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Saturday, June 4, 2011

जमीन की सियासत में मोहरा बना किसान


हरिराम पाण्डेय
3.06.2011

प्रख्यात इतिहासकार प्रो. बी बी मिश्र ने अपनी पुस्तक 'महात्मा गांधीÓ ज मूवमेंट इन चम्पारणÓ में महात्मा गांधी के कुछ पत्रों को प्रकाशित किया है जिसमें इस बात का जिक्र है कि उन्होंने क्यों और कैसे अपनी वेश भूषा बदली। इसमें चम्पारण के निलहे किसानों की कहानी गांधी जी के हाथों लिखी गयी है। ये कथाएं उन किसानों के वर्णन पर गांधी जी द्वारा लिये गये नोट्स पर आधारित हैं। गांधी ने लिखा है कि निलहे किसानों की जिंदगी ने उन्हें अपनी राजनीति को दिशा देने में मदद की और यह सोचने पर बाध्य किया कि किन लोगों को सही अर्थों में हिफाजत की जरूरत है। तबसे अब तक किसान और उनकी जमीन राजनीति और नीति की धुरी बनी रही। लेकिन चम्पारण के नील के खेतों से भट्टïा परसौल तक बहुत कुछ बदल गया। आजादी के तुरत बाद से जमींदारी उन्मूलन की लड़ाई शुरू हो गयी। कई किसान संगठन बने और अपने अधिकारों के लिये जोर आजमाइश होने लगी। लगभग समाजवादी और साम्यवादी दलों ने किसानों के अधिकारों का समर्थन किया और कृषि सुधार नीति निर्धारण का आधार बन गया। इसके बाद शुरू हो गया सियासत के खेल में किसानों का इस्तेमाल। कांग्रेस ने तो बैलों की जोड़ी को ही अपना चुनाव चिह्न बनाया और शास्त्री जी ने किसानों को महत्वपूर्ण बनाने के लिये उन्हें राष्टï्रीय सुरक्षा का पर्याय बना दिया और नारा दिया 'जय जवान जय किसानÓ। इसके बाद हरित क्रांति और फिर खाद्यान्न में आत्मनिर्भरता के नाम पर एक नूतन अर्थव्यवस्था की ही नींव नहीं डाली गयी बल्कि इसके साथ ही किसानों के एक नये वर्ग का उदय भी शुरू हो गया।
लेकिन 1990 के मध्य से राजनीति ने कृषि के सम्बंध में कोई नयी बात नहीं कही। इस बीच जो पार्टियां अस्तित्व में आयीं , खास कर राजद और बसपा वे मूलत: कृषि के आधार पर खड़ी हुईं थीं पर उन्होंने बेहतर प्रतिनिधित्व की दलीलें शुरू कर दीं। उनकी देखा देखी अन्य पार्र्टियों ने भी उनके स्वर में बोलना शुरू कर दिया। कई पार्टियों ने तो अपना नजरिया तक बदल लिया। कांग्रेस का '1971 का गरीबी हटाओ वाला गरीब आदमी 2004 आते- आते अब आम आदमी बन गया।Ó नतीजा हुआ कि खेती गौण होने लगी और शहरीकरण को प्रोत्साहन मिलने लगा। अब समस्या हुई कि जमीन का अधिग्रहण कैसे हो? एक बार फिर किसान नीतियों का केंद्र विंदु बन गया। पश्चिम बंगाल में 2006 में सिंगुर वाली घटना हुई और इसने एक नये किस्म के राजनीतिक गठबंधन को तैयार कर दिया जिसने अंतत: 34 वर्ष पुराने वामपंथी शासन को उखाड़ फेंका। अब देश के अन्य भागों में सियासत का यही मॉडल आजमाया जा रहा है जिसमें महाराष्टï्र के जैतापुर, आंध्र के श्रीकाकुलम, उड़ीसा में पास्को और उत्तर प्रदेश में भट्टïा परसौल प्रमुख हैं। इन सभी स्थानों में किसानों की जमीनों के अधिग्रहण के विरोध में उग्र आंदोलन शुरू हो गये। सभी जगहों के किसान अपनी जमीन का ज्यादा दाम चाह रहे हैं या कुछ ऐसा चाह रहे हैं कि जमीनों की कीमतें बढ़ती हैं तो उन्हें भी इसका लाभ मिले। इस कारण अब भूमि अधिग्रहण कानून को लेकर एक पाखंडपूर्ण विचार फैल रहा है। यहां यह बता देना जरूरी है कि 19 वीं सदी के शुरुआती दिनों में रेल लाइन बिछाने के लिये जमीन के बंदोबस्त के उद्देश्य से भूमि अधिग्रहण कानून बनाया गया था। इस नयी स्थिति के कारण एक नयी कृषि लॉबी बन गयी। भारत में अभी भी लगभग 60 प्रतिशत लोग किसी न किसी तरह खेती पर निर्भर हैं। इनमें से अधिकांश भूमिहीन किसान हैं या छोटे कृषक हैं। ये सब जमीन से बंधे हैं और इनके पास कोई विकल्प भी नहीं है। इसका परिणाम हुआ कि यहां भारी गरीबी है, कम मजदूरी की दर है और निम्न जीवनस्तर है। ऐसा नहीं कि इनकी आर्थिक स्थिति में सुधार नहीं हो सकता पर मुश्किल है कि शुरुआत में निवेश की ज्यादा जरूरत होती है जिसे लोग नजरअंदाज कर देते हैं। ऐसे में सड़कें बनाना ज्यादा किफायती लगता है। किसान की स्थिति आज भी राजनीति की बिसात पर मामूली पैदल की हैसियत जैसी है। महात्मा से लेकर ममता तक सबने अपनी सियासी जमीन को किसानों की उम्मीदों पर तैयार किया पर किसी ने भी एक सदी पहले महात्मा की कही बात पर ध्यान नहीं दिया कि 'राजनीति का किसानों के प्रति कुछ कत्र्तव्य है।Ó

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