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Friday, June 24, 2011

लोकतंत्र को लूटने की कोशिश

हरिराम पाणेय
23.6.2011
लोकपाल विधेयक पर अण्णा हजारे और उनकी टीम की सरकार से नहीं बनी और उन्होंने आंदोलन का ऐलान कर दिया है। बाबा रामदेव ने भी उनका साथ देने की घोषणा की है। जबसे करप्शन के खिलाफ सिविल सोसायटी ने शंख फूंका है और अण्णा बोट क्लब में अनशन पर बैठे हैं तब से सिविल सोसायटी के नेता ऐसा माहौल बना रहे हैं कि लोग अण्णा को गांधी समझने लगें। वे उन पर गांधी के मुखौटे को लगाने में लगे हैं। वे अण्णा के अनशन की गांधी के अनशन से तुलना कर रहे हैं। मजे की बात है कि डॉट कॉम संस्कृति में पले- बढ़े हमारे नौजवानों का एक समूह इस पर यकीन भी करने लगा है। लेकिन यह एक छलावा है और इससे पता चलता है कि 21वीं सदी में जी रही नौजवान पीढ़ी गांधी के बारे में कितना कम जानती है। गांधी जी ने अपने जीवन में 17 बार अनशन किया, जिनमें तीन बार आमरण अनशन था। वे अनशन ब्रिटिश हुकूमत से कुछ करवाने के लिये नहीें थे बल्कि उनका उद्देश्य अहिंसा के समर्थन में भारत को एकबद्ध करना था। केवल 1932 में बापू ने अछूतों के लिये पृथक निर्वाचक मंडल की अंग्रेज सरकार की घोषणा के विरुद्ध आमरण अनशन किया था। कुछ लोग इसे सरकार को झुकाने की गरज से किया गया अनशन करार देते हैं। पर वे गलत हैं क्योंकि उसका अद्देश्य भी छुआछूत को समाज से दूर करना था। इस अनशन के समर्थन में गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर ने लिखा था कि 'भारत की एकता और अखंडता के लिये जीवन न्यौछावर कर देना अच्छा है। Ó वह अनशन भी न सरकार विरोधी था और ना राजनैतिक। गांधी जी ने कभी राजनीतिक लक्ष्यों की प्राप्ति या किसी किस्म की रियायत के लिये अनशन नहीं किया। उन्होंने नमक पर टैक्स वापस लेने के लिये कभी अनशन नहीं किया बल्कि इसके विरोध में आंदोलन किया। यहां तक कि उन्होंने कभी स्वतंत्रता की मांग को लेकर अनशन नहीं किया बल्कि इसके आंदोलन पर आंदोलन करते रहे। वे इस प्रकार के तरीकों को हिंसा मानते थे बेशक इसका उद्देश्य चाहे कितना ही लोक-हित का हो। वे इन तरीकों को बंदूक की नोक पर लूटना मानते थे। उनका कहना था कि उनके अनशन से लोग महसूस करें कि उन्हें क्या करना है और लोग हिंसा से विमुख हो जाएं। लेकिन अण्णा और रामदेव का अनशन आम लोगों के बीच क्रोध को हवा दे रहा है और इससे हिंसा के भड़कने की आशंका बनी हुई है। बापू के सोचने तथा करने में एवं अपने को आधुनिक युग के महात्मा अथवा ऋषि कहलवाने में सुख पाने वालों के सोचने में यही फर्क है। अण्णा और बाबा के अनशनों और चेतावनियों को अहिंसक बताने वाले आम जन को भ्रमित कर रहे हैं। यहीं आकर सिविल सोसायटी की मंशा पर भी संदेह होने लगता है। इस प्रकार के अनशनों का स्वरूप परम हिंसक होता है और यह स्वतंत्र भारत के उद्देश्यों के प्रतिगामी है। हो सकता है कि इनका उद्देश्य जनहित में हो, बहुत प्रशंसनीय हो तब भी इसका हमारे संविधान की व्यवस्था पर दुष्प्रभाव होगा। चूंकि हमारा संविधान समानता की बुनियाद पर अवस्थित है और इसकी मूल भावना आपसी सौहार्द है। अलबत्ता यह सच है कि समानता की इस सांविधानिक व्यवस्था का बहुत ज्यादा सामाजिक लाभ नहीं हासिल हुआ है और समाज में असमानता कायम है। लेकिन समानता एक ऐसा आदर्श है जो सभी प्रकार के मुकाबलों का शस्त्र बन सकता है। ऐसे में कोई भी आंदोलन जो संसद के अधिकारों पर आघात करता है वह दरअसल देश की समग्र क्रांतियों के लाभ और लोकतंत्र को लूटने की कोशिश है। यहां इरादा अण्णा हजारे और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सम्बंधों की निष्पत्ति पर न तो, बहस करना है न ही रामदेव के धंधों का विश्लेषण करना है और ना सिविल सोसायटी के अगवों को कम करने की कोशिश है यहां तो यह बताने का प्रयास है कि कोई भी हिंसक आंदोलन संसद की सत्ता और उसके सामथ्र्य का अवमूल्यन करता है चाहे उसका लक्ष्य संसद को मजबूत करना ही क्यों ना हो। इसलिये देश वासियों को ऐसे छद्मों से सतर्क रहने की जरूरत है।

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