाने में विपक्ष कोई कसर नहीं छोड़ेगा। अगर यह शुरू हो गया तो सारे आदर्श धरे के धरे रह जायेंगे।
दिन होता है अक्सर रात सियासत में
गूंगे कर लेते हैं बात सियासत में
सच्चाई के बड़े बड़े दावों वाले
बिक जाते हैं रातों रात सियासत में
और ही होते हैं हालात सियासत में
जायज होती है हर बात सियासत में

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